अचिन्तय भेदाभेद सम्बन्ध

चिद्व्यापार आर यत जड़ेर व्यापार।
सकलि अचिन्त्य भेदाभेदेर प्रकार ।।

जीव, बड़ – सर्ववस्तु कृष्णशक्तिमय ।
अविचिन्त्य – भेदाभेद श्रुतिशास्त्रे कय ।।

एइ ज्ञाने जीव जाने – ‘आमि कृष्णदास।
कृष्ण मोर नित्य प्रभु, चित्सूर्य – प्रकाश ।।

शक्तिपरिणाम मात्र वेदशास्त्रे बले।
विवर्त्तादि दुष्टमते वेदनिन्दे छले ।।

श्रुति – शास्त्र कहते हैं कि चिद् तथा अचित् जगत अर्थात् जीव तथा तमाम जड़ वस्तुएँ श्रीकृष्ण की शक्ति से उत्पन्न हुई हैं व ये सभी श्रीकृष्णशक्तिमय हैं। इन सभी का श्रीकृष्ण से अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध है। अचिन्त्य भेदाभेद ज्ञान के द्वारा ही जीव को यह मालूम पड़ता है कि वह श्रीकृष्ण का नित्य-दास है तथा श्रीकृष्ण ही उसके अपने नित्य-प्रभु हैं और वह श्रीकृष्ण रूपी चिन्मय सूर्य की किरणों का एक छोटा सा परमाणु मात्र है। शक्ति – परिणामवाद ही वेद शास्त्रों का मत है। विवर्तवाद अर्थात् एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भ्रम होने का नाम विवर्त्त है जोकि नितान्त वेद – विरुद्ध है।

सम्बन्ध-ज्ञान

एइ त’ सम्बन्ध- ज्ञान सातटी प्रमेय ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन अति उपादेय ।।

वेद पुनः शिक्षा देन अभिधेयसार।
नवविध कृष्णभक्ति विधि, राग आर ।।

यहाँ तक जिन सात प्रमेयों को बताया गया है, सभी सम्बन्ध ज्ञान से सम्बन्धित हैं। सभी श्रुति शास्त्र इनके बारे में अति कल्याणकारी उपदेश प्रदान करते हैं। सम्बन्ध – ज्ञान के बाद वेद अभिधेय ज्ञान की शिक्षा देते हैं, जो कि विधि मार्ग की चिन्मय नवधा कृष्ण भक्ति तथा रागानुगा – भक्ति है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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