हरिनाम-संकीर्तन ही मुख्य पथ

प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि’।
कलियुगे नाम – सद्धे स्वयं अवतरि’ ।।

युगधर्म प्रचारिले नाम – संकीर्त्तन ।
मुख्यपथे जीव पाय कृष्ण – प्रेमधन ।।

नामेर स्मरण आर नाम – संकीर्त्तन ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन ।।

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर श्रीमन् महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभो! आप जीवों के मंगल की चिन्ता करके ही इस कलियुग में हरिनाम के रूप में स्वयं अवतरित हुये हो। आपने ही इस युग के युगधर्म – श्रीहरिनाम – संकीर्तन का प्रचार किया है। हे प्रभो! ये मार्ग ही जीवों की आध्यात्मिक साधना का मुख्य पथ है, जिस पर चलकर जीव श्रीकृष्ण – प्रेमरूपी महाधन को प्राप्त कर सकते हैं। नाम – स्मरण और नाम – संकीर्तन ही इस युग का परम – धर्म व एकमात्र धर्म है इसलिए इस कलियुग में जीव इसी का पालन करेंगे।

साध्य-साधन या उपाय-उपेय में अभेदता होने पर हरिनाम की ही मुख्यता

येइत’ साधन, सेइ साध्य यबे हैल ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल ।।

साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय ।।

आमि त’ अधम अति मजिया विषये।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ़ ह ‘ये ।।

जो साधन है, वही अब साध्य भी है, इस उपाय और उपेय के बीच में अब कोई भेद नहीं रहा अर्थात् साध्य और साधन के बीच अब कोई अन्तर नहीं रहा- इसलिए अनायास ही जीव आपकी कृपा से भवसागर से तर जाते हैं।

मैं अति अधम हूँ, मैं विषयों में डूबकर बिल्कुल मूढ़ सा बन गया हूँ, यही कारण है कि मैंने आपका भजन नहीं किया।

दर दर धारा चक्षे ब्रह्म – हरिदास ।
पड़िल प्रभुर पदे छाड़िया निःश्वास ।।

हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ।।

इस प्रकार बोल कर व नेत्रों से आँसु बहाते हुये श्रीहरिदास ठाकुर जी लम्बी – लम्बी साँसें लेकर महाप्रभुजी के चरणों में गिर पड़े।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान के भक्तों की सेवा करना ही जिनका आनन्द है, अर्थात् भगवान के भक्तों की सेवा करने में जिन्हें आनन्द मिलता है, ये ‘हरिनाम – चिन्तामणि’ उन्हीं का जीवन स्वरूप हैं।

इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ नाममाहात्म्यसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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लीलाकीर्तन तथा श्रृंगाररस के कीर्तन में वैशिष्ट्य है

अनर्थयुक्त जीव गौरलीला या कृष्ण की बाल्यलीलाओं का कीर्तन या श्रवण कर सकते हैं । किन्तु ऐसा न कर श्रीराधाकृष्ण की गूढ़लीलाओं को सुनने और कीर्तन करने से कल्याण के बदले अकल्याण ही होगा।

कीर्तन एकमात्र श्रीगुरुदेव के मुख से ही सुनना चाहिए। वास्तविक भक्त का विचार होता है कि मैं केवल श्रीगुरु मुखानिःसृत हरिकथा एवं श्रीशुकमुख – विगलित श्रीभागवत की कथा ही श्रवण-कीर्तन करूँगा। मैं गुरु के मुख से या गुरुनिष्ठ शुद्ध मुख से ही गौरविहित कीर्तन या कृष्ण – नाम – रूप – गुण – लीलाओं का ही कीर्तन एवं श्रवण करूँगा। इसके अतिरिक्त किसी से भी श्रवण नहीं करूँगा।

अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति से ही कीर्तन एवं श्रवण करना होगा। उनके अतिरिक्त अन्य लोगों से श्रवण करने पर भी मंगल नहीं होगा।

श्रीराधागोविन्द की गूढ़लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन दोनों ही प्रधान उपासना या नित्य भजन है। यह भजनलीला सर्वसाधारण के सामने गान करना अनुचित तथा अपराध है। ‘आपन भजन कथा ना कहिबे यथा तथा’ – आचार्यो के इस वाक्य का प्रत्येक मंगलाकांक्षी व्यक्ति के लिए पालन करना कर्तव्य है। जहाँ पर पाँचमिशाली लोग उपस्थित रहते हैं, वहाँ पर नाम तथा प्रार्थना एवं दास्यरस के कीर्तन करना ही उचित है। जहाँ पर केवल रसिक भक्त ही उपस्थित हैं, वहीं पर यदि अधिकार हो तो रसकीर्तन करना चाहिए तथा रसकीर्तन श्रवण के समय अपने-अपने स्वरूपोचित भजनभाव का अनुभव करना चाहिए। अन्यथा हित के स्थान पर अहित ही होगा। ऐसा करने पर यदि लीलाकीर्तन – पद्धति उठ भी जाय तो उठने दो। इससे भी लोगों का उद्धार ही होगा। अर्थ की लालसा तथा इन्द्रियसुख प्राप्ति की आशा से जहाँ तहाँ रसगान होने देना तो नितान्त कलि का कार्य है।

