ज्ञानी का गौण भक्ति-पथ

ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेरकृपाय
अनन्य भक्तिते श्रद्धा अनायासे पाय ।।

तुमि बल, मोर दास मायार विपाके।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाड़िया आमाके ।।

आमि जानि’ ता’र याते हय सुमङ्गल।
भुक्ति मुक्ति छाड़ाइया दिइ भक्ति फल ।।

इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान मार्ग पर चलते हुए अपनी सुकृति के प्रभाव से तथा भक्तों की कृपा से अनन्य भक्ति के मार्ग में आ जाता है। साधु-संग के प्रभाव से उस ज्ञानी भक्त की अनन्य भक्ति में अनायास ही श्रद्धा हो जाती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी श्रीहरिदास ठाकुर जी को कहते हैं कि हरिदास ! तुम ही तो बोलते हो कि मेरा दास मुझे भूलकर माया की दुर्गति में पड़कर अन्य तुच्छ फलों की आशा करता है परन्तु मैं जानता हूँ कि उसका कैसे मंगल होगा। इसलिए मैं उनकी भोग की व मुक्ति की इच्छा छुड़ाकर उनको भक्ति का फल प्रदान करता हूँ।

गौण पथ की प्रक्रिया

ता’र काम अनुसारे चालाया ताहारे।
गौणपथे भक्तिमार्ग श्रद्धा दिइ ता’ रे ।।

ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय ।।

हे गौरहरि ! आप बड़े दयालु हो। आप जीव की कामना के अनुसार उसे चलाते हुए भी किसी न किसी तरह से गौण भक्ति के मार्ग में उसकी श्रद्धा उत्पन्न करा देते हो। हे प्रभो! आप कृपामय हो, आपकी कृपा के बिना जीव भला कैसे शुद्ध हो सकता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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हरिकीर्तन से गुञ्जित हरिसेवामय मठ साक्षात् वैकुण्ठ है

स्वयं मठ बनाकर आराम से रहने के लिए चेष्टा न कर जीवन्त मठ बनाने के लिए प्रयत्न करना ही बुद्धिमत्ता है। यदि किसी एक श्रद्धालु व्यक्ति को श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में आकर्षित किया जा सके, तभी जीवन्त मठ बनाया जा सकता है। गुरु की महिमा और गुरु की सेवा की बात कहकर जीवों को गुरुपादपद्म में आकर्षित करना ही सबसे बड़ा मंगलजनक कार्य है। इसलिए जीवों के कल्याण के लिए गैलन-गैलन रक्त खर्च करने पर गुरु एवं कृष्ण अवश्य ही प्रसन्न होंगे। अतः तन-मन-वचन से ऐसे जगत – मंगलजनक कार्य के व्रती होना ही बुद्धिमत्ता है। इसी में जीवन की सार्थकता भी है।

हरिकीर्तन से गुञ्जित हरिसेवामय मठ साक्षात् वैकुण्ठ है। इसलिए मठवास ही धामवास है। मठ में हरिकथाओं की आलोचना प्रबल होनी चाहिए। केवल खाने-रहने के लिए ही मठ करने से कोई लाभ नहीं है। हरिकथाओं का प्रचार करने के लिए ही मठ करने की आवश्यकता है। इसी से अपना एवं दूसरों का मंगल होगा।

गुरुनिष्ठ भक्त ही जीवन्त साधु या Living source हैं। ऐसे जीवन्त साधुओं के पास ही हरिकथा सुननी होगी। तभी हम गुरुदेवतात्मा हो सकते हैं ।

गुरुनिष्ठाहीन या गुरुसेवा से वञ्चित व्यक्ति जीवन्मृत (जीते जी मरा) है। ऐसे अवैष्णव का संग नहीं करना ही उचित है। इससे हमारा अमंगल ही होगा।

श्रीलप्रभुपाद
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प्रकृति के अतीत तत्त्व के विषय में बुद्धि का प्रवेश असम्भव है

पृथ्वी के बुद्धिमान व्यक्ति अपना घमण्ड प्रकट करते हुये कह सकते हैं कि जब वे जगत की सभी बातें जानने में समर्थ हैं तो वे भगवान् को भी जान लेंगे। मनुष्य की ससीम बुद्धि की महिमा हम कितनी ही क्यों न कहें परन्तु उसकी दौड़ कहाँ तक हो सकती है? अन्त में बुद्धि अपने ही जाल में उलझ जाती है। प्रकृति के अतीत तत्त्व के विषय में बुद्धि का प्रवेश असम्भव है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणते तनुं स्वाम् (कठ.1/2/23)।

यस्यदेवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः –
(श्वे. उ. 6/23)

सर्वकारणकारण स्वतः सिद्ध भगवान् को उनकी कृपा के बिना कोई नहीं जान सकता। चूँकि भगवान् और भगवान् द्वारा कहे गए वाक्यों में कोई भेद नहीं होता, इसलिये अशरणागत व्यक्ति भगवान् के उपदेशों का तात्पर्य समझने में असमर्थ रहता है। अशरणागत व्यक्ति द्वारा की गयी गीता की व्याख्या उसकी बुद्धि की कसरत ही है या उस मन की कल्पना मात्र है। वास्तविक शरणागत व्यक्तियों में भी शरणागति के तारतम्य के अनुसार भगवान के उपदेशों को समझने का तारतम्य हो जाता है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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