गृहत्यागी, गृहत्यागी गुरु का आश्रय कर सकता है
ये कोन कारणे, सेइ गृहि – धर्म,
छाड़ि’ अन्याश्रम लय।
ताहे परमार्थ, ना पाइया शेषे,
साधुगुरु अन्वेषय ।।
ताहार पक्षेते, अगृही आचार्य,
प्रशस्त सकल मते ।
ताँ’र दीक्षा शिक्षा, पाइया से – जन,
भासे नामरसामृते ।।
यदि किसी भी कारण वश कोई जीव गृहस्थ आश्रम का परित्याग करके अन्य आश्रम को ग्रहण करता है तो उसके ऐसा करने मात्र से ही उसे पारमार्थिक उन्नति प्राप्त नहीं होगी। पारमार्थिक उन्नति प्राप्त करने के लिए उसे सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना ही पड़ेगा। गृहत्यागी – व्यक्ति को गृहत्यागी गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करना ही उचित है। उनसे शिक्षा – दीक्षा ग्रहण करके ही वह श्रीकृष्ण नाम का रसास्वादन कर सकता है।
गृहस्थ-व्यक्ति को अपना गृहस्थाश्रम छोड़ने पर भी अपने पूर्व सद्गुरु का चरणाश्रय नहीं छोड़ना चाहिए
गृही भक्तजने, विराग लभिले,
छाड़ये संसार – विधि।
तबु पूर्वगुरु, चरण – आश्रय,
करिवे जीवनावधि ।।
गृहिजनमध्ये, गृहिगुरु शस्त,
यदि शुद्धभक्त हन।
नतुवा अगृही, सुयोग्य हइले,
गुरुयोग्य सर्वक्षण ।।
सद्गुरु पाइया, भजिते भजिते,
भावेर उदय यबे।
संसार – विरक्ति, संसार छाड़िया,
वैरागी हइवे तबे ।।
गृहस्थ – भक्त को वैराग्य प्राप्त करके संसार छोड़ देने पर भी अपने पूर्व सद्गुरु का चरणाश्रय जीवन के अन्तिम क्षणों तक नहीं छोड़ना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति गृहस्थाश्रम के सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण कर सकते हैं यदि वह शुद्ध श्रीकृष्ण भक्त हों तो, अन्यथा उसे सुयोग्य त्यागी – सद्गुरु के चरणों का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए। सद्गुरु को प्राप्त करके हरिभजन करते-करते हृदय में जब भगवद्- भावों का उदय होता है तो स्वाभाविक रूप से संसार परित्याग करने से वह वैरागी भक्त बन जाता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
It is the business of the guru to teach his disciples detachment
We are very much attached to this material world, but according to the Vedic system, renunciation is compulsory, for when one reaches the age of fifty, he renounces his family life. Nature gives warning, “You are now past fifty. That’s all right. You have fought in this ma-terial world. Now stop this business.” Children play on the beach and make houses out of sand, but after a while the father comes and says, “Now, my dear children, time is up. Stop this business and come home.” This is the business of the guru-to teach his disciples detach-ment. The world is not our place; our place is Vaikunthaloka.
Srila A. C. B. Swami Maharaj
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
“वैष्णव-सेवा के बिना भगवान् की सेवा करने की प्रवृत्ति जागृत नहीं होगी, अतएव सदैव वैष्णव-सेवा करने की प्राणपर चेष्टा करना।”
श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
श्रीगुरुदेव एकान्त रूप से भगवान के सेवक हैं । उनके प्रत्येक कार्य भगवद् सेवा के सर्वोत्तम आदर्श हैं, गुरुदेव के दर्शन में जब तक ऐसी दृष्टि नहीं होगी तब तक मेरी आँखों में बाधा की पट्टी लगी रहेगी । उनकी दया प्राप्त नहीं होने से, दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होने से, हम गुरुपादपद्म की महिमा को समझ नहीं सकते हैं।
श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _