नाम-तत्त्व के सम्बन्ध में शंका रहित होने के लिये यह समझना आवश्यक है कि अक्षरात्मक नाम चिन्मय कैसे हो सकते हैं?

पद्मपुराण में नाम का स्वरूप बतलाया गया है-

नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस-विग्रहः ।
पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ।।

नाम और नामी में कोई भेद न होने के कारण नाम ही चिन्तामणिस्वरूप हैं, अर्थात् परम पुरुषार्थ को देने वाले हैं। ये ‘नाम’ कृष्णचैतन्य रस-स्वरूप, पूर्ण शुद्ध अर्थात् अपरिच्छिन्न एवं माया-सम्बन्ध से रहित नित्यमुक्त हैं।

नाम और नामी परस्पर अभेद तत्त्व है। इसलिये नामी कृष्ण के समस्त चिन्मय गुण उनके नाम में हैं नाम सर्वदा पूर्ण-तत्त्व हैं, हरिनाम में जड़-संस्पर्श नहीं है, वे नित्यमुक्त हैं, क्योंकि वे मायिक गुणों द्वारा कभी आबद्ध नहीं होते। नाम – स्वयं कृष्ण है, अतएव चैतन्य-रस के विग्रह स्वरूप हैं। नाम- चिन्तामणि हैं, उनसे जो कुछ भी माँगा जाय, वे सब कुछ देने में समर्थ हैं।

नामाक्षर किस प्रकार मायिक शब्द से परे हो सकता

जड़ जगत् में हरिनाम का जन्म नहीं हुआ है। चित्कण-स्वरूप जीव शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होकर अपने चिन्मय शरीर से हरिनाम का उच्चारण करने का अधिकारी है। परन्तु मायाबद्ध होने पर जड़-इन्द्रियों के द्वारा वह शुद्ध-नाम नहीं कर पाता। ह्लादिनी-शक्ति की कृपा होने पर जिस समय स्व-स्वरूप की क्रिया आरम्भ हो जाती है, उसी समय उनका नामोदय होता है। नामोदय होते ही शुद्धनाम मनोवृत्ति के ऊपर कृपापूर्वक अवतीर्ण होकर भक्त की भक्ति द्वारा पवित्र हुई रसना के ऊपर नृत्य करते हैं। नाम अक्षराकृति नहीं हैं, केवल जड़ जिह्वा के ऊपर नृत्य करने के समय वे वर्ण के आकार में प्रकाशित होते हैं- यही नाम का रहस्य है।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
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