देवी-देवताओं व शास्त्रों की निन्दा न करके जो हरिनाम का आश्रय लेते हैं, वे ही साधु हैं
अन्यदेव अन्यशास्त्र ना करि’ निन्दन।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन ।।
से साधु गृहस्थ हउ अथवा संन्यासी।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी ।।
यार यल नामे रति, से तत वैष्णव ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव ।।
इथे वर्णाश्रम, धन, पाण्डित्य, यौवन।
कोन कार्य नाहि करे रूपबल जन ।।
शुद्ध – साधुजन, अन्य देवी-देवताओं एवं अन्य शास्त्रों की निन्दा नहीं करते, वे तो एकमात्र श्रीकृष्णनाम का आश्रय लेते हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे हे प्रभु! ऐसे हरिनाम का आश्रय लेने वाले साधु चाहे गृहस्थी हों या संन्यासी, उनके चरणों की धूलि को पाने का मैं हमेशा प्रयास करता रहता हूँ। मेरा तो ये अनुभव है कि जिसकी जितनी हरिनाम में रुचि है, वह उतना ही बड़ा वैष्णव है। इसमें वर्णाश्रम, धन, विद्वता, यौवन, रूप, बल व जन आदि कुछ भी महत्त्व नहीं रखता।
अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय।
साधुनिन्दा छाड़िबेन ए धर्म निश्चय ।।
नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा।
भक्त भक्तिविवर्जिता हइले विरूपा ।।
याँहा साधुनिन्दा, ताँहा नाहि भक्तिस्थिति।
अतएव अपराधे तथा परिणति ।।
साधुनिन्दा छाड़ि’ भक्त साधुभक्ति करे।
साधुसंग साधुसेवा एइ धर्माचरे ।।
इसलिए जिन्होंने हरिनाम का आश्रय लिया है, उन्हें अवश्य ही साधुनिन्दा छोड़नी चाहिए। श्रीहरिनाम का आश्रय रूपी शुद्ध – भक्ति का आश्रय लेने वाले भक्त ही शुद्ध-भक्त हैं।
भक्त के द्वारा भक्ति को छोड़ने से वह अभक्त हो जाता है। जहाँ साधुनिन्दा होती है, वहाँ भक्ति नहीं रहती। वह स्थान तो अपराध के स्थान में बदल जाता है। अतः साधकों को चाहिए कि वे साधुनिन्दा को छोड़कर, साधु – भक्त की सेवा करेंगे। भगवान का भक्त हर समय सासधुसंग व साधुसेवा करेगा, यही उसका धर्माचरण है, इसी का वह पालन करेगा।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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