स्वरूप-लक्षण ही प्रधान लक्षण हैं, इसके आश्रय में तटस्थ लक्षण तो स्वयं ही उदित हो जाते हैं

कृष्णैकशरण हय स्वरूप लक्षण।
तटस्थ – लक्षणे अन्य गुणेर गणन ।।

कोन भाग्ये साधुसंगे नामे रुचि हय।
कृष्णनाम गाय, करे कृष्ण – पादाश्रय ।।

स्वरूप – लक्षण सेइ हइते हइल ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण हइल ।।2

अन्य गुणगण ताइ तटस्थे गणन ।
अवश्य वैष्णव – देहे ह ‘बे संघटन ।।

भगवद् – भक्त के दो प्रकार के लक्षण होते हैं- स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण। श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साधु का स्वरूप लक्षण होता है जबकि जो अन्य गुण हैं- वे तटस्थ लक्षण हैं। सौभाग्य से जब किसी को साधु – संग के प्रभाव से श्रीहरिनाम में रुचि होती है, तब वह श्रीकृष्ण – नाम – संकीर्तन करता हुया श्रीकृष्ण के पादप‌द्मों का आश्रय ग्रहण करता है। ये ही साधु का स्वरूप लक्षण है। श्रीनाम कीर्तन करते करते, हरिनाम करने वाले के अन्दर अन्य जो गुण आ जाते हैं, उन्हीं को तटस्थ लक्षण कहते हैं जो कि वैष्णव देह में अवश्य ही प्रगट हो जाते हैं।

वर्णाश्रम-लिंग और नाना प्रकार के वेश द्वारा साधत्त्व की पहचान नहीं होती, केवल मात्रा श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साध का लक्षण है

वर्णाश्रम – चिह नानावेषेर रचना।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना ।।

श्रीकृष्णशरणागति – साधुर लक्षण।
ता’र मुखे हय कृष्णनाम – संकीर्तन ।।

गृही, बह्मचारी, वानप्रस्थ, न्यासिभेदे।
शूद्र, वैश्य, क्षत्र, विप्रगणेर प्रभेदे ।।

साधुत्व कखन नाहि हइबे निर्णित।
कृष्णैकशरण साधु, शास्त्रेर विहित ।।

वर्णाश्रम – चिन्हों से एंव नाना प्रकार के वेशभूषा की रचना से, साधु के लक्षणों की गणना नहीं होती है। श्रीकृष्ण – शरणागति ही साधु का स्वरूप लक्षण है और श्रीकृष्ण के शरणागत- भक्त के मुख से ही श्रीकृष्ण नाम का संकीर्तन हो सकता है। गृहस्थी, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं संन्यासी के भेद से एवं शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण के प्रभेद से साधुत्त्व का निर्णय कभी भी नहीं किया जा सकता। जो श्रीकृष्ण के शरणागत हैं, वही साधु हैं, यही शास्त्रों का सार सिद्धान्त है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _

जीवन क्षणस्थायी है

भाग्यक्रम से भगवान की कृपा से ही हमने मनुष्य जन्म प्राप्त किया है। यह जन्म सुदुर्लभ है । अगले जन्म में, हम मनुष्य होंगे कि नहीं, यह कोई निश्चित नहीं है । क्योंकि दुर्भाग्य के कारण हम भूत, प्रेत, पिशाच, पशु, पक्षी, कीट भी हो सकते हैं । इन सब जन्मों में भगवान का भजन सम्भव नहीं है । अतः इस जन्म में जितने भी दिन बचे हैं, उन्हें दूसरे कामों में लगाना उचित नहीं है।

जीवन क्षणस्थायी है । यह मनुष्य जन्म अनितय होने पर भी अर्थप्रद अर्थात् भक्तिप्रद है । अतः जीवन रहते-रहते ही शीघ्र से शीघ्र अर्थ अर्थात् परमार्थ प्राप्त कर लेना चाहिए ।

श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _