गुरु-पूजा

अग्रे गुरुपूजा, परे श्रीकृष्णपूजन ।
गुरुदेवे श्रीकृष्णप्रसाद समर्पण ।।

गुरु – आज्ञा ल’ये कृष्ण पूजिवे यतने ।
श्रीगुरु स्मरिया कृष्ण वलिवे वदने ।।

सबसे पहले गुरु-पूजा करनी चाहिए। उसके पश्चात् श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। गुरु-पूजा के समय गुरुदेव को श्रीकृष्ण का प्रसाद अर्पण करना चाहिए। अर्थात् पूजा के समय तो पहले गुरु-पूजा करें तथा गुरुजी से अनुमति लेकर श्रीराधा कृष्णजी की पूजा करें। परन्तु भोग लगाते समय पहले भोग भगवान श्रीराधा कृष्ण जी को अर्पित करें तत्पश्चात् उनका प्रसाद श्रीगुरुदेव जी को अर्पित करें। गुरुदेव जी से आज्ञा लेकर बड़े यत्न के साथ श्रीकृष्ण की पूजा करें तथा श्रील गुरुदेव को स्मरण करते हुये मुख से भगवद् – नाम का कीर्तन करें।

गुरु के प्रति किस प्रकार की श्रद्धा रखना उचित

गुरुते अवज्ञा या’र ता’र अपराध ।
सेइ अपराधे ता’र हय भक्तिबाध ।।

गुरु – कृष्ण – वैष्णवेते समभक्ति करि’।
नामाश्रये शुद्ध भक्त शीघ्र याय तरि’ ।।

गुरुते अचला श्रद्धा करे येइ जन।
शुद्धनामबले सेइ पाय प्रेमधन ।।

यदि कोई गुरु की अवज्ञा करता है तो उसका अपराध होता है, तब इस प्रकार के अपराध से उसके भक्ति मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। गुरु, श्रीकृष्ण तथा वैष्णवों में समबुद्धि करते हुये अर्थात् उनकी पूज्य भाव से सेवा करते हुये जो श्रीहरिनाम का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे ही शुद्ध – भक्त हैं और वे शीघ्र ही भवसागर से पार हो जाते हैं। जो साधक अपने गुरु में दृढ़ श्रद्धा रखते हैं, वे हरिनाम के प्रभाव से श्रीकृष्ण प्रेम रूपी महाधन को प्राप्त कर लेते हैं।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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असाधारण बाल्य-वृत्तान्त

मेरे शिक्षा गुरु श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज प्रायः कहा करते थे, “जब मैं अपनी माता के गर्भ में था तब एक साधु हमारे गृह में आये एवं मेरी माता को मिष्ठान्न प्रसाद दिया जिसे उन्होंने अत्यन्त आदरपूर्वक ग्रहण किया। मेरी माता के अनुसार यही मेरी जागतिक विषयों में अनासक्ति, बाल्यकाल से ही साधु बनने की सुदृढ़ अभिलाषा एवं अत्यन्त युवावस्था में ही श्रील प्रभुपाद के निकट आने का कारण बना।”

जब श्रील महाराज शिशु थे, तब एक विशाल पक्षी उन्हें आकाश में ले गया एवं पुनः वापस छोड़ गया। इस प्रकार की घटनाएँ साधारण मनुष्य के साथ कभी घटित नहीं होती, ये सब घटनाएँ दिव्य असाधारण व्यक्तित्व की ही परिचायक हैं।
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परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले आदेशों का सुसामञ्जस्य

जब श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी युवावस्था में ही श्रील प्रभुपाद के चरणों का आश्रय ग्रहणकर श्रीधाम मायापुर में ब्रह्मचारी के रूप में मठवास कर रहे थे, तब एक दिन उनकी माता के द्वारा भेजे गये पत्र को पढ़कर श्रील प्रभुपाद ने उन्हें अपनी माता से भेंट करने के लिये घर जाने के लिये कहा था। श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी अपने

