गरु-तत्त्व
दीक्षागुरु, शिक्षागुरु दुहे कृष्णदास ।
मुँह वजजन, कृष्णशक्तिर प्रकाश ।।
गुरुके सामान्य जीव ना जानिवे कभु।
गुरु – कृष्णशक्ति, कृष्णप्रेष्ठ, नित्यप्रभु ।।
एइ बुद्धि – सह सदा गुरुभक्ति करे।
सेइ गुरुभक्तिबले संसारेते तरे ।।
शिक्षागुरु तथा दीक्षागुरु दोनों ही श्रीकृष्ण के दास हैं। तत्त्व से दोनों ही व्रजवासी हैं एवं श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रकाश हैं। शिष्यों को चाहिए कि वह अपने गुरुदेव को कभी भी सामान्य जीव न समझें क्योंकि श्रील गुरुदेव श्रीकृष्ण की शक्ति हैं, श्रीकृष्ण के प्रिय हैं एवं शिष्यों के लिए तो वे उनके नित्य सेव्य हैं। शुद्ध – वैष्णवों का ऐसा मत है कि गुरुदेव को साक्षात् श्रीकृष्ण नहीं समझना चाहिए। गुरुदेव को श्रीकृष्ण समझना शास्त्रीय दृष्टि से अनुचित है। इसे मायावादी मत कहते हैं। अतः गुरुदेव को श्रीकृष्ण की शक्ति व श्रीकृष्ण का अति प्रिय जान कर जो शिष्य सदैव उनकी सेवा करता है, वह गुरु-सेवा के प्रभाव से इस संसार से पार हो जाता हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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बहिर्मुख व्यक्तिकी श्रद्धा, भक्ति तथा रुचि-सभी कुछ बहिर्मुखी होती है। मनुष्य ऐसी श्रद्धा, भक्ति तथा रुचिके माध्यमसे कभी भी सत्य वस्तुको नहीं पा सकता। जब वास्तव वस्तु स्वयं ही कृपाकर अवतीर्ण होते हैं, तभी वे स्वयं ही अपनेको जना देते हैं। किस वस्तुको प्राप्त करना चाहिए, अकपट सेवोन्मुख व्यक्तिको चैत्यगुरु कृपापूर्वक जना देते हैं। विशुद्ध आम्नायधाराके माध्यमसे ही वास्तव सत्य वस्तु प्रवाहित होते हैं।
श्रीलप्रभुपाद
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“तीर्थ-फल साधुसंग , साधुसंगे अन्तरंग,
श्रीकृष्ण-भजन मनोहर ।
यथा साधु, तथा तीर्थ, स्थिर करि’ निज-चित्त,
साधुसङ्ग कर निरन्तर ॥
ये तीर्थे वैष्णव नाइ, से-तीर्थेते नाहि याइ,
कि लाभ हाँटिया दूरदेश।
यथाय वैष्णवगण, सेइ स्थान वृन्दावन,
सेइ स्थाने आनन्द अशेष ॥”
(उपदेश १४, कल्याण-कल्पतरु)
अर्थात् – तीर्थका फल साधुसङ्ग है, साधुसङ्गमें अन्तरङ्ग श्रीकृष्ण-भजन मनोहर है। जहाँ साधु हैं, वहाँ तीर्थ है-इस बातको अपने चित्तमें स्थिर करके निरन्तर साधुसङ्ग करना चाहिए। जिस तीर्थमें वैष्णव नहीं है, उस तीर्थमें नहीं जाना चाहिए, दूर स्थानों पर भ्रमण करनेसे क्या लाभ ? जहाँ वैष्णवगण हैं, वही स्थान वृन्दावन है, उस स्थानपर विशेष आनन्द है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
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निम्न प्राणी के रूप में आविर्भाव होने पर भी कृष्ण के अप्राकृतत्व का नाश नहीं होता
पूर्व जन्म की सुकृति के फलस्वरूप ही वैष्णव वंश में जन्म-लाभऔर वैष्णव हुआ जा सकता है। भजन में कर्म के लिए आग्रह नहीं रहता है, सत्य है, किन्तु उत्साह-उद्यम का भी अभाव नहीं देखा जाता है; बल्कि उसमें क्रमशः वृद्धि होती है। प्रकृत कर्मी (Elevationist) और भक्त में बहुत अंतर है। कर्मी-देह व गृह के सुख में रमण करने वाला है और भक्त-कृष्ण की इन्द्रियों का प्रीति विधान करने वाले और भगवान् की सेवा में समर्पित प्राण हैं। “Time and tide wait for none” (समय और प्रवाह किसी की प्रतीक्षा नहीं करते) “समय काहारो नय, वेगे धाय, नाहि रहे स्थिर। सहाय, सम्पद, बल, सकलि घुचाय काल, आयुः येन पद्मपत्रे नीर।।” (समय किसी का नहीं है, तेज़ भागता है, स्थिर नहीं रहता है। भरोसा, सम्पत्ति, बल सबको काल नष्ट कर देता है, आयु ऐसी है जैसे कि कमल के पत्ते पर पानी)। “आजि वा शतेक वर्षे अवश्य मरण, निश्चिंत ना थाक भाइ। यत शीघ्र पार, भज श्रीकृष्ण-चरण जीवने ठिक नाई।।” (आज या सौ साल बाद मृत्यु अवश्य होगी, निश्चिन्त न रहो भाई। जितना शीघ्र हो सके, श्रीकृष्ण के चरणों का भजन करो, जीवन का कोई भरोसा नहीं है)। तुम्हारे श्रीकृष्ण ने मत्स्य (मच्छली), कूर्म (कच्छप), वराह (सूकर) अवतार ग्रहण किया था, वे इच्छा करने पर साधारण बत्तख भी तो हो सकते हैं। लेकिन उस्उस कुल में अवतीर्ण होकर भी उन्होंने अपने निजत्व, अप्राकृत स्व-स्वरूप की रक्षा की है, यही है अतीन्द्रिय भगवान् का वैशिष्ट्य ।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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मैं नहीं जानता कि मैनें ऐसा कौन सा पुण्य कर्म किया था कि आपने, बिना किसी कठिनाई के, मेरे समक्ष प्रकट होकर मुझ पर अपनी कृपादृष्टि डाली।
(श्रीमद्भागवतम् 4.22.7)
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अतएव तीर्थ नहे तोमार समान।
तीर्थेरो परम तुमि मंगल प्रधान ।।
अतएव तीर्थ स्थान आपके समान नहीं हैं क्योंकि आप तो तीर्थ स्थानों को भी पवित्र कर देते हो।
(श्री चैतन्य भागवत्)
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