जीव-वैभव
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया ता’र।
चिदणुस्वरूप जीव – वैभव प्रकार ।।
चिद्धर्म वशतः जीव स्वतन्त्र – गठन।
संख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ।।
सत्य ये है कि आपका चिद् – वैभव तो अपने आप में पूर्ण – तत्त्व है, चेतन – तत्त्व है, जबकि माया- वैभव तो इस चिद् – वैभव की छाया है। आकार की दृष्टि से देखा जाये तो ये जीव अति अणु-स्वरूप है परन्तु चिन्मय होने के कारण जीव के गठन में ही स्वतन्त्रता है तथा संख्या में ये जीव अनन्त हैं एवं सुख की प्राप्ति करना ही इन जीवों का लक्ष्य होता है।
मुक्त-जीव
सेइ सुखहेतु या’रा कृष्णेरे बरिल।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल ।।
उस नित्य सुख को प्राप्त करने के लिए जिन्होंने आनन्द – स्वरूप श्री कृष्ण को वरण किया, वे तो श्रीकृष्ण के पार्षद बन गये तथा मुक्त जीव के रूप में रहने लगे।
बद्ध अथवा बहिर्मुख जीव
या’रा पुनः निज-सुख करिया भावना।
पार्श्वस्थिता माया- प्रति करिल कामना ।।
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल ।।
इनके इलावा जिन जीवों ने अपने सुख की भावना से भगवान के पीछे रहने वाली माया को वरण किया अर्थात् अपने सुख के लिये जिन्होंने माया के भोगों की कामना की, वे सभी जीव नित्य काल के लिए श्रीकृष्ण से विमुख हो गये और उन्होंने माया के इस देवी धाम में माया के द्वारा बना शरीर प्राप्त किया।
पुण्य – पाप – कर्मचक्रे पड़िया एखन।
स्थूल – लिङ्ग – देहे सदा करेन भ्रमण ।।
कभु सर्गे उठे, कभु निरये पड़िया।
चौराशि – लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ।।
अब वे भगवान से विमुख जीव, पाप – पुण्य रूपी कर्म के चक्र में पड़कर स्थूल व सूक्ष्म शरीर धारण करके इस संसार में भटक रहे हैं। वे कभी स्वर्ग आदि लोकों में तो कभी नरक की प्राप्ति करते हुए चौरासी लाख योनियों को भोगते हुए भटकते रहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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स्वयं आचरण न करने पर किसी को सिखाया नहीं जा सकता
जो स्वयं भागवत नहीं है, जिसका जीवन भागवत की शिक्षाओं से गठित नहीं है, उसके मुख से श्रीमद्भागवत का पाठ नहीं हो सकता । क्योंकि वह व्यक्ति स्वयं ही वञ्चित है, इसीलिए भागवत – पाठ का अभिनय करने पर भी वह दूसरों की वञ्चना ही करता है ।
स्कूल – कालेजों के शिक्षक या अध्यापकों के साथ जैसा सम्बन्ध होता है, भागवत – पाठक के साथ वैसा सम्बन्ध नहीं होता । जो अध्यापक छात्रों को अच्छी प्रकार से समझा सकते हैं, वे उत्तम अध्यापक कहे जाते हैं । उनका जीवन कैसा भी क्यों न हो, इससे कुछ आता जाता नहीं। परन्तु भागवत – पाठक के लिए ऐसा विचार नहीं है। भागवत पाठक आचारवान् प्रचारक होंगे । शास्त्रों में ऐसा ही वर्णन है-
आपनि आचरि धर्म जीवेर सिखाय ।
आपने ना कैले धर्म शिखान ना जाय ।।
(चैतन्यचरितामृत)
अर्थात् जो आचार्य होता है, वह स्वयं ही आचरणकर जीवों को सिखाता है । क्योंकि स्वयं आचरण न करने पर किसी को सिखाया नहीं जा सकता । जिसका चरित्र खराब है, जिसके हृदय में काम प्रबल है, जिसके हृदय में प्रतिष्ठा या धन की कामना है, वह कभी भी श्रीमद्भागवत का पाठ नहीं करता । श्रीमद्भागवत पाठ के छल से वह केवल इन्द्रिय – तर्पण ही करता है।
श्रीलप्रभुपाद
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पाप-प्रवृत्ति का मूल कारण है- भगवद्-विमुखता
