कलियुग में गौणपथ की दुर्दशा
सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे।
शुद्ध करि’ दिले प्रभु निज – भक्ति – धने ।।
त्रेतायुगे यज्ञ – कर्म अनेक शोधिले।
द्वापरे अर्चनमार्ग भक्ति बिलाइले ।।
कलि – आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा।
देखि’ ज्ञान, कर्म, योग छाड़िल भरसा ।।
सत्ययुग में ध्यानयोग के द्वारा आपने न जाने कितने ऋषियों को शुद्ध करके अपनी भक्ति प्रदान की। त्रेतायुग में यज्ञादि कर्मों के द्वारा अनेक जीवों का शोधन किया तथा द्वापर युग में अर्चन मार्ग के द्वारा बहुत से जीवों को आपने अपनी भक्ति प्रदान की। हे नाथ! कलिकाल के आगमन पर तो जीवों की बड़ी दुर्दशा हो गयी है। अभी देखा जाता है कि कर्म, ज्ञान और योग मार्ग जीवों की दुर्दशा देखकर असहाय से हो गये हैं, वे जीवों का उद्धार कर पायेंगे; ऐसा भरोसा उन्होंने छोड़ दिया है।
अल्प आयु, बहु पीड़ा, बल-बुद्धि – हास।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास ।।
वर्णाश्रम – धर्म आर सांख्य, योग, ज्ञान।
कलिजीवे उद्घारिते नहे बलवान् ।।
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ।
कण्टके सङ्कीर्ण हैया हइल विपथ ।।
पृथक् उपाय धरि’ उपेय – साधने ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने ।।
इतना ही नहीं, हे प्रभु! इस युग में मनुष्यों की आयु भी बड़ी कम हो गयी है, न जाने कितनी बिमारियों से ये जीव घिरा रहता है, इसका बल व इसकी बुद्धि भी बहुत कम हो गयी है। वर्णाश्रम धर्म, सांख्य, योग व ज्ञान इत्यादि की साधनाएँ कलियुग के जीवों का उद्धार करने में समर्थ नहीं हैं। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग का जो गौण भक्ति-मार्ग है, वह इतना संकीर्ण है कि उस पर चलना असम्भव सा हो गया है; कहने का तात्पर्य है कि कर्म मार्ग में जो निष्काम भाव से वर्णाश्रम धर्म के पालन वाली बात है, उसमें बाधा ये है कि लोगों के अन्दर विषय – भोगों की लालसा इतनी बढ़ गयी है कि वे निष्काम हो ही नहीं पा रहे हैं। ज्ञान-चर्चा की बात जहाँ तक है, वहाँ समस्या ये है कि दुनियाँ में वास्तविक साधु बड़े दुर्लभ हैं, चारों ओर धर्म-ध्वजी कपटी साधुओं का ही बोलबाला है। इन सब समस्याओं को देखकर हे प्रभु! आपने इन सबसे अलग और सर्वोत्तम हरिनाम की साधना बतायी है, क्योंकि हरिनाम में स्वयं भगवान श्रीहरि विराजित रहते हैं। बड़े सौभाग्य से ही ये विशेष हरिनाम तत्त्व समझा जाता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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सब समय हरिकथा सुनो । साधुसंग में रहकर विषयोन्मुख चित्त को कृष्णोन्मुख करो, तभी मंगल होगा ।
भाग्य में जो है, वह अपने आप होगा । इसके लिए अलग से चेष्टा करने की आवश्यकता नहीं है । यदि हमें अलग से चेष्टा करनी ही है तो हरिभजन के लिए करनी होगी ।
जो व्यक्ति हमें विषयसुख प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है, विषयी होने के कारण हम भी उसी शत्रु को अपना बन्धु मानते हैं । किन्तु जो विषयसुख के लिए हमें निषेध करता है, जो संसार करने या संसार में आसक्त होने से हमें निषेध करता है, ऐसे निःस्वार्थ बन्धु साधु-गुरु की बात हम लोग नहीं सुनते । इस प्रकार हम अपने असली बन्धु को ही अपना शत्रु मानते हैं । ऐसा हमारा दुर्भाग्य है !
श्रीलप्रभुपाद
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सभी शास्त्रों में सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन तत्त्वों की बात वर्णित हुई है। सम्बन्ध-तत्त्व के विचार में जीव-तत्त्व, भगवत्-तत्त्व अर्थात् परतत्त्व का विचार हुआ है। गीता के एक स्थान में जीव को पराशक्ति से उत्पन्न कहा गया है (इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् जीवभूतां — । गीता 7/5) फिर दूसरे स्थान पर इसे श्रीकृष्ण का अंश कहा गया है (ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः) (गीता-15/4) अतः दोनों बातों को ग्रहण करने से मालूम होता है कि जीव श्रीकृष्ण की पराशक्ति से उत्पन्न अंश है। गीता में श्रीकृष्ण ही परतम्-तत्त्व के रूप में निर्णीत हुये हैं।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
(गीता 9/24)
‘मत्तः परतरम् नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय’ ॥
(गीता 7/7)
‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्…….. इत्यादि।’
(गीता 14/27)
विभिन्न देव-देवी या पितृ-पुरुषों की आराधना द्वारा उस-उस लोक की गति होती है किन्तु वे जितने भी फल हैं, सभी नाशवान हैं-
“अन्तवत्तु फलं तेषाम् तद्भवत्यल्प मेधसाम्” । (गीता 7/23) ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में गति क्यों न हो, पुनरावर्तन होगा ही; उनमें जन्म मृत्यु का चक्र समाप्त नहीं होगा। किन्तु श्रीकृष्ण की प्राप्ति होने से, और पुनर्जन्म नहीं होता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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