गुरु-सेवा की प्रक्रिया
गुरु – शय्यासन, आर पादुकादि, यान।
पादपीठ स्नानोदक, छायार लंघन ।।
गुरुर अग्रेते अन्य पूजा द्वैतज्ञान।
दीक्षा, व्याख्या, प्रभुत्वादि करिवे वन्दन ।।
यथा यथा गुरुर पाइवे दरशन।
दण्डवत् पड़ि भूमे करिवे वन्दन ।।
गुरुनाम भक्तेि करिवे उच्चारण।
गुरु – आज्ञा हेला ना करिवे कदाचन ।।
गुरुर प्रसाद सेवा अवश्य करिवे।
गुरुर अप्रिय वाक्य कभु ना कहिवे ।।।
गुरुर चरणे दैन्ये लइवे शरण।
करिवे गुरुर सदा प्रिय आचरण ।।
एरूप आचारे कृष्णनामसंकीर्त्तने।
सर्वसिद्धि हय प्रभो बले श्रुतिगणे ।।
नामगुरु प्रति यदि अवज्ञा घटाये।
दुष्टसंगे दुष्टशास्त्र – मत समाश्रये ।।
तबे सेइ संग, सेइ शास्त्र दूर करि’।
विलाप करिवे सेइ गुरुपदे धरि’ ।।
कृपा करि’ गुरुदेव हइवे सदय।
नामे प्रेम दिवे से वैष्णव दयामय ।।
हरिदासपदरेणु भरसा याहार।
नामचिन्तामणि गाय तृणाधिक छार ।।
गुरुदेव के विश्राम करने वाला बिस्तर, उनकी पादुका, उनका वाहन, उनका चरण रखने वाला आसन तथा उनके स्नान जल का कभी भी निरादर नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि उनकी परछाईं को भी नहीं लाँघना चाहिए। अपने गुरुदेव के सामने किसी और की अलग से पूजा नहीं करनी चाहिए, न ही किसी को दीक्षा देनी चाहिए। गुरुदेव के आगे कभी भी अपना बड़प्पन नहीं दिखाना चाहिए। जहाँ कहीं भी गुरुदेव जी के दर्शन हों तो भूमि पर लेट कर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके उनकी वन्दना करनी चाहिए। गुरुदेव जी का नाम बहुत ही आदरपूर्वक उच्चारण करना चाहिए। गुरुदेवजी की आज्ञा को कभी भी टालना नहीं चाहिए। गुरु जी का प्रसाद अवश्य ग्रहण करना चाहिए। श्रील गुरुदेव को कभी भी कड़वे वचन नहीं बोलने चाहिएँ। श्रुतियाँ कहती हैं कि अति दीनता के साथ गुरु जी के चरणों में शरणागत होकर उनको प्रसन्न करने वाला आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के आचरण के साथ श्रीकृष्णनाम संकीर्तन करने से सर्वसिद्धि की अर्थात् भगवान की प्राप्ति होती है। दुष्ट- संग के प्रभाव से अथवा अप्रामाणिक शास्त्रों को पढ़कर यदि किसी व्यक्ति से श्रीहरिनाम प्रदान करने वाले गुरु का अनादर हो जाये तो उसे चाहिए कि वह उस दुष्ट संग तथा अप्रामाणिक शास्त्रों का त्याग करके अपने गुरु के पादपद्मों में विलाप करते हुये अपने अपराधों के लिए क्षमा प्रार्थना करे। दयालु गुरुदेव कृपा करके उस साधक के अपराधों को क्षमा करके उसे शुद्ध श्रीकृष्ण नाम प्रदान करेंगे।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी की चरण-रेणु ही जिनका भरोसा है, ऐसा तिनके से भी छोटा, अति तुच्छ जीव ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ का गान करता है।
इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ गुर्ववज्ञा विचारो नाम षष्ठः परिच्छेदः ।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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