इन सब मतवादों से श्रुति-निन्दा होती हैं

एइ सब दुष्टमते श्रुतिर निन्दन।
कभु स्पष्ट, कभु गुप्त, बुझे विज्ञजन ।।

एइ सब मते थाकि’ अपराधी हय।
अतएव एइ सबे त्यजिवे निश्चय ।।

विद्वान भगवद् – जन जानते हैं कि इन सब दुष्ट मतवादों के द्वारा कभी स्पष्ट रूप से तो कभी अस्पष्ट रूप से श्रुति शास्त्रों की निन्दा होती रही है। इन सब मतों में पड़ने से अपराध निश्चित है, इसलिए दृढ़ता के साथ इन मतवादों से दूर रहना चाहिए।

मायावाद अति ही दुष्ट एवं वेद-विरुद्ध मत

ए सब कुमत छाड़ि’ आर मायावाद।
शुद्ध भक्ति अनुभवि’ हय निर्विवाद ।।

मायावाद असत्शास्त्र गुप्त – बौद्धमत ।
वेदार्थविकृति कलिकालेते सम्मत ।।

उमापति ब्राह्मणरूपेते प्रकाशिल ।।

ऊपर लिखे मतवादों को तथा मायावाद को छोड़ने से ही मानव निर्विवाद रूप से शुद्ध भक्ति रस का आस्वादन कर सकता है। मायावाद असत् – शास्त्र है और यह एक तरह का गुप्त बौद्ध मत ही है। इसमें वेदों के अर्थ की विकृति की गई है परन्तु यह कलिकाल में प्रसिद्ध है।

उमापति ब्राह्मण रूपे ते प्रकाशिल
तोमार आज्ञाय तँह आचार्य हइल ।।

जैमिनि येरूप मुखे वेद मात्र माने।
श्रुतिर विकृत अर्थ जगते बारखाने ।।

मायावादी गुरु सेइरूप बौद्ध धर्म।
वेदवाक्ये स्थापि आच्छादिल भक्त्तिमर्म ।।

एइ सब मतवादे भक्ति दूरे याय।
श्रीकृष्णनामेते जीव अपराध पाय ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रीमन् महाप्रभु जी से कहते हैं- हे प्रभु! आपकी आज्ञा से ही उमापति महादेव जी ने ब्राह्मण रूप में आकर इस मायावाद को प्रकाशित किया तथा मायावाद के आचार्य बने। जैमिनी ने जिस प्रकार सिर्फ मुख से वेद को मानते हुये श्रुति शास्त्र के परिवर्तित अर्थों की व्याख्या की थी, उसी प्रकार मायावादी गुरुओं ने प्रच्छन्न (ढके हुए) बौद्ध धर्म को वेदवाक्यों के द्वारा स्थापित करके भगवद् – भक्ति के असली मर्म को ही ढक दिया। इन सब मतवादों को स्वीकार करने से जीव भगवान की भक्ति से दूर हो जाता है तथा उसका श्रीकृष्ण नाम के प्रति अपराध हो जाता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि

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शुद्ध आत्मवृत्ति

​आत्मा की वृत्ति – एकमात्र परमात्मा का अनुशीलन (अभ्यास); आत्मवृत्ति में अन्य किसी प्रकार का कोई कार्य (विषय) नहीं है। चेतन की वृत्ति या धर्म के दुरुपयोग के कारण, परमात्मा के अलावा अन्य नश्वर वस्तुओं (खंड-वस्तुओं) में ममत्व (मोह) उत्पन्न होने से हमारी आत्मा की वृत्ति लुप्त होकर रह गई है। ‘आत्मा की वृत्ति लुप्त है’ – यह बात भी ठीक नहीं है; क्योंकि चेतन की वृत्ति कभी लुप्त नहीं रहती; चेतन की वृत्ति – सदैव क्रियाशील रहती है; परन्तु जब आत्मा की वृत्ति के द्वारा परमात्मा का अनुशीलन (अभ्यास) होता है, तभी आत्मा की वृत्ति का यथार्थ (वास्तविक) उपयोग होता है।

श्रीलप्रभुपाद