भक्ति-उन्मुखी सुकृति
भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान।
ता’र फले जीव भक्तसाधुसंग पान ।।
श्रद्धावान् ह’ये कृष्णभक्त – संग करे।
नामे रूचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे ।।
कर्मोन्मुखी, ज्ञानोन्मुखी व भक्ति-उन्मुखी- ये तीन प्रकार की सुकृतियाँ होती हैं। इनमें भक्ति उन्मुखी सुकृति ही प्रधान है, जिसके फलस्वरूप जीव साधु – भक्तों की संगति को प्राप्त करता है। श्रद्धावान होकर जब कोई जीव श्रीकृष्ण के भक्तों का संग करता है तब उस जीव की साधु-संग के प्रभाव से हरिनाम में रुचि उत्पन्न हो जाती है तथा साथ ही उसके हृदय में जीवों के प्रति दया का भाव उमड़ पड़ता है। इस प्रकार साधु – संग के फल से उस श्रद्धावान जीव को भक्ति पथ की प्राप्ति व इस सुन्दर कल्याणकारी पथ पर चलने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
कर्मी और ज्ञानी के प्रति कृपा से गौण भक्ति-पथ का विधन
दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर।
कर्मी, ज्ञानी, बहिर्मुख – उद्धारे तत्त्पर ।।
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये-जन ।
ताहार उद्धार लागि’ तोमार यतन ।।
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया ।
गौणभक्तिपथ एक राखिल करिया ।।
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे गौरहरि ! आप दया के सागर हो और जीवों के ईश्वर हो। कर्मी, ज्ञानी और भगवान के विमुख जीवों के उद्धार के लिए भी आप तत्पर रहते हो। कर्म – मार्ग और ज्ञान मार्ग पर चलने वाले पथिक का भी उद्धार करने के लिए आप यत्न करते हो। उन पथों के पथिकों के मंगल की चिन्ता करते हुये आपने एक गौण भक्ति मार्ग भी बना रखा है।
कर्मियों के पक्ष में कर्म का गौण भक्ति मार्ग
कर्मी वर्णाश्रमे थाकि’ साधुसद्ध करि’।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि’ ।।
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया।
तिरोहित हय श्रद्धा- बीजे स्थान दिया ।।
अपने – अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम के धर्मों को पालन करते हुए कर्मी व्यक्ति भी भगवान को प्रसन्न करता है क्योंकि वर्णाश्रम धर्मों को पालन करने का विधान भी भगवान श्रीहरि ने ही बताया है। अपने इन्हीं कार्यों को निष्काम भाव से करने से उसे सुकृति व उसके फलस्वरूप सच्चे साधु का संग प्राप्त होता है। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले कर्म मार्ग के पथिक का आप हृदय शोधन कर देते हैं जिससे उसके अन्दर पुण्यादि करने की व उसके फल से मिलने वाले स्वर्गादि को प्राप्त करने की प्रवृति खत्म हो जाती है और उस स्थान पर श्रद्धा का बीज आरोपित हो जाता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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हरिसेवा विहीन गृह तो नरक का द्वार स्वरूप है
गृहस्थ भक्त लोग भगवान के सुख के लिए ही साधु- गुरुओं का संग एवं उनकी सेवा, आदर और प्रीतिपूर्वक करेंगे। तभी पारमार्थिक गृहस्थ होने की योग्यता प्राप्त होगी। गृहस्थ भक्त यदि भक्त भागवत एवं ग्रन्थ भागवत – इन दोनों भागवतों की सेवा संग या आलोचना न करें, तो उनका मंगल हो ही नहीं सकता । मैं सम्पूर्णरूप से कृष्णसेवा करूँगा-ऐसा संकल्प लेकर घर में रहना ही मंगलजनक है, अन्यथा हरिसेवा विहीन गृह तो नरक का द्वार स्वरूप है। हरिभजन के अनुकूल संसार होने पर ही गृहस्थ आश्रम ग्रहणीय एवं प्रशंसनीय है और यदि प्रतिकूल संसार हो, तो गृह अन्धकूप के समान परित्यज्य है । सेवापरायण पारमार्थिक व्यक्ति के गृहवास एवं मठवास में कोई भेद नहीं है। किन्तु गृह के प्रति आसक्त या गृहव्रती का गृहवास तथा कृष्णभक्तों का गृहवास – इन दोनों प्रकार के गृहवारों को एक नहीं किया जा सकता । जिन्होंने गुरु-कृष्ण को ही अपना जीवन बनाया है, ऐसे शुद्धभक्तों का संग तथा उनकी सेवा के फल से ही गृहासक्ति या गृहव्रतधर्म नष्ट हो सकता है । निष्कपटरूप से गुरुसेवा के अतिरिक्त गृहासक्ति के हाथ से मुक्ति पाने का और कोई उपाय नहीं है। गुरु के आनुगत्य में कृष्णसेवा करने के लिए ही गृह में रहना होगा । अत्याहार, प्रयास, प्रजल्प नियमाग्रह, जनसंग तथा लौल्य से पारमार्थिक गण सर्वदा दूर ही रहेंगे। गृहस्थ के भजन में उत्साह, दृढ़ता, निश्चयता, धैर्य, हरिकथा -श्रवण-कीर्तन में रुचि या यत्न एवं गुरुकृष्ण की सेवा में निष्ठा अवश्य ही रहेगी ।