पाप का कारण होता है पाप-वासना तथा पाप-वासना का कारण होता है स्वरूप-भ्रम अर्थात शरीर में आत्म-बुद्धि, जबकि स्वरूप-भ्रम का कारण होता है अज्ञान तथा अज्ञान का कारण है- ज्ञान-विमुखता । चूंकि अखण्ड ज्ञान ही भगवान हैं, इसलिए पाप-प्रवृत्ति का मूल कारण है- भगवद्-विमुखता। मूल कारण के विषय में जानकारी न होने पर किसी भी समस्या का समाधान नहीं होगा। जीव के स्वरूप की जागृति जिस शिक्षा के द्वारा होती है, ऐसी शिक्षा का प्रचार होने से ही जीव का वास्तविक कल्याण हो सकता है। विद्या दो प्रकार की होती है- परा व अपरा। परा-विद्या के द्वारा मनुष्यत्त्व- विकासक, वास्तव ज्ञान प्राप्त होता है। स्वरूप-जागृति के द्वारा, भगवद् ज्ञान के द्वारा, मनुष्यों में धर्म और नीति की नींव संस्थापित हो सकती है। परा-विद्या के अनुशीलन से विमुख होने के कारण बालक-बालिकाओं अथवा छात्र-छात्राओं का चरित्र गठित नहीं हो पा रहा है। जो शिक्षक व अध्यापक शिक्षा प्रदान करेंगे, यदि वे स्वयं ही उसकी (परा-विद्या की) प्रयोजनीयता की उपलब्धि न कर पाए हों, तो वे कैसे छात्र-छात्राओं को समझाएँगे ? अध्यापक-अध्यापिकायों व शासन विभाग के अभिभावकों में, धर्म व नीति शिक्षा-विषयक उदासीनता ही, बालक-बालिकाओं की चारित्रिक-उच्छृंखलता बढ़ा रही है। ‘छात्राणां अध्ययनं तप’ :- अब विद्यालयों में ये तपस्या न होकर, राजनैतिक चर्चा ने प्रधानता ले ली है, जिससे छात्र व अध्यापक दोनों ही अपने-अपने कर्त्तव्य से कोसों दूर हो गए हैं। शिक्षा विभाग को राजनीति से उन्मुक्त न कर पाने से देश का भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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एक प्रिय गुरुभ्राता की प्रशंसा करना
एक समय श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज ने श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज की आविर्भाव-तिथि के उपलक्ष्य में निम्नलिखित वक्तृत्व प्रस्तुत किया-
“मेरे दो परमाराध्य वैष्णव श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज एवं श्रीमद्भक्तिहृदय वन गोस्वामी महाराज कृपा करके इस अयोग्य जीव को श्रील प्रभुपाद के निकट लेकर
आये जिससे कि मैंने उनके चरणकमलों में आश्रय प्राप्त किया। मेरे प्रति की गयी उनकी इस असीम करुणा से उऋण हो पाना मेरे लिये असम्भव है। मैं मात्र उनके प्रति अपने सम्पूर्ण हृदय से कृतज्ञता ही प्रकट कर सकता हूँ। चौरासी वर्ष की आयु में – भी मैं जो भक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने में समर्थ हो पाया हूँ, वह एकमात्र श्रील पुरी गोस्वामी महाराज के निरन्तर मार्गदर्शन से ही सम्भव हुआ है तथा मैं इसके लिये उनका चिरऋणी हूँ।
“श्रील पुरी गोस्वामी महाराज शास्त्रों में अत्यन्त निपुण एवं सुप्रवीण हैं। विद्वान लोग बहुत हैं किन्तु एक वास्तविक विद्वान व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ है। उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान कोई शुष्क पाण्डित्यपूर्ण अथवा मनोकल्पित रचना नहीं है, अपितु अप्राकृत सुन्दरता विशिष्ट एवं परम दिव्य होने के कारण यह अत्यन्त रुचिकर एवं शिक्षाप्रद है। श्रीगुरुदेव की कृपा से प्रामाणिक आचार्य के समस्त दिव्य गुण उनके पारमार्थिक जीवन की प्रारम्भिक क्रियाओं में ही सुस्पष्ट थे। वह अपने व्यवहार में सदैव गम्भीर थे तथा – उन्होंने कभी किसी का अनादर नहीं किया।
उन्होंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया तथा कपट आचरण नहीं किया। उनका आदर्श जीवन एवं शिक्षामूलक आचरण मुण्डक उपनिषद् के निम्नलिखित श्लोक के माध्यम से उपयुक्त रूप से व्यक्त किया जा सकता है
तद् विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ।
