कौन सी परिस्थिति में गुरु का त्याग करना चाहिए
तबे यदि एरूप घटना कभु हय।
असत्संगे गुरुर योग्यता हय क्षय ।।
प्रथमे छिलेन तिनि सद्गुरु – प्रधान।
परे नाम – अपराधे हञा हतज्ञान ।।
वैष्णवे विद्वेष करि’ छाड़े नाम-रस।
क्रमे क्रमे हन अर्थ कामिनीर वश ।।
सेइ गुरु छाड़ि’ शिष्य श्रीकृष्णकृपाय ।
सद्गुरु लभिया पुनः शुद्ध नाम गाय ।।
दुर्भाग्यवश यदि कभी ऐसा हो कि गुरु असत्संग में पड़ जाये तो असत् – संग के दुष्प्रभाव से उनकी योग्यताएँ खत्म हो जाती हैं। यह ठीक है कि पहले वह एक अच्छे सद्गुरु थे परन्तु बाद में नामापराध के प्रभाव से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। ऐसे में यदि वे वैष्णवों से विद्वेष करके, श्रीहरिनाम रूपी श्रेष्ठ – भजन छोड़कर, धन-दौलत एवं कामिनी के वशीभूत हो जाये तो ऐसे गुरु का त्याग कर देना चाहिए और पुनः श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करते हुये शुद्ध रूप से श्रीहरिनाम करना चाहिए।
परीक्षा के बाद ही सद्गुरु वरण करना चाहिए
अयोग्यशिष्येरे गुरु करिबेन दण्ड।
भजिया अयोग्यगुरु शिष्य हय पण्ड ।।
मुँहेर योग्यता यतदिन स्थिर रय।
परस्पर सम्बन्ध कखन त्यज्य नय ।।
इधर सद्गुरु को भी चाहिए कि वह अपने अयोग्य शिष्य को दण्ड दे क्योंकि अयोग्य शिष्य को पालते रहने से वह और अधिक उद्दण्ड हो जाता है। जबकि दूसरी ओर शिष्य को भी चाहिए कि वह अयोग्य गुरु को छोड़ दे अन्यथा अयोग्य गुरु के पास रहने से शिष्य पाखण्डी बन जाता है। जब तक गुरु व शिष्य दोनों की योग्यता ठीक रहती है, तब तक ही दोनों को आपसी सम्बन्ध बनाए रखना चाहिए और उस सम्बन्ध का त्याग नहीं करना चाहिए।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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बाल्यकाल से ही असाधारण प्रतिभा सम्पन्न
श्रीमद्भक्तिगौरव वैखानस गोस्वामी महाराज कार्तिक मास में कृष्ण प्रतिपदा तिथि को उड़ीसा के गञ्जाम जिले में बड़गड़ ग्राम में कुलीन ब्राह्मण कुल में आविर्भूत हुए थे। श्रील महाराज का माता-पिता द्वारा प्रदत्त नाम ‘श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ’ था। इनके पूर्वज बड़गड़ राजा के राजपुरोहित होने के गुरुत्वपूर्ण दायित्व को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अति सम्मान के साथ सम्पन्न करते आ रहे थे।
एक समय बड़गड़ के राजा ने श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ की प्रतिभा की बात को सुनकर अपने राजपुरोहित के पुत्र के सम्बन्ध सूत्र से स्नेहवशतः उन्हें राजसभा में सादर आमन्त्रित किया जहाँ राजकीय कवि एवं विद्वत्-मण्डली उपस्थित थी। सभा में सभाजनों के साथ प्रश्नोत्तर करते हुए विभिन्न आलोचनाओं के द्वारा श्रीउज्ज्वलेश्वर ने अपने पाण्डित्य का प्रकाश किया तथा विद्वत्-मण्डली को परास्त कर दिया। राजा ने श्रीउज्ज्वलेश्वर की प्रतिभा से मुग्ध होकर उसे ‘पट्टयोषी अर्थात् विद्या में प्रवीण’ की उपाधि प्रदान की एवं उसके साथ ही उन्हें ‘श्रेष्ठ सभाकवि’ के रूप में एवं ‘राजगुरु’ के पद पर आसीन किया।
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निर्भीक दृढ़ निश्चय के फलस्वरूप मृत देह से वर प्राप्ति