श्रीलप्रभुपाद
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पारमार्थिक जीवन की प्रथम सीढ़ी सम्बन्ध-ज्ञान ही है

अभिमान ही कर्म का प्रवर्त्तक है। प्राकृत अस्मिता – मैं संसार का हूँ, ये भावना या वृत्ति परित्यज्य है किन्तु अप्राकृत अस्मिता कि मैं भगवान् का दास हूँ, इस प्रकार की वृत्ति परित्यज्य नहीं है।

मैं संसार का हूँ- इसी ज्ञान से हम संसार के लिये, स्त्री-पुत्र आदि के लिये कार्य करते हैं। मठ मन्दिर में आने पर भी संसार के स्वार्थों की सिद्धि के लिये ही आते हैं, भगवान् के लिये नहीं आते। यह स्वाभाविक ही है कि जहाँ पर हमारा अभिमान होगा, जिनके लिये हम कार्य करेंगे, उनके प्रति ही हमारी प्रीति होगी। जब मैं समझेंगा कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् से ही सब प्रकार से मेरा नित्य सम्बन्ध है, अर्थात् अप्राकृत शुद्ध-अस्मिता जब प्रकट होगी, तब भगवद्-प्राप्ति ही मेरी सबसे बड़ी आवश्यकता है, ऐसा ज्ञान हो जाएगा तथा तब मैं स्वाभाविक ही भगवान् के लिये कार्य करूँगा। भगवान में स्वार्थबोध अर्थात् भगवान् ही हमारी परम अवश्यकता हैं, ऐसा ज्ञान होने पर मैं अपने को एवं अपना कह कर जो कुछ है वह सब भगवान् को अर्पित कर पाऊँगा। इस प्रकार की अवस्था में ही भगवान् में प्रीति और प्रेम होना सम्भव है। सद्‌गुरु या शुद्ध-भक्त की कृपा से सम्बन्ध उदय होता है। सम्बन्ध-ज्ञान से पहले भगवान् की आराधना सम्भव ही नहीं होती। हम लोग सम्बन्ध-ज्ञान की प्राप्ति के लिये अधिक ध्यान नहीं देते, इसीलिये उपयुक्त फल भी प्राप्त नहीं कर पाते। सम्बन्ध-ज्ञान के पश्चात् अभिधेय (अर्थात् साधन) तथा साधन के द्वारा प्राप्त वस्तु को प्रयोजन कहते हैं। सनातन धर्म के शास्त्रों में तथा सभी महानुभावों के उपदेशों में तीन विषय ही विशेष रूप से आलोचित हुये हैं- सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन। पारमार्थिक जीवन की प्रथम सीढ़ी सम्बन्ध-ज्ञान ही है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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शिष्य उसे ही कहा जाता है, जो शासन वाक्य सुनने को तैयार हो

भजन की शिक्षा ही श्रील गुरुदेव की वास्तविक कृपा है। जहाँ भजन में त्रुटि है अथवा अपने भौतिक स्वार्थ को पूरा करने का उद्देश्य है, उसे किस तरह से दूर करके भजन में प्रतिष्ठित किया जाय, उस संबंध में कठोर यहाँ तक कि, निर्मम वाक्य ही गुरुदेव की वास्तविक कृपा है। गुरुदेव के उन वाक्यों को जो लोग सुनना नहीं चाहते हैं, उनका मंगल कैसे होगा? शिष्य उसे ही कहा जाता है, जो शासन-वाक्य सुनने को तैयार हो। प्यार-दुलार के वाक्यों से हमें इन्द्रिय सुख मिलता है, किन्तु उसकी अपेक्षा कठोर वाक्य श्रवण करने का अभ्यास बनाना ही शिष्य का प्रधान कर्त्तव्य है। हम सबने मठ में आकर सबसे पहले इस Principle (नीति) को ही ग्रहण किया है। मेरा व्यक्तिगत जीवन – श्रील प्रभुपाद की गालियों से ही प्रस्तुत हुआ है। मेरी त्रुटि देखते ही वे कठोर शब्दों में शासन किया करते थे। अक्रोध परमानन्द अभिन्न नित्यानन्द श्रील प्रभुपाद का शासन प्राप्त करके ही, अपने को शिष्य समझकर अभिमान करने की कोशिश करता

था। उन सब उपदेश-वाक्यों को सुनकर कितना आनन्दित होता था, उसे मैं भाषा में व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ। भले ही गुरुपादपद्म के मधुर वाक्यों से शिष्य को सेवा करने में बहुत अधिक उत्साह मिलता है, फिर भी उसे याद रखना चाहिए कि, साधन अवस्था में, शिष्य को, श्रीगुरुदेव के मुखारविन्द से अपनी प्रशंसा श्रवण करना भी सम्पूर्ण रूप से निषिद्ध है। गुरु के पास अपनी प्रशंसा करना जिस प्रकार निषेध है, उसी प्रकार गुरुदेव के मुख से अपनी प्रशंसा सुनना भी निषेध है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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