प्रणिपात एवं परिप्रश्न

प्रणिपात का अर्थ है, प्रणत होकर या श्रवण के विषय में किसी भी प्रकार से अमनोयोगी न होकर अर्थात् सम्पूर्णरूप से कान देकर (ध्यानपूर्वक) श्रवण करना ।

इस प्रणिपात के अतिरिक्त श्रवण सुष्ठु (सुचारु) रूप से नहीं होता है – प्रणिपात के अतिरिक्त अधोक्षज वस्तु को जानने का, साधु – गुरु और शास्त्र की कथाओं को समझने का दूसरा कोई उपाय नहीं है ।

जो शब्द मेरे गुरुपादपद्म के निकट पहुँच सकता है, ऐसे शब्दों के द्वारा जो मेरे विज्ञाप्य (प्रार्थना) के विषय हैं, वही परिप्रश्न है। प्रश्न का उत्तर सुनने के लिए प्रस्तुत होकर जो प्रश्न किया जाता है, वही परिप्रश्न है। सन्देहवादी होकर जो प्रश्न की चेष्टा है, वह परिप्रश्न नहीं है। अहंकार के वशवर्ती होकर केवल जो प्रश्न का ढोंग है, वह भी परिप्रश्न नहीं है। प्रणिपात न होने पर परिप्रश्न नहीं होता है, फिर परिप्रश्न के द्वारा विषय की मीमांसा न होने पर सेवा ठीक से नहीं होती है।

श्रीलप्रभुपाद
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शुद्ध-नाम ग्रहण-साधन और कृपा पर निर्भर

“निरपराधे नाम लइले पाय प्रेमधन” (निरपराध होकर नाम लेने से प्रेमधन मिलता है) यह वास्तव सत्य है। शुद्धभाव से श्रीनाम ग्रहण एक दिन में ही नहीं होता है; यह साधन की वस्तु है; फिर कृपा पर भी निर्भर है। दृढ़चित्त होकर निष्ठा के साथ आगे बढ़ने से वांछित फल अवश्य ही लाभहोगा। इसे लेकर मन में किसी प्रकार का संदेह या संशय मत रखना। जन्म (कुल), ऐश्वर्य, श्रुत (विद्या) और श्री (रूप) भजन-साधन के क्षेत्र में प्रतिकूलता लाते हैं और बहुत बाधा-विघ्न उत्पन्न करते हैं; किन्तु निष्कपट, सरल होने पर अतिशीघ्र सुफल मिलता है। संसार में व्यक्तिगत स्वार्थ का संघर्ष रहेगा ही। इसी में रहकर जो अपने अभीष्ट पथ पर चलने का संकल्प ग्रहण करता है, उसकी किसी प्रकार की क्षति की संभावना नहीं है। धैर्य स्थैर्य-सहनशीलता ही जीवन-पथ का श्रेष्ठ ‘पाथेय’ और संबल है। उसके साथ उत्साह, अनुप्रेरणा, विश्वास, आत्म-निर्भरता को अवश्य ही जोड़ना होगा। श्रीभगवान् निश्चय ही प्ररेणा प्रदान करते हैं, उसके द्वारा ही जीव अपने साधन-पथ का निर्णय करता है और जीवन के पथ पर अग्रसर होता है तथा चरम फल प्राप्त करता है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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श्रीमद्भावगत के द्वादश स्कन्ध के द्वादश अध्याय के पचपन संख्यक श्लोक में पाते हैं कि कृष्ण के चरणविन्द की स्मृति जीव के सभी अमंगलों को दूर करती है। जीव रजोगुण एवं तमोगुण से निवृत्त होकर विशुद्ध सत्वत्व को प्राप्त करता है। तीनों गुणों से ऊपर उठे हुए जीव में ही भगवान् के प्रति शुद्ध सेवा की प्रवृत्ति उदय होती है। तब आत्मज्ञान के सम्बन्ध से जीव वास्तविक मंगल को प्राप्त करता है। किन्तु गुरु की अवज्ञा और वैष्णव के चरणों मे अपराध होने से जीव के सभी मंगल नष्ट हो जाते हैं।