बड़गड़ के राजा के राजगुरु श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ तथा धराकोट के राजा के राजगुरु श्रीलिङ्गराज मिश्र ने मिलकर एक साथ तन्त्र साधना प्रारम्भ की। उसी तन्त्र साधना के अन्तर्गत एक समय वे दोनों अमावस्या की रात्रि में श्मशान में जाकर एक मृत देह की छाती पर बैठकर मन्त्र साधना करने लगे। मन्त्र के प्रभाव से जब मृतदेह का हाथ उठा तब श्रीलिङ्गराज मिश्र तो वहाँ से उठकर भाग गये किन्तु श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने ‘मृषा, मृषा अर्थात् तुम्हारे समस्त प्रयास विफल होंगे’ उच्चारण करके मन्त्र का प्रयोग किया।
उन्होंने मृत देह के हाथ को पुनः पुनः दबाकर नीचे कर दिया। धीरे-धीरे मृत ने निस्तेज होकर जिज्ञासा की, “आपके साधन का क्या उद्देश्य है?”
श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने उत्तर दिया, “विद्या-अर्जन करना।”
मृत देह से शब्द आया, “जाओ, तुम्हें सर्वोत्तम विद्या की प्राप्ति होगी। लेशमात्र भी चिन्ता मत करो।” वैसा ही हुआ, श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ एक उच्च कोटि के विद्वान् बने।
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तान्त्रिक की माया को पहचानना
एक समय राजगुरु श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ के साथ बहुत से लोग किसी एक ग्राम में रात्रि में रुके। उस ग्राम में वास करने वाले किसी एक तान्त्रिक ने उन सबको मिठाई देना प्रारम्भ किया। किन्तु श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने अपनी तन्त्र योग साधना के प्रभाव से यह जान लिया कि वास्तव में वह मिठाई नहीं, बल्कि किसी पशु की विष्ठा है। अतएव उन्होंने सभी को वह बात बतलायी। प्रायः सभी ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया किन्तु एक-दो लोगों के अविश्वास करने को समझकर उन्होंने उन्हें किसी तृण के स्पर्श से विष्ठा के रूप में परिवर्त्तित करके दिखला ही दिया।
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कपटी का सत्य प्रकाशित करना
एक समय एक व्यक्ति ने श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ के गाँव में सम्वाद भेजा कि मैं अमुक तिथि में आकर मिर्ची से यज्ञ करके दिखलाऊँगा तथा किसी को उसके जलने से खाँसी, श्वास कष्ट आदि की भी असुविधा नहीं होगी। उसकी बात सुनकर ग्राम में अधिकांश व्यक्ति कौतूहलपूर्वक उस तिथि की प्रतीक्षा करने लगे तथा सर्वत्र केवल मात्र उस व्यक्ति की ही चर्चा होने लगी।
जब श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने इस सम्वाद के विषय में सुना तो उन्होंने उस व्यक्ति के ढोंग को सब के समक्ष प्रकट करने का निश्चय किया। उन्होंने इसके लिये मिर्ची को भिन्न-भिन्न प्रकार से जलाकर अनेक प्रयोग किये जिससे कि किसी को कोई श्वास कष्ट आदि न हो तथा अन्ततः उन्होंने विधि खोज निकाली। उन्होंने मिर्ची को घी में भिगोकर समस्त ग्रामवासियों को यज्ञ करके दिखला दिया। किसी को भी श्वास-कष्ट आदि नहीं हुआ। सभी ने उनसे पूछा, “कैसे तथा किस मन्त्र के माध्यम से ऐसा सम्भवपर हुआ कि मिर्ची के जलने पर भी किसी को असुविधा नहीं हुयी।”
