वेदों के विचारानुसार शुद्ध प्रक्रिया
श्रुतिर अभिधा – वृत्ति करि’ संयोजन।
शुद्ध भक्ति लभि’ जीव पाय प्रेमधन ।।
श्रुतिते लक्षणा करे अयथा प्रकारे ।
नित्य सत्य दूरे याय, अपराधे मरे ।।
सर्ववेदसम्मत प्रणव कृष्णनाम ।
सेइ नामे जीव सब पाय नित्यधाम ।।
प्रणव से महावाक्य हय कृष्णनाम।
ताहातेइ श्रीभक्तेर सतत विश्राम ।।
वेद बले, नाम – चित्स्वरूप जगते।
नामेर आभासे सिद्ध हय सर्वमते ।।
वेदों की अभिधावृति (अर्थात् मुख्य अर्थ) को ग्रहण करने से जीव को शुद्ध – भक्ति की प्राप्ति होती है जिससे वह श्रीकृष्ण – प्रेम रूपी धन से ध नी हो जाता है किन्तु वेद वाक्यों में अनुचित रूप से लक्षणावृति (घुमा फिरा कर किया हुआ अर्थ) का प्रयोग करने से नित्य- सत्य से जीव दूर रहता है और अपराध में ही फंसता चला जाता है। प्रणव (ॐ) अर्थात् श्रीकृष्ण नाम सभी वेदों द्वारा सम्मत है अर्थात् सभी वेदों की राय है कि महावाक्य प्रणव (ॐ) ही श्रीकृष्णनाम है। उस श्रीकृष्ण नाम को करने से भक्तजन आनन्दमय वैकुण्ठ- गोलोकधाम को प्राप्त करते हैं। वेदों में कहते हैं कि इस जगत् में भगवान का नाम ही चिद्रस्वरूप है, जिसके आभास मात्र से सब प्रकार की सिद्धि हो जाती है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि