इस अवस्था से उद्धार का उपाय
कभु यदि साधुसंगे जानिते से पारे।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया – पारे ।।
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित।
तुच्छ कर्मकाण्डे नाहि करिले विहित ।।
सौभाग्यवश यदि कोई जीव साधु-संग प्राप्त करके यह जान लेता है कि वह भगवान श्रीकृष्ण का दास है तो इस महान ज्ञान को प्राप्त करके वह माया से पार हो जाता है परन्तु ये साधु-संग पूर्वजन्मों की सुकृति के अनुसार ही मिलता है। तुच्छ कर्मकाण्ड के द्वारा ये सब ज्ञान नहीं मिलता।
ज्ञानकाण्ड-ब्रह्मलय सुख
आर यिनि मायार यन्त्रणामात्र जानि’।
मुक्तिलाभे यत्नवान्, तिनि ह’न ज्ञानी ।।
से-सब लोकेर जन्य तुमि दयामय।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय ।।
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय।
जड़ मुक्त ह’ये ब्रह्मे जीव हय लय ।।
इनके इलावा जो जीव माया के संसार को यंत्रणामय जानते हैं और इससे बचने के लिए मुक्ति को प्राप्त करने का यत्न करते रहते हैं, ऐसे जीवों को ज्ञानी कहा जाता है। ऐसे लोगों के लिए ही तुमने दयामय होकर ज्ञानकाण्ड नामक ब्रह्मविद्या प्रदान की है। उसी मायावाद रूपी विद्या को आश्रय करके इस संसार से मुक्त होकर जीव ब्रह्म में लय हो जाता है।
ब्रह्म क्या वस्तु है
सेइ ब्रह्म तव अंगकान्ति ज्योतिर्मय ।
विरजार पारे स्थित ता’ते हय लय ।।
ये – सब असुरे विष्णु करेन संहार।
ताहाराओ सेइ ब्रह्मे याय मायापार ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे गौरहरि ! वह ब्रह्म आपके अंगों की कान्ति (चमक) है, जो कि ज्योतिर्मय है। विरजा नदी के उस पार जो ज्योतिर्मय ब्रह्म – धाम है, उसमें ब्रह्मज्ञानी लीन हो जाते हैं। इनके इलावा जिन असुरों का भगवान विष्णु अपने हाथों से संहार करते हैं। वे सब असुर भी माय। से पार होकर उसी ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण-बहिर्मुख जीव
कर्मी ज्ञानी उभयेइ कृष्णबहिर्मुख ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख ।।
वैसे देखा जाये तो कर्मी और ज्ञानी दोनों ही श्रीकृष्ण से बहिर्मुख हैं। ये जीव कभी भी श्रीकृष्ण की दासता को अर्थात् श्रीकृष्ण की सेवा के सुख का आस्वादन प्राप्त नहीं कर सकते।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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यदि मैं आश्रय ग्रहण न करूँ तो क्या होगा ?
गुरुपादपद्म का दर्शन न होने से कृष्णदर्शन या कृष्णसेवा नहीं हो सकती । गुरु के मुख से उत्तम रूप में हरिकथा श्रवण नहीं करने के कारण हमें कृष्ण का दर्शन नहीं हो रहा है। श्रवण ठीक होने से कीर्तन भी ठीक होगा, कीर्तन ठीक होने से अच्छी प्रकार से स्मरण या कृष्ण की स्फूर्ति होगी । हमें गुरु के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करना होगा। क्योंकि कृष्ण ही आश्रयविग्रह होकर सौभाग्यवान् जीवों के निकट गुरुरूप में प्रकट होते हैं । इसलिए हमें सर्वप्रथम गुरु के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करना होगा । अर्थात् सर्वप्रथम हमें लघु होना होगा । इसका नाम ही आश्रय है। आश्रय तो ग्रहण करना ही होगा । किन्तु यदि मैं आश्रय ग्रहण न करूँ तो क्या होगा ? भगवान की इच्छा से ही सद्गुरु की प्राप्ति होती है। भगवान की दया पाने से ही सब हो जायेगा । उनकी दया न होने पर सैकड़ों चेष्टाएँ करने पर भी कुछ नहीं होगा। उनकी दया ही मुख्य वस्तु है । यदि हृदय में निष्कपट आर्ति हो, यदि हम वास्तव में केवल उन्हें ही चाहें, तो निश्चित ही हमें उनकी दया प्राप्त होगी । भाग्यक्रम से ही सद्गुरु की प्राप्ति होने पर, वे किस प्रकार से समस्त इन्द्रियों से कृष्ण की सेवा करते हैं, यह देखना होगा, तभी हमारे लिए सुविधा होगी । श्रीगुरुदेव के मुख से उपदेश श्रवण करने पर भी यदि जीव उन उपदेशों का अपने जीवन में यथायथ पालन न करे तो वह विषय-भोग के अतिरिक्त और क्या करेगा ? जागतिक विषयों में अधिक आसक्त हो जाने पर श्रवण नहीं होगा और श्रवण उत्तम रूप से न होने पर मंगल भी नहीं होगा।
श्रीलप्रभुपाद
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‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।’
गीता (18/65)
अर्थात् हे अर्जुन तुम अपना मन मुझको दे दो, मेरे भक्त बन जाओ, मेरी पूजा करो व मुझे नमस्कार करो।
समोऽहं सर्वभूतेषु ने मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
(गीता-9/29)
श्रीगौरसुन्दर परम कृपामय हैं- वे तो कृपा करेंगे ही, ऐसा सोचकर हम नाक में तेल डालकर सो जायेंगे तो हमारे मंगल-लाभ की सम्भावना ही कहाँ है?
यदि साधन की आवश्यकता न होती तो भगवान् गीता जी में ऐसा न कहते। यदि हमारा कुछ भी करणीय न होता तो ब्रह्माण्ड में शास्त्रों का अवतरण न होता। चूँकि जीव आपेक्षिक चेतन है इसलिये इसकी स्वतन्त्रता है और स्वतन्त्रता रहने से ये जीव सत् व असत्, दोनों तरफ ही जा सकता है। अतः जीव की ओर से मंगल-प्राप्ति के लिये चेष्टा की आवश्यकता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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