
अभिधेय-नवधा भक्ति
श्रवण, कीर्त्तन, स्मृति, पूजन, वन्दन।
परिचर्या, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन ।।
भक्तिर प्रकारमध्ये नाम सर्वसार ।
प्रणवमाहात्म्य वेद करेन प्रचार ।।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, वंदन, पादसेवन्, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन् इस नवधा भक्ति में श्रीनाम संकीर्तन ही सर्वशिरोमणि है। वेदों में भी भगवान के नाम प्रणव (ॐ) की विशेष महिमा गाई गई है।
प्रयोजन-कृष्ण प्रेम
शुद्ध भक्ति – समाश्रय करिया मानव।
कृष्णकृपाबले पाय प्रेमेर वैभव ।।
मानव शुद्ध – भक्ति का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण-कृपा के प्रभाव से भगवद् – प्रेम प्राप्त करता है।
इस प्रकार की शिक्षा देने वाले श्रुति-शास्त्रों की निन्दा करना अपराध है
ए नव प्रमेय श्रुति करेन प्रमाण।
श्रुतितत्त्वाभिज्ञ गुरु करेन सन्धान ।।
ए हेन श्रुतिरे येइ करे विनिन्दन।
नाम – अपराधी सेइ नराधम जन ।।
यह नौ प्रमेय वेदों में वर्णित होने के कारण यह ज्ञान पूर्ण रूप से प्रामाणिक हैं। सद्गुरु इन नौ प्रमेयों को भली भांति समझते हैं तथा अपने शिष्यों को समझाते हैं। इस प्रकार के श्रुति शास्त्रों की जो निन्दा करता है वह जीव नामापराधी तथा नराधम (अधम जीव) है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमद्भागवत साक्षात भगवान का अवतार अधोक्षज वस्तु है । उसे हम अपनी इन्द्रियों के द्वारा माप नहीं सकते । जो जितनी ही दुर्लभ एवं परम सत्य है, वह उतनी ही सुरक्षित होती है । विमुख लोगों के समक्ष भागवत अपने को प्रकाशित नहीं करती ।
प्रभुपाद