भगवान एक हैं, किन्तु मनुष्य आदि जीव बहुत हैं । बहुतों के साथ सम्पर्क रहने के कारण एक के साथ (भगवान के साथ) हमारा सम्पर्क कम हो गया है। परन्तु चित् – जगत में सभी एक की (भगवान की) सेवा में व्यस्त रहते हैं। वहाँ पर शान्ति या अशान्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है । जिसे हम शान्ति या अशान्ति समझते हैं, वास्तव में हमें इन दोनों की उपलब्धि तो हमारी भोगपिपासा के कारण ही होती है। भोगों के सामयिक अभाव का नाम अशान्ति है तथा सामयिक भोगों की प्राप्ति को ही हम शान्ति कहते हैं । किन्तु हम यह विचार नहीं कर पाते कि वास्तव में क्षणिक शान्ति तो अशान्ति की ही पूर्व अवस्था है ।
श्रीलप्रभुपद
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वैकुण्ठ ही वैकुण्ठ को दे सकता है
शुद्ध भक्तों की सेवा, शुद्ध भक्तों का संग और उनकी कृपा के बल से धीरे-धीरे साधक अनन्य श्रीकृष्ण-भक्ति में रुचि प्राप्त करने लगता है तथा श्रीकृष्ण भक्ति में रुचि प्राप्त करके ये निष्कपट साधक तमाम गुणमयी एवं लौकिक बाधाओं को पार करके प्रेम-भक्ति में प्रतिष्ठित हो सकता है। श्रीचैतन्य वाणी के अनुसार शुद्ध भक्त की कृपा के अलावा शुद्ध-भक्ति प्राप्ति का अन्य कोई भी रास्ता जगत में नहीं है। इसलिए भक्त और भगवान दोनों की सेवा ही साधक का मुख्य कर्तव्य है। दोनों ही नित्य-आराध्य हैं। साधु-भक्त वैकुण्ठ वस्तु हैं। वैकुण्ठ-वस्तु ही बद्ध-जीव को कृपा-पूर्वक वैकुण्ठ वस्तुओं में ले जा सकती है। श्रीविष्णु, वैष्णव एवं विष्णु का धाम-तीनों ही वैकुण्ठ हैं। श्रीविष्णु-वैष्णव की सेवा वृत्ति को वैकुण्ठ वृत्ति कहते हैं। इसलिए वैकुण्ठ ही वैकुण्ठ को दे सकता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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