समित् पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥
“इसका अर्थ है कि भगवद्भक्ति प्राप्त करने के लिये साधक को नम्रतापूर्वक कृष्णतत्त्वविद् अनुभूति सम्पन्न श्रीगुरु के पास काय, मन एवं वाक्य से पूर्ण समर्पित भाव से जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में, उसे सम्पूर्ण रूप से श्रीगुरु के शरणागत होना चाहिये।
“मैं श्रील पुरी महाराज का कनिष्ठ गुरुभ्राता हूँ एवं वह मेरे शिक्षा गुरु भी हैं जिनसे मैंने वैदिक शास्त्रों के सूक्ष्म विचारों को जाना है।”
श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज द्वारा सञ्चित
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हरिभजन की चेतना से युक्त प्राणी ही श्रेष्ठ
“ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव।
गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्तिलता बीज।।”
“ताते कृष्ण भजे, करे गुरुर सेवन।
मायाजाल छुटे-पाये श्रीकृष्णचरण।।”
(अर्थात् ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए किसी भाग्यवान जीव को गुरु-कृष्ण-प्रसाद (कृपा) से भक्ति का बीज मिलता है। उसमें गुरु की सेवा करते हुए कृष्ण को भजते हैं और माया जाल से मुक्ति पाकर श्रीकृष्ण के चरण लाभ करते हैं।)
वैसे प्राणी मात्र को ही हरिभजन का अधिकार है। पशु भी यदि हरिभजन करता है तो वह हरिविमुख मनुष्य, देवता, गन्धर्व आदि से श्रेष्ठ है। जैसे हम श्रीचैतन्य चरितामृत में देखते हैं कि, श्रीमन् महाप्रभु के पार्षद श्रीशिवानन्द सेन का एक कुत्ता था। उसने महाप्रभु के दर्शन के लिए शिवानन्द प्रभु के साथ पुरी की यात्रा की थी और पुरी जाकर महाप्रभु के दर्शन प्राप्त कर, उनकी अशेष कृपा प्राप्त की थी। इससे उस कुत्ते ने ‘कृष्ण’ नाम उच्चारण करते-करते सिद्ध शरीर प्राप्त कर बैकुण्ठ गति लाभकी थी। जो प्राणी हरिभजन करेगा, उसे और 84 लाख जन्मों का असहनीय कष्ट भोगना नहीं पड़ेगा भगवान की कृपा लाभ कर एकदम परमगति अर्जन करेगा। भक्ति की ऐसी महिमा कि देवता, गन्धर्व तक भगवद्भक्त की सेवा के लिए उतावले हो जाते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि, एकबार देवराज इन्द्र ने अत्यन्त अहंकार के मद में श्रीकृष्ण के चरणों में कोई महापराध कर दिया था; तब उस अपराध से मुक्त होने के लिए वे कृष्णभक्त ‘सुरभी’ गाय की शरण में गये थे। भले ही इन्द्र, देवराज थे और सुरभी एक गाय अर्थात् पशु श्रेणी के अन्तर्गत थी, फिर भी इन्द्र की अपेक्षा सुरभी की प्राधान्यता ज्यादा रही क्योंकि ‘सुरभी’ कृष्णभक्त है। शास्त्रों में भक्तों की ऐसी महिमा का उल्लेख है।
फिर हम रामायण में देखते हैं कि, जब श्रीरामचन्द्र के लंका में जाने के लिए सेतु तैयार हो रहा था, तब एक गिलहरी भी उस सेवा में लग गई थी। संकुचित चेतन गिलहरी में भी सेवा भाव देखकर श्रीरामचन्द्र अत्यंत आनन्दित हो गये और संतुष्ट होकर उसे परमगति प्रदान की। शुक-सारी (तोता-तोती) दो पक्षी हरदम भगवान् का ही नामगान करते हैं। अतः देखा जाता है कि प्रत्येक प्राणी ही भगवान् की सेवा कर सकता है और उस सेवा के द्वारा वह श्रेष्ठ गति भी लाभ कर सकता है इसके बहुत सारे प्रमाण हमें शास्त्रों में दिखायी देते हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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अपनी इच्छा के अनुसार व्यवस्था करने से नहीं चलेगा। साधु-शास्त्र-गुरुवाक्य और उनके विचार अनुसार जीवन परिचालित होने पर ही तुम्हारा मंगल होगा।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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