श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने उत्तर दिया, “वह व्यक्ति आप सबको मूर्ख बनाने का प्रयास कर रहा था, मैंने उसकी मूर्खतापूर्ण चतुरता को पकड़ने के लिये अनेक उपाय किये और अन्त में देखा कि मिर्ची को घी में डुबोकर रखने के पश्चात् जलाने पर कोई असुविधा नहीं होती। अनेक लोग मन्त्रों के नाम पर साधारण लोगों को मूर्ख बनाते हैं किन्तु सावधानीपूर्वक विचार करने पर उनकी भूल अथवा अन्यों को मूर्ख बनाने की वृत्ति को पकड़ना कोई दुष्कर कार्य नहीं होता।”
जो व्यक्ति ग्राम में आकर मिर्ची से यज्ञ करके दिखलाने वाला था, वह श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ द्वारा किये गये यज्ञ की बात को सुनकर निर्धारित तिथि में आया ही नहीं।
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धाम में सरलता ही पालनीय
एक समय श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ श्रीधाम वृन्दावन से श्रीनवद्वीप तथा वहाँ से श्रीधाम मायापुर आये। मायापुर में उन्हें श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के दर्शन हुए। दैव से उन दिनों श्रीनवद्वीप धाम की परिक्रमा प्रारम्भ होने वाली थी, तो श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने कटहल के एक वृक्ष के नीचे अपना बिस्तर लगा लिया। उन दिनों मठ में वहीं मायापुर में ही उत्पन्न होने वाले मोटे-मोटे चावलों का भोग लगता था। श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ के लिये उन चावलों को ग्रहण कर पाना सम्भवपर नहीं था, उन्होंने किसी से भी इस विषय में बात नहीं की तथा स्वयं बिस्कुट को पानी में घोलकर ही पीकर अपनी उदरपूर्ति कर लेते। इतने बड़े विद्वान्, कुलीन कुल में आविर्भूत होने वाले तथा राजगुरु होने पर भी श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ अभिमान के लेशमात्र से भी रहित थे। धाम में आने पर किस प्रकार की चित्तवृत्ति होनी चाहिये, यह उनके आदर्श से स्वतः ही अनुमान लगा लेना चाहिये।
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श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में जीवन समर्पित करना
कुछ दिनों तक श्रीधाम मायापुर में वास, श्रील प्रभुपाद के मुख से वीर्यवती हरि-कथा के श्रवण तथा श्रीधाम नवद्वीप की परिक्रमा के अन्तर्गत स्थानों के माहात्म्य के श्रवण के साथ-साथ विशुद्ध गौड़ीय विचारधारा को आत्मसात् करने की योग्यता रखने के कारण श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ ने अपनी विद्वता तथा राजगुरुत्व को असार जानकर बिना किसी विलम्ब के श्रील प्रभुपाद का चरणाश्रय ग्रहण करके उनसे हरिनाम तथा दीक्षा प्राप्त की। उसी दिन मेरे शिक्षागुरुश्रीकृष्णकेशव ब्रह्मचारी की भी दीक्षा हुई थी। श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ की भजन पद्धति, उनकी सेवा-परिपाटी, उनकी अगाध निष्ठा को देखकर दीक्षा के लगभग दो वर्ष के पश्चात् ही श्रील प्रभुपाद ने उन्हें संन्यास भी प्रदान कर दिया तथा उन्हें श्रीभक्तिगौरव वैखानस महाराज नाम द्वारा अभिहित किया।
