कृष्ण भक्त-निष्काम, अतएव ‘शान्त’ ।
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी-सकली ‘अशान्त’ ।।

(चे० च० म० १९-१४९)

निष्काम शुद्धभक्तगण ही साधु, शान्त एवं सुखी हैं । किन्तु कर्मी, ज्ञानी, योगी इत्यादि सकामी होने से अशान्त चञ्चल एवं दुःखी रहते हैं।

जिनकी कृपा, संग और सेवा द्वारा जीव का नित्य मंगल होता है अर्थात् भगवान् में मति, भगवान् में भक्ति, भगवत्-कथा में रुचि, ‘मैं भगवान् का नित्य सेवक हूँ एवं भगवान् मेरे नित्य प्रभु हैं, – ऐसा दिव्यज्ञान लाभ होता है, यथार्थ में वही साधु हैं ।

जिनके संग के प्रभाव से गुरुनिष्ठा और नामनिष्ठा बढ़ती है एवं हरिकथा और सेवा-निष्ठा में रुचि होती है, चित्त भगवान् के प्रति आकृष्ट होता है, जिनकी ओजस्वी वाणी संसार के विषयों में लिप्त चित्त को हठपूर्वक श्रीहरिपादपद्मों में ले जाती है, जिनके संग से नाना प्रकार की दुश्चिन्ताओं से ग्रस्त व्यक्ति निश्चिन्त होते हैं, भीरु व्यक्ति निर्भीक होते हैं, दुःखी व्यक्ति सुखी होते हैं, दुर्बल सबल होते हैं, निराश व्यक्ति आशा पा लेते हैं, ऐसे शुद्ध भगवद्भक्त ही सच्चे साधु हैं।

भगवद् भक्ति केवल साधुसंग के द्वारा ही लाभ होती है । भक्ति लाभ का अन्य कोई उपाय नहीं है ।