वेद केवल शुद्ध-नाम-भजन की ही शिक्षा देते हैं

एइ सब वेदशिक्षा अभागा ना माने।
नामे अपराध करे, वेदेर निन्दने ।।

शुद्ध नामपरायण येइ महाजन ।
वेदाश्रये पाय नाम-रस प्रेमधन ।।

सर्ववेद बले, – “गाओ हरिनामसार।
पाइबे परमा प्रीति आनन्द अपार ।।

वेद पुनः बले- “यत मुक्त महाजन ।
परव्योमे सदा करे नामसंकीर्त्तन ।।

दुर्भाग्यशाली व्यक्ति ही वेद की इन शिक्षाओं को न मान कर, वेद की निन्दा करते हुये नामापराध करते हैं किन्तु जो शुद्ध नाम-परायण भगवद् – भक्त लोग हैं, वे वेदों का आश्रय लेकर नाम-रस रूपी प्रेमधन को प्राप्त करते हैं। सभी वेद कहते हैं कि श्रीहरिनाम ही सार है, उसका कीर्तन करो। ऐसा करने से आपकी भगवान में प्रगाढ़ प्रीति होगी तथा तुम्हें असीम आनन्द का अनुभव होगा। यही नहीं, वेद और भी कहते हैं कि जितने भी संसार से मुक्त महाजन हैं, वे वैकुण्ठ धाम में सदासर्वदा श्रीहरिनाम संकीर्तन करते रहते हैं।

तामस-तन्त्रों की शिक्षा वेद विरुद्ध है

कलियुगे महाजन मायाशक्ति भजे।
चिदात्मा – पुरुष – कृष्णनामरस त्यजे ।।

तामसिक तन्त्र धरि’ श्रुतिनिन्दा करे।
मद्यमांसे प्रीति करि’ अधर्मते मरे ।।

से सब निन्दुक नाहि पाय कृष्णनाम ।
कभु नाहि पाय कृष्णेर वृन्दावनधाम ।।

कलियुग के तथाकथित महाजन लोग चिन्मय पुरुष – श्रीकृष्ण के नाम-रस को त्याग कर माया शक्ति का भजन करते हैं। वे तामसिक – तन्त्रों को प्रामाणिक मानकर वेदों की निन्दा करते हैं। वे शराब व मांस का सेवन करते हुये अधर्म का आचरण करते हैं। इस प्रकार के निन्दक, श्रीकृष्ण नाम को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते और न ही कभी उन्हें श्रीकृष्ण के श्रीवृन्दावन धाम की प्राप्ति होती है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि