जीव-तत्त्व
द्वितीये शिवाय विभिन्नांश जीवत्तत्त्व।
अनन्त – संख्यक चित् परमाणुसत्त्व ।।
जीव तत्त्व के सम्बन्ध में अगली शिक्षा यह है कि जीव भगवान की शक्ति के विभिन्न अंश हैं तथा संख्या में अनन्त हैं। यह जीव कोई जड़ीय वस्तु नहीं है बल्कि ये जीव तो चेतन का एक परमाणु – कण है।
नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं
नित्यबद्ध नित्य – (मुक्त) भेदे जीव द्विप्रकार।
संव्योम ब्रह्माण्ड भरि’ संस्थिति ताहार ।।
बद्धजीव माया भजि’ कृष्णबहिर्मुख ।
अनन्तब्रह्माण्डे भोग करे दुःखसुख ।।
नित्यमुक्त कृष्ण भजि’ कृष्णपारिषद ।
परव्योमे भोग करे प्रेमेर सम्पद ।।
तिनटी प्रमेय एइ जीवेर विषये ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन कृष्णदासी ह’ये ।।
नित्य – बद्ध तथा नित्य – मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं। इस पूरे ब्रह्माण्ड में जहाँ – तहाँ जीव भरे पड़े हैं। श्रीकृष्ण के विमुख मायाबद्ध – जीव अनन्त ब्रह्माण्ड़ों में दुःख-सुःख का भोग करते रहते हैं, जबकि नित्य – मुक्त जीव वैकुण्ठ में श्रीकृष्ण का भजन करते हुये श्रीकृष्ण के पार्षद के रूप में भगवद् – प्रेम सम्पदा का रसास्वादन करते हैं। जीवों के विषय में श्रुति शास्त्र इन तीन प्रमेयों को श्रीकृष्ण की दासी के रूप में शिक्षा प्रदान करते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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त्रिदंडी स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज का तिरोभाव।
एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी
एक समय एक अत्यन्त प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित ज्योतिषी ने श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी एवं एक अन्य ब्रह्मचारी की हस्त रेखाओं को देखकर दृढ़तापूर्वक कहा, “तुम दोनों का विवाह होकर ही रहेगा तथा तुम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करोगे। कोई उसे टाल नहीं सकता।”
श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की कीर्तन करने में दक्षता एवं गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त में गहन प्रवेश के कारण श्रील प्रभुपाद की उन्हें नवयुवक होने पर भी संन्यास देने की इच्छा थी किन्तु ज्योतिषी की भविष्यवाणी के कारण श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी संन्यास लेने से भयभीत थे कि कहीं विवाह करने की कामना उनके हृदय में सुप्त अवस्था में न हो। श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की संन्यास लेने में अरुचि को समझकर श्रील प्रभुपाद ने कहा, “संन्यास अर्थात् सम्पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शरणागत होना। भगवान् श्रीकृष्ण के अभयचरणारविन्द में शरण लेने में भय कैसा?”
श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी ने १९३६ ई० में संन्यास ग्रहण किया एवं वह श्रील प्रभुपाद के अन्तिम संन्यासी शिष्य थे। उन्हें श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज नाम प्रदान किया गया।
अन्य ब्रह्मचारी के विषय में ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा उन्हें विवाह के बन्धन में बँधना पड़ा किन्तु श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने विवाह नहीं किया। बहुत समय के पश्चात् जब उस ज्योतिषी की पुनः श्रील यायावर गोस्वामी महाराज से भेंट हुई तो इनकी हथेली को देखकर उन्होंने कहा, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूँ? आपकी हस्त रेखाओं के साथ-साथ आपके भाग्य का भी परिवर्त्तन हो गया है। मैंने वैष्णवों से श्रवण किया है, ‘कृष्ण भक्ति यदि हय बलवान्। विधिर कलम काटि करे खान-खान अर्थात् यदि किसी की श्रीकृष्ण में दृढ़ भक्ति हो तो उसकी भक्ति का बल विधाता के लेख को खण्ड-खण्ड कर देता है।’ इससे पूर्व मुझे वैष्णवों के इस वचन पर दृढ़ विश्वास नहीं था किन्तु अब इसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण मेरे समक्ष है। भक्ति वास्तव में किसी के भी भाग्य को परिवर्त्तित कर सकती है।”