“प्रत्येक जन्म में सभी को माता-पिता मिलते हैं, किन्तु श्रीकृष्ण एवं श्रीगुरु का मिलना बहुत ही दुर्लभ है।”

कर्त्तव्य के विषय में अत्यधिक गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने लगे। एक ओर वे श्रील प्रभुपाद के पूर्व कथित वचनों पर विचार करने लगे। यथा-

सकल जन्मे पिता-माता सबे पाय।
कृष्ण गुरु नाहि मिले, भजह हियाय ॥

श्रीचैतन्यमङ्गल (मध्य-खण्ड)

[प्रत्येक जन्म में सभी को माता-पिता मिलते हैं, किन्तु श्रीकृष्ण एवं श्रीगुरु का मिलना बहुत ही दुर्लभ है। इसलिये मनुष्य जन्म में ही श्रीगुरु का चरणाश्रय कर श्रीकृष्ण का भजन करना चाहिये।]

तथा दूसरी ओर श्रील प्रभुपाद का आदेश था, “तुम घर जाकर अपनी माता से भेंट कर आओ।”

इन दोनों परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले वचनों का अत्यधिक गम्भीरतापूर्वक चिन्तनकर श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी विचार करने लगे कि श्रील प्रभुपाद के पूर्व कथित वचन उनके अन्तहृदय से कहे गये वास्तविक सत्य हैं तथा बाद के वचन मेरी परीक्षा हेतु अथवा मेरी गुरुनिष्ठा को देखने हेतु कहे गये हैं।

श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी इन वचनों का चिन्तन करते-करते इस निष्कर्ष पर पहुँचे, “वास्तव में गुरु तो कभी किसी को अनित्य वस्तु, मोह उत्पन्न करने वाली वस्तु से सम्बन्ध रखने के लिये नहीं कहते, वे तो उन्हें सदैव नित्य वस्तु श्रीभगवान् से सम्बन्धयुक्त होने का उपदेश प्रदान करते हैं। अतएव मैं श्रील प्रभुपाद के पूर्व कथित वचनों का पालन करते हुए इस समय मुझे कहे गये वचनों के वास्तविक भावार्थ को समझते हुए अपने पूर्वाश्रम नहीं जाऊँगा। इससे मेरे द्वारा श्रील प्रभुपाद की अवज्ञा करना नहीं होगा, अपितु इसके द्वारा वे मेरे प्रति प्रसन्न होंगे।”

श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी का मठ में रहकर पारमार्थिक दृष्टि से श्रीगुरु को प्रसन्न करने का निर्णय पूर्णतया उचित था, बाद में श्रील प्रभुपाद ने उनके प्रति कृपा ही की।
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पूज्यपाद केशव महाराज का महिमामृत

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित

एक असाधारण व्यक्तित्व का शुभाविर्भाव

श्रीभगवान् की इच्छा से उनके अन्तरङ्ग पार्षद श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी का जन्म भक्ति परिवेश से युक्त एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ। अति शिशु अवस्था से ही उनके विलक्षण सद्गुणों यथा उनकी सच्चरित्रता, धर्म में तीव्र अनुराग, अन्याय के निर्भीक भाव से तीव्र प्रतिवाद आदि को देखकर उनके आत्मीय स्वजन एवं विज्ञजन विस्मित होते एवं समालोचना करते हुए कहते कि निश्चित ही यह बालक शीघ्र एक अतिमर्त्य महापुरुष के रूप में आत्म प्रकाश करेगा।
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सत्य में उनकी सुदृढ़ निष्ठा

श्रीमहाराज जिस तथ्य को एक बार सत्य कहकर मान लेते, उसमें इस प्रकार निर्भीक भाव से परिनिष्ठित हो जाते कि उससे च्युत करने के लिए स्वयं भय भी उनसे भयभीत होता था।
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