अवैध स्त्रीसंग, अपनी स्त्री के प्रति अत्यन्त आसक्ति या स्त्रैणभाव और दुःसंग त्याग करना एवं वाक्य, मन, क्रोध जिहा, उदर एवं उपस्थ के वेग को दूर करना पारमार्थिक गृहस्थ का कर्तव्यहै ।
गृहस्थभक्त पाप कार्य तो करेंगे ही नहीं, यहाँ तक कि भक्तिबाधक पुण्यकर्मों से भी सावधान रहेंगे। क्योंकि पापकार्य करेंगे, तो हरिभजन नहीं होगा और यदि पुण्यसंग्रह करने की इच्छा हुई, तो भी हरिभजन नहीं होगा। इसका ध्यान रखना चाहिए कि गृहस्थभक्त कहीं नाम भजन का अभिनय दिखाकर हरि – गुरु – वैष्णवों की सेवा से उदासीन न हो जाएँ । क्योंकि गृहस्थभक्त के लिए यह शठता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ऐसा करने से वे क्रमशः संसार में ही आसक्त हो जायेंगे । गुरु – कृष्ण की सेवा न करने पर जीवों की भगवान के प्रति प्रीति नहीं हो सकती । जो सबकुछ त्यागकर सब समय सम्पूर्णरूप से कृष्ण की सेवा में नियुक्त हैं, उनकी भगवान की सेवा में सहायता करने के लिए गृहस्थ भक्त सदैव ही चेष्टा करते रहेंगे।
श्रीलप्रभुपाद
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गीता की वास्तविक शिक्षा क्या है व उसे हम किस प्रकार जान सकेंगे?
मैं समझता हूँ कि पृथ्वी में धर्म-ग्रन्थों में बाईबल के पश्चात् श्रीभगवद्गीता का प्रचार ही सबसे अधिक है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जी की ‘प्रार्थना’ (बंगला भजनगीति) का प्रचार संख्या में श्रीगीता जी से अधिक है तब भी श्रीगीता जी का प्रचार, व्यापकता में अधिक है। पृथ्वी पर ऐसी कोई भी भाषा नहीं है जिसमें गीता का अनुवाद न हुआ हो।
विभिन्न प्रकार के अधिकारी व्यक्तियों ने श्रीगीता जी को विभिन्न प्रकार से समझा। वैसे पृथ्वी पर साधारणतयः तीन प्रकार के अधिकारी व्यक्ति नज़र आते हैं। सात्विक, राजसिक एवं तामसिक और इन तीनों प्रकार की बुद्धियों द्वारा श्रीगीता जी की विभिन्न प्रकार की व्याख्या जगत में प्रचारित है। इसके अलावा त्रिगुणातीत, निर्गुण भूमिका में स्थित व्यक्तियों ने भी व्याख्या की है।
किन्तु गीता की वास्तविक शिक्षा क्या है व उसे हम किस प्रकार जान सकेंगे?
श्रीगीता जी के वक्ता हैं- श्रीकृष्ण- “या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता” (गीता महात्मय) अतः श्रीकृष्ण के हृदय के अन्दर जो जितना अधिक प्रवेश कर सकेंगे, वह उतना ही अधिक उनकी उपदिष्ट वाणी का तात्पर्य अनुभव करने में समर्थ हो सकेंगे। वक्ता के हृदय के अन्दर प्रवेश न होने पर श्रोता अपने ही रंग-ढंग में उसे समझते हैं; अर्थात् अपनी इच्छानुसार तोड़-मरोड़ कर अपनी ही बुद्धि के विचार द्वारा कल्पित ज्ञान का विषय व्यक्त करते हैं। प्रीति के बिना वक्ता के हृदय में प्रवेश का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। प्रीति सम्बन्ध मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं- दास्य, सख्य, वात्सल्य और कान्त ।
विश्वासी सेवक को किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में जिस प्रकार का बोध होता है, निरपेक्ष दर्शक का उसी प्रकार का बोध सम्भव नहीं है। सेवक की अपेक्षा उसके अन्तरंग दोस्त का बोध उस व्यक्ति के सम्बन्ध में अधिक होता है, बन्धु की अपेक्षा पिता-माता एवं पिता-माता की अपेक्षा सती-स्त्री का बोध सर्वाधिक होता है, इसलिये श्रीकृष्ण के पाँच प्रकार के मुख्य भक्त ही श्रीकृष्ण की कही हुई वाणी का वास्तविक तात्पर्य समझने में समर्थ हैं। प्रेमिक भक्तगणों में भी मधुर रस की सेविका, गोपियों का स्थान सब से ऊपर है। उनके पास श्रीकृष्ण के लिये अकरणीय कुछ भी नहीं है अर्थात् वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ कर सकती हैं। सभी की अपेक्षा अपने आपको सबसे अधिक श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित किया है गोपियों ने। इसलिये उनकी कृष्ण-प्राप्ति सर्वाधिक है। वे श्रीकृष्ण के भाव को जहाँ तक जानती हैं वहाँ तक कोई अन्य नहीं जानता।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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