शुद्ध-भक्त को छोड़ कर और किसी को भी गुरु मत बनाना

मायावादिमते थाके, कृष्णमन्त्र लय।
ता’र परमार्थ कभु नाहि हय ।।

ये अन्याय शिवे, येइ शिक्षा देय आर।
उभये नरके याय, ना पाय उद्धार ।।

शुद्ध भक्ति छाड़ि’ यिनि शिखिलेन वाद।
ताँहार जीवनमात्र वाद – विसंवाद ।।

से केमने गुरु ह ‘बे, उद्घारिवे जीवे।
आपनि असिद्ध अन्ये किवा शुभ दिवे ।।

अतएव शुद्ध भक्त ये से केने नय।
उपयुक्त गुरु हय, सर्वशास्त्रे कय ।।

मायावादियों से श्रीकृष्ण – मन्त्र प्राप्त करने पर जीव कभी भी परमार्थ- पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। जो व्यक्ति श्रीकृष्ण भक्ति को छोड़कर और – और शिक्षा लेते हैं या शिक्षा देते हैं, दोनो ही नरक में जाते हैं। शुद्धभक्ति को छोड़कर जो अन्य – अन्य मतवादों की शिक्षा ग्रहण करते हैं, उनका जीवन यूँ ही तर्क-वितर्क में बीत जाता है। ऐसे तर्क-वितर्क में फंसा जीव भला कैसे गुरु हो सकता है और कैसे जीवों का भला करेगा? जो स्वयं ही सिद्ध नहीं है एवं अमंगलों से घिरा हुआ है, वह दूसरों का क्या मंगल करेगा। अतः जो शुद्ध भक्त है, चाहे वह किसी भी कुल का क्यों न हो, वह गुरु होने के उपयुक्त है, ऐसा सभी शास्त्र कहते हैं।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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यदि कोई व्यक्ति स्वयं को वैष्णव एवं अन्यों को कनिष्ठ अथवा स्वयं से कम उन्नत समझता है तो वह मात्र जड़ अभिमान को ही पुष्ट करता है।

श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज
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“वैष्णवों के द्वारा ठगा जाना, उनकी बात में विश्वास करके अपनी हानि कराना भी किसी विशेष सुखद भविष्यत् का ही कारण बनेगा।”

श्रीमद्भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज
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एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी

एक समय एक अत्यन्त प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित ज्योतिषी ने श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी एवं एक अन्य ब्रह्मचारी की हस्त रेखाओं को देखकर दृढ़तापूर्वक कहा, “तुम दोनों का विवाह होकर ही रहेगा तथा तुम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करोगे। कोई उसे टाल नहीं सकता।”

श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की कीर्त्तन करने में दक्षता एवं गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त में गहन प्रवेश के कारण श्रील प्रभुपाद की उन्हें नवयुवक होने पर भी संन्यास देने की इच्छा थी किन्तु ज्योतिषी की भविष्यवाणी के कारण श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी संन्यास लेने से भयभीत थे कि कहीं विवाह करने की कामना उनके हृदय में सुप्त अवस्था में न हो। श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की संन्यास लेने में अरुचि को समझकर श्रील प्रभुपाद ने कहा, “संन्यास अर्थात् सम्पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शरणागत होना। भगवान् श्रीकृष्ण के अभयचरणारविन्द में शरण लेने में भय कैसा?”

श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी ने १९३६ ई० में संन्यास ग्रहण किया एवं वह श्रील प्रभुपाद के अन्तिम संन्यासी शिष्य थे। उन्हें श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज नाम प्रदान किया गया।

अन्य ब्रह्मचारी के विषय में ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा उन्हें विवाह के बन्धन में बँधना पड़ा किन्तु श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने विवाह नहीं किया। बहुत समय के पश्चात् जब उस ज्योतिषी की पुनः श्रील यायावर गोस्वामी महाराज से भेंट हुई तो इनकी हथेली को देखकर उन्होंने कहा, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूँ? आपकी हस्त रेखाओं के साथ-साथ आपके भाग्य का भी परिवर्तन हो गया है। मैंने वैष्णवों से श्रवण किया है, ‘कृष्ण भक्ति यदि हय बलवान्। विधिर कलम काटि करे खान-खान अर्थात् यदि किसी की श्रीकृष्ण में दृढ़ भक्ति हो तो उसकी भक्ति का बल विधाता के लेख को खण्ड-खण्ड कर देता है।’ इससे पूर्व मुझे वैष्णवों के इस वचन पर दृढ़ विश्वास नहीं था किन्तु अब इसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण मेरे समक्ष है। भक्ति वास्तव में किसी के भी भाग्य को परिवर्त्तित कर सकती है।”