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गुरुभ्राता के लिये स्नेहमयी चिन्ता
एक समय श्रील यायावर गोस्वामी महाराज कालना गये। उस समय वहाँ पर श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज श्रीअनन्त वासुदेव मन्दिर में सेवा कार्य कर रहे थे। जब श्रील यायावर गोस्वामी महाराज श्रील पुरी गोस्वामी महाराज से मिले तो उन्होंने कहा, “आपने इस मन्दिर का सेवा-दायित्व अपने ऊपर लिया है तथा साथ-ही-साथ श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की विभिन्न सेवाओं का दायित्व भी आप पर है। आप अकेले इन सब दायित्वों का निर्वाह किस प्रकार करेंगे? अपने समय एवं ऊर्जा को सम्पूर्ण हृदय से एक स्थान पर ही सेवा में लगाने से अच्छा होगा।” उनके परामर्श को स्वीकार करते हुए श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति को श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की सेवाओं में नियुक्त किया।
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सदैव कीर्त्तन करो
श्रील यायावार गोस्वामी महाराज अन्तर्हृदय से बहुत ही मधुर कीर्त्तन करते थे। एक समय जब वह कीर्त्तन कर रहे थे तो बिजली चली गयी। इस परिस्थिति में क्या कर्त्तव्य है यह सुनिश्चित नहीं कर पाने के कारण वहाँ उपस्थित भक्त व्याकुल हो गये। श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने शीघ्र ही प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें अशान्त न होने के लिये कहा तथा स्वयं उन्होंने कीर्त्तन प्रारम्भ किया, “भजहुँ रे मन, श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे – हे मेरे मन ! तुम श्रीनन्दनन्दन के अभय अर्थात् समस्त प्रकार के भयों का विनाश करने वाले श्रीचरणकमलों का भजन करो।”
उनका आचरण उनकी भगवान् के प्रति सम्पूर्ण शरणागति को लक्षित करता था। इस प्रकार वह कभी भी किसी भी वस्तु के लिये चिन्ता नहीं करते थे तथा चाहते थे कि अन्य भी न करें।
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त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार
यायावर महाराज का नित्यलीला में प्रवेश
श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित
श्रील प्रभुपाद के स्नेहपात्र
यह हमारे मर्मान्तक दुःख का विषय है कि श्रील नरोत्तम दास ठाकुर महाशय की तिरोभाव-तिथि पूजा के दिन अस्मदीय परमाराध्यतम श्रीश्रीगुरुपादपद्म के परम प्रियतम स्नेहपात्र हमारे सतीर्थवर परम पूज्यपाद त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज इस संसार को त्यागकर नित्य लीला में प्रविष्ट हो गये हैं। श्रील प्रभुपाद के अन्तिम संन्यासी शिष्य श्रील महाराज, सन्ध्या में प्रायः छः बजे मेदिनीपुर स्थित श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ में अपने आश्रित मठवासी भक्तों के द्वारा उच्च स्वर में किये जा रहे महासङ्कीर्त्तन के मध्य चेतनायुक्त अवस्था में श्रीश्रीगुरुगौराङ्ग-गान्धर्विका-गिरिधारी” के श्रीचरणों का स्मरण करते-करते नित्यलीला में प्रवेश कर गये।
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अनन्त वैष्णव गुणों से मण्डित
शास्त्र कहते हैं- ‘कृष्णभक्ते कृष्णेर गुण सकलि सञ्चरे – कृष्ण अपने भक्त में अपने समस्त गुणों का सञ्चार करते हैं’। वस्तुतः श्रील महाराज वैष्णवोचित अशेष गुणोंसे अलंकृत थे। शास्त्रों के सुकठिन दार्शनिक तत्त्वों की वह इस प्रकार सुन्दर, सरल भाषा में व्याख्या करते थे कि उनके श्रीमुख से अपूर्व भाषण अथवा गीता-भागवतादि शास्त्र-ग्रन्थों का पाठ और व्याख्या श्रवण करके पण्डित-अपण्डित सभी श्रोता अत्यन्त मुग्ध हो जाते थे तथा पुनः-पुनः श्रवण करने की आकाङ्क्षा प्रकाशित करते थे। दक्षिण कोलकाता में स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में निमन्त्रित विद्वत्जन-मण्डित महती सभा में हमने देखा है कि पूज्यपाद यायावर महाराज की वक्तृता सभापति, प्रधान-अतिथि और सारग्राही श्रोतावृन्द सभी का चित्त विशेष रूप से आकर्षित करती थी।
