तब भी श्रीकृष्ण की दया
तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय।
दासेर मंगल चिन्ता तोमार निश्चय ।।
दास याहा सुख मानि’ करे अन्वेषण।
तुमि ताहा कृपा करि’ कर वितरण ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभु! मेरा ऐसा विश्वास है कि आप विभु हो और ये जीव आपका ही वैभव हैं। ये आपके नित्य दास हैं। अपने दास के मंगल की चिन्ता करना आपका स्वभाव है। आपके दास अपने सुख की खोज करते हुए आपसे जो कुछ भी माँगते हैं, आप कल्पतरु की भांति अपनी कृपा रूपी बरसात को बरसाते हुए, उसे प्रदान करते रहते हो।
प्राकृत शुभकर्म व कर्मकाण्ड
मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय।
तोमार कृपाय से अनायासे पाय ।।
सेइ सुख प्राप्त्युपाय शुभकर्म यत।
निरमिले धर्म – यज्ञ योग होम व्रत ।।
सेइ सब शुभकर्म सदा जड़मय।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय ।।
माया के वैभव में फँसकर जीव जब जिस प्रकार का भी अनित्य सुख चाहता है, आपकी कृपा से वह उसे अनायास ही पा लेता है। उसी सुख को प्राप्त करने के लिए ही धर्म – कर्म, यज्ञ, योग, होम व व्रत इत्यादि शुभकर्म बनाये गये हैं। ये सभी शुभकर्म सदा ही जड़मय (प्राकृत) रहते हैं। चिन्मय प्रकृति इन सब से कभी नहीं मिलती।
ताहार साधने साध्य जड़मय फल।
उच्चलोक, भोग – सुख ताहाते प्रबल ।।
सेइ सब कर्मभोगे नाहि आत्मशान्ति।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति ।।
सेइ सब शुभकर्म उपाय हइया।
अनित्य उपेय साधे लोकसुख दिया ।।
इन शुभ कर्मों को करने से दुनियावी नाशवान फल ही प्राप्त होते हैं। इनसे तो स्वर्ग आदि उच्च लोक तथा सांसारिक भोगों से मिलने वाला सुख ही मिलता है। आत्मा की शान्ति इनसे नहीं मिलती। इन सबका प्रयास करना अतिशय भ्रान्तिमय है। इन सब अनित्य उपायों को करने से अनित्य सुख ही मिलते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रेयः एवं प्रेयः – ये दोनों ही चीजें मनुष्य को आश्रय करके रहती हैं
यह बात बिल्कुल सत्य है कि जगत में बहुत से लोग सत्यकथा को ग्रहण नहीं करते, क्योंकि सत्यकथा प्रेयः नहीं, श्रेयः है । कितने ही लोग धर्मवीर, कर्मवीर का नाम लेकर जगत के लोगों का सिर रखा गये हैं, इसलिए उन्हें समझाने के लिए हमें शत-शत गैलन रक्त खर्च करना पड़ रहा है । तथापि असली सत्य बात को बहुत ही कम लोग धारण कर पा रहे हैं । अच्छे संस्कार न रहने पर या अच्छा भाग्य न रहने पर सत्यकथा-कृष्ण की कथा सुनने की इच्छा नहीं जाग सकती । श्रेयः एवं प्रेयः – ये दोनों ही चीजें मनुष्य को आश्रय करके रहती हैं । किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति या सज्जन लोग इन दोनों ही वस्तुओं के तत्त्व को जानकर यह विचार करते हैं कि श्रेयः ही मुक्ति का कारण तथा प्रेयः बन्धन का कारण है। भाग्यशाली व्यक्ति ही प्रेयः को छोड़कर श्रेयः का आश्रय ग्रहण करते हैं। विवेकहीन अल्पबुद्धि सम्पन्न व्यक्ति योग अर्थात् अलब्ध वस्तु की प्राप्ति एवं क्षेम अर्थात् लब्ध वस्तुओं की रक्षा के लिए ही प्रार्थना करते हैं। शास्त्र कहते हैं- श्रेयः कथा सुनने वाले लोग बहुत ही कम मिलेंगे। यदि दो-चार लोग मिल भी जाएँ, तो सुनकर भी अनेक लोग उसकी उपलब्धि नहीं कर सकते।
श्रेयः विषय के तत्त्वविद् निपुण वक्ता जगत में अति दुर्लभ हैं। और यदि भगवान की कृपा से ऐसे उपदेष्टा प्राप्त हो भी जाएँ, तो ऐसे आचार्य के अनुगत श्रोता और भी दुर्लभ हैं। जो निरपेक्ष नहीं हैं, ऐसे अनन्त कोटि वक्ता नरक में चले जाएँगे, निर्भीक होकर जो निरपेक्ष सत्यकथा बोली जाती है, सैकड़ों जन्मों या सैकड़ों युगों के बाद भी कोई न कोई उस सत्यकथा को अवश्य ही समझ पायेगा। बहुत कष्ट से अर्जित सैकड़ों गैलन रक्त खर्च किये बिना एक व्यक्ति को भी सत्यकथा समझायी नहीं जा सकती।
श्रीलप्रभुपाद
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भगवद्-भक्त अथवा सेवक की, पदवी को प्राप्त करने की, श्रेष्ठ-श्रेष्ठ देवता भी इच्छा रखते हैं। थोड़े से भाग्य से कोई भी भगवद्-भक्त नहीं कहला सकता। पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी पदवी, भगवद्-भक्त की पदवी के बराबर नहीं हो सकती। जिनको भगवद्-तत्त्व का बोध नहीं है अर्थात् जो भगवद्-तत्त्व को नहीं जानते, वे भक्त की मर्यादा को भी नहीं जान सकते। अतः भगवद्-भक्त की अमर्यादा करने वाला, तत्त्वहीन व्यक्ति मूढ़ है और कुछ नहीं। अतः अपने सौभाग्य को अपने पैरों तले कुचलने वाला ही, भगवद्-सेवक को तुच्छ समझता है। सेवक, सेव्य को सेवा की तारतम्यता के अनुसार वश में कर लेता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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