यदि किसी की श्रीकृष्ण में दृढ़ भक्ति हो तो उसकी भक्ति का बल विधाता के लेख को खण्ड-खण्ड कर देता है।’

श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज
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ब्रह्मा जी के एक दिन की गणना

पूर्ण भगवान् कृष्ण व्रजेन्द्रकुमार।
गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार।।
ब्रह्मार एकदिने तिँहो एकबार।
अवतीर्ण हञा करेन प्रकट विहार।।
अनुवाद – व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही पूर्ण भगवान् हैं। व्रजधाम समन्वित गोलोकमें वे नित्य – विहार करते हैं। ब्रह्माके एक दिनमें वे एक बार इस जगत्‌में अवतीर्ण होकर प्रकट-लीला करते हैं।
ब्रह्मा जी का एक दिन
सत्य त्रेता द्वापर कलि चरियुग जानि।
सेइ चरियुगे दिव्य युग मानि।।
एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर।
चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर।।
अनुवाद – सत्य, त्रेता, द्वापर और कलिं, ये चार युग होते हैं। ये चारों युग मिलकर एक दिव्य-युग कहलाते हैं। इकहत्तर चतुर्युगोंका एक मन्वन्तर होता है और ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मन्वन्तर होते हैं।
ब्रह्मा जी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं।

एक दिन में 14 मन्वंतर

एक मन्वंतर में 71 चतुर्युग

एक चतुर्युगी में चार युग

1. सत्य
2. त्रेता
3.द्वापर
4.कलि

यह चारों एक युग या युगी कहलाता है।

एक युगी की गणना

कलि  = 4,32000
द्वापर = 8,64000
त्रेता = 12, 96000
सत्य = 17,28000

Total एक चतुर युगी के साल हुए।

43,20,000

इसको एक युग बोला जाता है
एक युगी –

43,20,000 × 71
=30,67,20,000 साल होते हैं ।

यह एक मन्वन्तर का परिणाम है इसे गुणा करते हैं 14 से।

30,67,20,000×14
=4,29,40,80,000
यह ब्रह्मा जी का एक दिन का परिणाम है 4,29,40,80,000,

एक दिन में 14 मन्वतर होते हैं – फिर एक महीने में देखते हैं फिर एक साल में देखते हैं,  फिर 100  साल में
1  दिन में 14
14 × 30 दिन में = 420
420 × 12 महीने में
= 5040

5040×100 साल

एक साल में 5040
100 साल की ब्रह्मा की आयु है यानि 5040 × 100  = 5,04,000  मनु होते हैं।

ब्रह्मा जी के एक दिन में
कलि  = 994 बार आता है
द्वापर  = 994 बार आता है
त्रेता = 994 बार आता है
सत्य = 994 बार आता है।

अब यहां पर एक संधिकाल आता है जो 15 सत्य युगों के परिणाम का होता है
15 × 17,28,000  =  2,59,20,000

6  महायुगों के काल से देखें तब भी यही आएगा  ( एक चतुर्युगी के साल )
6 × 43,20,000  =  2,59,20,000

इस प्रकार 14  मन्वन्तरों और संधिकाल को मिलाकर एक हज़ार महायुगों के काल के बराबर ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प होता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा जी की रात्रि भी होती है

‘वैवस्वत’ नाम एइ सप्तम मन्वन्तर
साताइश चतुर्युग गेले ताहार अन्तर
अनुवाद – वर्तमान सप्तम मन्वन्तरका नाम वैवस्वतं’ है और इसके सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं।

अनुभाष्य – वैवस्वत – नामके सातवें मनुके मन्वन्तरमें श्रीमन्महाप्रभुका आविर्भाव होता है “स्वायम्भुवाख्यो मनुराद्य आसीत्, स्वारोचिषश्चोत्तम-तामसाख्यौ। जातौ ततो रैवतचाक्षुषौ च वैवस्वतः सम्प्रति सप्तमोऽयम्॥ सावर्णिर्दक्षसावर्णिब्रह्मसावर्णिकस्ततः । धर्मसावर्णिको रुद्रपुत्रो रौच्यश्च भौत्यकः ॥”

14  मनु के नाम इस प्रकार हैं

(१) स्वायम्भुव,
(२) स्वारोचिष,
(३) उत्तम,
(४) तामस,
(५) रैवत,
(६) चाक्षुष,
(७) वैवस्वत,
(८) सावर्णि,
(९) दक्षसावर्णि,
(१०) ब्रह्मसावर्णि,
(११) धर्मसावर्णि,
(१२) रुद्रपुत्र (सावर्णि),
(१३) रोच्य (देवसावर्णि) और
(१४) भौत्यक (इन्द्रसावर्णि)
– ये चौदह मनु हैं। प्रत्येक मनु का भोगकाल इकहत्तर महायुग है।
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