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मुझसे कोटि गुणा अधिक श्रेष्ठ
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता नित्यलीलाप्रविष्ट पूज्यपाद त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज एवं पूज्यपाद यायावर गोस्वामी महाराज परस्पर घनिष्ठ मित्र थे। पूज्यपाद माधव महाराज के समस्त मठों में आयोजित होने वाले सभी विशिष्ट उत्सवों में श्रील यायावर गोस्वामी महाराज उपस्थित होते थे तथा कृपापूर्वक अपने गुरुभ्राताओं एवं उनके शिष्यों को अपने सङ्ग से आनन्द प्रदान करते थे। विशेषकर हमारे कोलकाता स्थित मठ में वे उत्सवों के अतिरिक्त भी आवागमन करते थे तथा हमें अपने दिव्य सङ्ग का सौभाग्य प्रदान करते थे। आज उनके अन्तरहृदय के निष्कपट स्नेहयुक्त समस्त वचनों का स्मरणकर हृदय अत्यन्त व्याकुल, अधीर हो रहा है। हम श्रील महाराज को परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के ‘कनिष्ठ पुत्र’ के रूप में मनन करते थे, जिनको श्रील प्रभुपाद विशिष्ट आदर एवं हार्दिक स्नेह प्रदान करते थे। अप्रकट के समय श्रील महाराज की आयु प्रायः ७८ वर्ष थी। यद्यपि आयु में वे मुझसे कुछ कनिष्ठ थे परन्तु ज्ञान, गुणों एवं साधन-भजन में वे मुझसे कोटि गुणा अधिक वरिष्ठ थे।
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उनके जीवन का लक्ष्य एवं उसके लिये यत्न
परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के अप्रकट के पश्चात् उनके शिष्य हम गुरुभ्राताओं में परस्पर मतभेद उत्पन्न हो गये तथा एकजुट रहने का भाव क्षीण होने के कारण अनेक गुटों का निर्माण हो गया। परन्तु श्रील महाराज ने अपने सम्पूर्ण जीवन भर श्रील प्रभुपाद का मनोऽभीष्ट पूर्ण करने के लिये सतत प्रयास किया। श्रील प्रभुपाद का निर्देश था, “आप अभी अद्वय-ज्ञान तत्त्व की अप्राकृत इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से आश्रय-विग्रह के आनुगत्य में परस्पर मिलजुलकर रहना।” इस वाणी का अनुसरण किस प्रकार से सम्भवपर हो सकता है, श्रील महाराज उसके विषय में सतत चिन्तायुक्त एवं चेष्टापरायण रहते थे।
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शुद्ध राग-भक्ति के प्रति उनकी सुदृढ़ निष्ठा
श्रील महाराज की नामभजन के प्रति निष्ठा नितान्त आदर्श-स्वरूप थी। अत्यन्त अस्वस्थ-लीला-अभिनय के समय भी उन्होंने प्रतिदिन एक लाख हरिनाम ग्रहण करने का आदर्श स्थापित किया। परमाराध्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील प्रभुपाद दोनों महाजनों ने ही नाम में रुचि के आधार पर ही वैष्णवता का तारतम्य निर्धारित करने का निर्देश दिया है। उन दोनों ने ही नाम-भजन-निष्ठा रहित रागानुगा भक्ति के अभिनय को कदापि राग-भक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया।
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भजन में उत्साह प्रदान करने के लिये प्रार्थना
श्रील महाराज के अभाव में उनके द्वारा स्थापित मठ-मन्दिर मानो निष्प्राण हो गये हैं। हम भी उनके समान एक वैष्णव-सुहृत् के अभाव में मृतप्राय ही हो गये हैं। उनके श्रीचरणों में यही एकान्त प्रार्थना है कि अदृष्ट रहते हुये भी वे अपने आश्रित जनगण में शक्ति का सञ्चार कर उन्हें पुनर्जीवित करें तथा हमको भी अपना कृपा-कटाक्ष प्रदानकर भजन के प्रति उत्साह प्रदान करें। पूज्यपाद माधव गोस्वामी महाराज जो उनके परम सुहृत् गुरुभ्राता हैं, उनके चरणाश्रित उनके समस्त शिष्यवर्ग, उनके मठ के वर्त्तमान अध्यक्ष आचार्य ये सभी ही पूज्यपाद यायावर गोस्वामी महाराज के स्नेहपात्र हैं। वे सभी उनके विरह में कातर होकर उनकी कृपा की प्रार्थना कर रहे हैं। उन सभी के प्रति वे अपने नित्यधाम से ही स्नेहाशीर्वाद वर्षण करें, यही सभी द्वारा सकातर प्रार्थना है।
श्रीचैतन्यवाणी (वर्ष २४, संख्या १०) में प्रकाशित एक लेख से अनुवादित
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