जो वैराग्य-आश्रम ग्रहण करेंगे, वे वैरागी-सद्गुरु का ही चरणाश्रय ग्रहण करेंगे
वैराग्य – आश्रम, ग्रहणेते त्यागी,
पुरुष हइवे गुरु।
ताँहार चरणे, शिखिवे विराग,
गुरु शिक्षा – कल्पतरु ।।
वैराग्याश्रम ग्रहण कर लेने के बाद उस व्यक्ति को चाहिए कि वह वैरागी गुरु का ही चरणाश्रय ग्रहण करे क्योंकि वैरागी गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करने पर उसे वैराग्य की शिक्षा प्राप्त होगी। शिक्षा देने के लिए तो गुरु कल्पतरु के समान होते हैं जो कि विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्रदान करते हैं।
दीक्षागुरु और शिक्षागुरु समान रूप से सम्माननीय हैं
दीक्षा – शिक्षा – भेदे, गुरु दु’प्रकार,
उभये समान मान।
अर्पिवे सुजन, परमार्थ – धन,
अनायासे यदि चान ।।
कृष्णनाम – मन्त्र, देन दीक्षागुरु,
शिक्षागुरु – तत्त्वदाता।
वैष्णव – सकल, शिक्षागुरु हन,
सर्व शुभजनयिता ।।
शिक्षा और दीक्षा के भेद से गुरु दो प्रकार के होते हैं। अतः जो व्यक्ति अनायास उस परमार्थ धन को प्राप्त करना चाहते हैं, वे शिक्षा गुरु व दीक्षा गुरु, दोनों को बराबर सम्मान प्रदान करते हैं। दीक्षा गुरु श्रीकृष्ण नाम प्रदान करते हैं जबकि शिक्षा गुरु भजन तत्त्व की शिक्षा देते हैं। सभी वैष्णव, शिक्षा – गुरु होते हैं। उनका यथायोग्य सम्मान करना चाहिए।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीकृष्णनामसंकीर्तन साधन सम्राट् है
हरि – गुरु – वैष्णवों की सेवा से उदासीन होकर यदि संसार की सेवा में ही व्यस्त रहे, तो कभी भी नामपरायण नहीं हो पायेंगे । हमें नामपरायण करने के लिए ही श्रीराधागोविन्द – मिलित – तनु गौरांगदेव इस जगत में आये थे । किन्तु यदि हम उनकी बात न सुनकर श्रीनाम की सेवा से उदासीन रहें, तो हमारा कभी भी मंगल नहीं होगा ।
कृष्ण को प्राप्त करने का सबसे उत्कृष्ट साधन श्रीनामसंकीर्तन ही है। इसके अतिरिक्त अन्य साधन यदि कृष्णनाम संकीर्तन में सहायक हों, तभी उन्हें साधन कहा जायेगा, अन्यथा उन सभी साधनों को व्याघात समझना होगा ।
श्रीलप्रभुपाद
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एक-एक प्रकार के विषय को समझने के लिये एक-एक प्रकार की योग्यता की आवश्यकता होती है। जब तक वह अधिकार या योग्यता अर्जित न हो, तब तक हम उस वस्तु के विषय में ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि हम बहुत प्रकार की भाषा जानने पर भी यदि उर्दू भाषा न जानते हों तो दूसरी भाषाओं के ज्ञान के द्वारा उर्दू भाषा नहीं समझी जा सकती। आँखें रहने पर भी उर्दू भाषा की शिक्षा रूपी पृथक् अधिकार या योग्यता अर्जन न करने से जिस प्रकार उर्दू भाषा का रूप और शक्ति अर्थात् अर्थ हृदयंगम नहीं होता, उसी प्रकार परमेश्वर की उपलब्धि के लिये जो अधिकार या योग्यता चाहिये, वह अर्जित न होने तक जितनी प्रकार की भी दुनियावी योग्यता या ज्ञान क्यों न रहें हम उसे समझने अथवा उसकी उपलब्धि करने में समर्थ नहीं होते हैं। परमेश्वर स्वतः- सिद्ध तत्त्ववस्तु होने के कारण उनमें शरणागति बिना, उनकी कृपा बिना कोई भी उनको जानने व अनुभव करने में समर्थ नहीं होता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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