श्रील प्रभुपाद के अनेक आश्रितजन श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ द्वारा संन्यास-प्राप्ति को देखकर आश्चर्यचकित हुए। कारण, श्रील प्रभुपाद बहुत से भक्तों को कई वर्षों तक दीक्षा भी प्रदान नहीं करते थे और इन्हें इतने कम समय में संन्यास भी प्रदान कर दिया।
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पद-पद में शिक्षा
श्रील वैखानस गोस्वामी महाराज जहाँ कहीं पर भी जाते थे, वे सर्वत्र श्रील प्रभुपाद के आदर्श, उनके विशिष्ट-चरित्र, उनकी शिक्षाओं तथा उनकी महिमा का ही गान करते थे। उनका भाषण सदैव संस्कृत भाषा में होता था, तब भी संस्कृत की सरल शैली में प्रस्तुति के कारण उसे समझने में बङ्गाली, उड़िया, आसामी, हिन्दी भाषी आदि किसी को भी असुविधा नहीं होती थी। उनके भाषण, उनके आचरण, उनके व्यवहार सभी में शिक्षा प्राप्त होती थी, शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। पद-पद में उनसे शिक्षा मिलती थी।
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एक भविष्यवाणी
जब श्रील वैखानस गोस्वामी महाराज का मठ बन रहा था तब उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए अपने आश्रितजनों से कहा था, “तुम लोगों को अर्थ की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। स्वयं ही कोई व्यक्ति आयेगा और सब प्रकार की व्यवस्था कर देगा। तुम लोग केवल भगवान् का भजन करो।”
इस बात के कुछ समय के पश्चात् ही यद्यपि उन्होंने शरीर त्याग दिया किन्तु तब भी उनके द्वारा कही गयी बात सत्य हुई तथा बहुत अच्छा मन्दिर बना। ‘सत्यं विधातुं निज भृत्य भाषितम्’ महापुरुषों-भक्तों द्वारा कही गयी बात को भगवान् अवश्य ही सत्य करते हैं।
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श्रीमद्भक्तिगौरव वैखानस
महाराज का विरह-महोत्सव
श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित
अप्रकट लीला प्रकाश
पूज्यपाद वैखानस महाराज पिच्चानवे (९५) वर्ष की आयु पर्यन्त इस धराधाम में प्रकटलीला करके २२ जनवरी, १९६६, श्रवणा नक्षत्र युक्त शुक्ल प्रतिपदा तिथि, शनिवार दोपहर में उड़ीसा के अन्तर्गत गञ्जाम जिले के गोञ्जु नामक ग्राम में निज प्रतिष्ठित ‘श्रीसारस्वत आश्रम’ में श्रीश्रीगुरु-गौराङ्ग-गान्धर्विका-गिरिधारी के श्रीचरणकमलों का स्मरण करते-करते श्रीश्रीराधा गोविन्द की नित्य नवनवायमान रसास्वादन चमत्कारिता-पूर्ण मध्याह्न-लीला में प्रविष्ट हुए हैं।
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भजन के प्रति उनकी तीव्र उत्कण्ठा
परमाराध्य प्रभुपाद से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् श्रीउज्ज्वलेश्वर रथ पट्टयोषी श्रीउज्ज्वलरसानन्द दास के नाम से परिचित हुए। तत्पश्चात् भजन साधन में उनके उत्तरोत्तर (दिन-प्रतिदिन) वर्धित अत्यधिक आग्रह को देखकर श्रील प्रभुपाद ने ४४५ गौराब्द, १ मार्च, १९३४ शुक्रवार श्रीश्रीगौर-आविर्भाव-पौर्णमासी की शुभ तिथि में श्रीमन्महाप्रभु की प्रकट-स्थली श्रीधाम मायापुर योगपीठ में उन्हें यथाविधि त्रिदण्ड संन्यास प्रदान किया। उनके संन्यास का नाम त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिगौरव वैखानस महाराज हुआ। तभी से उन्होंने गुरु के आनुगत्य में परिव्राजक के वेष में भारत के विभिन्न स्थानों पर श्रीश्रीगुरु-गौराङ्ग-वाणी के प्रचार में आत्मोत्सर्ग किया।
