श्रीकृष्ण के प्रति शरणागति ही साधु का लक्षण है, जो अपने को साधु बोलते हैं, वे दाम्भिक हैं

कृष्णैकशरण – मात्र कृष्णनाम गाय।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय ।।

कृष्णभक्त – व्यतीत नाहिक साधु आर।
‘आमि साधु’ बलि’ हय दम्भ अवतार ।।

जो श्रीकृष्ण के शरणागत होते हैं, वे हमेशा, श्रीकृष्णनाम – कीर्तन करते रहते हैं तथा श्रीकृष्ण की कृपा के ऐसे शरणागत व्यक्ति ही साधु कहलाते हैं। श्रीकृष्ण भक्त के अतिरिक्त और कोई साधु नहीं होता तथा जो अपने को साधु कहते हैं, वे साधु नहीं होते वे तो घमण्डी होते हैं।

कम शब्दों में साधु-निर्णय

ये बलिबे, अमि दीन, कृष्णैकशरण।
कृष्णनाम या ‘र मुखे, साधु सेइ जन ।।

तृण हैते हीन बलि’ आपनाके जाने।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने ।।

निजे त’ अमानी आर सकले मानद ।
ता’र मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद ।।

जो वास्तविक साधु होता है, भगवद्भक्त होता है, वह कहता है कि मैं तो दीन-हीन हूँ, एकमात्र श्रीकृष्ण की शरण में हूँ एवं उसके मुख से हर क्षण श्रीकृष्ण नाम ही उच्चारित होता रहता है। वास्तविक भगवद् – भक्त अपने का तृण से भी अधिक हीन समझता है तथा वह वृक्ष के समान सहनशील होता है, स्वयं सम्मान की चाहना न रखकर दूसरों को सम्मान देता है। उसके मुख से उच्चारित श्रीकृष्णनाम ही दूसरों के हृदयों में श्रीकृष्ण – प्रेम को प्रकाशित कर सकता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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जो भगवान को चाहते हैं, उनका प्रथम कार्य क्या है

जो वास्तव में भगवान को चाहते हैं, उनका प्रथम कार्य है-दुःसंग का त्याग । दुःसंग या असत्संग का त्याग किये बिना साधुसंग नहीं होता । कृष्णसेवा के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ ही दुःसंग है । शास्त्र कह रहे हैं-

दुःसंग कहिये कैतव, आत्मवञ्चना। अर्थात् कृष्ण और कृष्णभक्ति के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ दुःसंग हैं, जो कपट या आत्मवञ्चना है।

श्रीलप्रभुपाद
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