श्रील महाराज ने परमाराध्य प्रभुपाद के प्रकट काल में एवं उनके अप्रकट के पश्चात् बड़ी-बड़ी सभाओं में संस्कृत भाषा में सुसिद्धान्तपूर्ण वक्तृता प्रदान करके श्रीगुरु-वैष्णव आदि सभी के आनन्द को वर्धित किया है। श्रील महाराज ने श्रीगौड़ीय मठ के संस्कृत ग्रन्थ प्रचार विभाग में भी बहुत अधिक परिमाण में सहायता की है।
श्रील प्रभुपाद द्वारा अप्रकट लीला आविष्कार करने के पश्चात् श्रील महाराज ने अपनी वृद्धावस्था में अपने उड़ीसावासी शिष्यों के विशेष अनुरोध से ब्रह्मपुर (चलती भाषा में बरहमपुर) के निकट स्थित गौञ्जु ग्राम में ‘श्रीसारस्वत आश्रम’ नामक एक मठ की प्रतिष्ठा करके वहाँ श्रीश्रीगुरु-गौराङ्ग-राधागोविन्द की सेवा प्रकट की एवं अप्रकट-काल पर्यन्त वहाँ रहकर भजन साधन करते-करते इस लीला का सम्वरण किया।
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आदर्श वैष्णव स्वभाव
पूज्यपाद महाराज में वैष्णवोचित गुणसमूह स्वाभाविक रूप से देदीप्यमान थे तब भी उनका सरलतापूर्ण अमायिक व्यवहार- उनकी शान्त सौम्य मधुर मूर्त्ति के स्मरण से हृदय बहुत ही विह्वल हो उठता है। परमाराध्य प्रभुपाद के अप्रकट के पश्चात् श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के अध्यक्ष (श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज), श्रीभक्तिप्रमोद पुरी, श्रीभक्तिसौध आश्रम, श्रीभक्तिशरण शान्त महाराज आदि कुछेक गुरुभ्राताओं ने उनसे संन्यास ग्रहण किया तथापि वे उनके प्रति गुरुभ्राता-उचित गौरव ही प्रदर्शित करते थे तथा इस प्रकार उन्होंने वैष्णवोचित अमानी मानद स्वभाव के आदर्श को ही प्रदर्शित किया है।
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“यद्यपि श्रील महाराज ने संन्यास-गुरु की उपाधि स्वीकार कर अपने अनेक गुरुभ्राताओं को संन्यास प्रदान किया तथापि वे उनके प्रति गुरुभ्राता-उचित गौरव ही प्रदर्शित करते थे तथा इस प्रकार उन्होंने वैष्णवोचित अमानी मानद स्वभाव के आदर्श को ही प्रदर्शित किया।”
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उनके प्रिय स्तव-स्तुति
अत्यधिक वृद्ध अवस्था में भी उनकी प्रखर स्मरण शक्ति को देखकर हम स्तम्भित हो जाते थे, श्रीमद्भागवतम् की गर्भस्तुति, ब्रह्मस्तुति, रासपञ्चाध्याय, भ्रमरगीत, श्रीप्रह्लाद कृत नृसिंह-स्तव, श्रीगजेन्द्र स्तव, ब्रह्मसंहिता से गोविन्द स्तव, श्रीरूप-रघुनाथ द्वारा रचित बहुत से स्तव, सम्पूर्ण भगवद्गीता आदि एवं बहुत से वेद मन्त्रों को हमने प्रतिदिन उन्हें नियम-पूर्वक आवृत्ति करते सुना है।
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सुविज्ञ प्राचीन भागवत
उन्होंने अति वृद्ध अवस्था में आत्म-सङ्गोपन किया है, तब भी आज हम उनके जैसे एक सुविज्ञ प्राचीन भागवत के विरह से हृदय में विशेष व्यथा का अनुभव कर रहे हैं। वे हमारे प्रति प्रसन्न होकर स्नेह और कृपा वितरण करें।
श्रीचैतन्यवाणी (वर्ष ६, संख्या ३) में प्रकाशित एक लेख से अनुवादित
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