नाम-अपराध
साधु निन्दा
गदाधरप्राण जय जाहवा – जीवन ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तगण ।।
प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तार।
नाम – अपराध व्याख्या कर अतःपर ।।
हरिदास बले प्रभु मोरे या ‘बला ‘बे।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे ।।
श्रीगदाधर जी के प्राण स्वरूप श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो तथा श्रीमती जाह्नवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि सभी भक्तों की जय हो।
महाप्रभु जी कहने लगे
‘हरिदास जी ! अब तुम नामापराध की विस्तृत व्याख्या करो।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं
‘हे महाप्रभु! आपकी कृपा से मैं वही बोलूँगा जो आप मुझसे बुलवायेंगे।’
दश तरह के नामापराध
नाम – अपराध – दशविध, शास्त्रे कय।
सेइ अपराधे मोर बड़ हय भय ।।
एक एक करि’ आमि बलिब सकल ।
अपराधे वाँचि याते, देह मोरे बल ।।
साधुनिन्दा, अन्यदेवे स्वातन्त्र्य – मनन ।
नाम तत्त्व – गुरु आर शास्त्र – विनिन्दन ।।
हरिनामे अर्थवाद, कल्पित मनन ।
नामबले पाप, श्रद्धाहीने नामार्पण ।।
अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम ।।
नामेते अनवधान हय अपराध ।
ताहाके पुराणकर्त्ता बलेन प्रमाद ।।
नामेर माहात्म्य जाने, तबु नाहि भजे।
‘अहं मम’ आसक्तिते संसारेते मजे ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हमारे शास्त्रों में दस प्रकार के नामापराधों का वर्णन है। सचमुच मुझे तो इन नामापराधों से बहुत डर लगता है। हे प्रभु! एक-एक करके मैं सभी अपराधों के बारे में कहूँगा। बस, आप मुझे ऐसा बल प्रदान करते रहें जैसे मैं इन अपराधों से बचा रहूँ :-
1. भगवान के भक्तों की निन्दा (साधु – निन्दा)।
2. अन्य देवताओं को भगवान से स्वतन्त्र समझना।
3. हरिनाम के तत्त्व को जानने वाले सद्गुरु की निन्दा करना।
4. शास्त्रों की निन्दा करना।
5. नाम में अर्थवाद करना अथवा हरिनाम की महिमा को काल्पनिक समझना और ये मानना कि शास्त्रों में हरिनाम की महिमा को व उसके फल को बढ़ा – चढ़ाकर बताया गया है।
6. हरिनाम के बल पर पाप करना।
7. अश्रद्धालु व्यक्ति को कृष्ण – नाम का उपदेश देना।
8. अन्य शुभकर्मों को हरिनाम के बराबर कहना घोर अपराध है।
9. . दूसरी तरफ ध्यान रखकर हरिनाम करने को हमारे पुराणकर्त्ता ‘प्रमाद’ कहते हैं।
10. हरिनाम की महिमा को जानते हुये भी हरिनाम न करना तथा ‘मैं’ और ‘मेरा’ की आसक्ति से संसार में लिप्त रहना।
हरिनाम चिन्तामणि
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मैं बहुत सेवा कर रहा हूँ, मैंने बहुत सेवा की है, मैं वैष्णव हो गया हूँ-ऐसा सोचना दुर्बुद्धि है । इन सब पागलपन को छोड़कर दीन-हीन होकर कृपा की भिक्षा करते-करते सेवा प्राप्त करने के लिए यत्न करना होगा । गुरुवैष्णवों की सेवा को त्यागकर कृष्ण की सेवा का अभिनय फूटी हांडी में जल रखने के समान ही है । गुरुवैष्णवों की सेवा को त्यागकर कृष्ण की सेवा का छल या हरिनाम करने का अभिनय केवल दाम्भिकता है । सब समय साधुओं के साथ में रहना होगा । दुर्बल होने के कारण मैं सत्संग के बिना बच नहीं पाऊँगा । सब समय साधुओं के साथ में न रहने पर स्वयं ही प्रभु होने की दुर्बुद्धि प्रबल हो जायेगी और नाना प्रकार की दुश्चिन्ताएँ आकर हमें विपत्ति में डाल देंगी ।
श्रीलप्रभुपाद
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श्रीभागवत् के 11 वें स्कन्ध में महाराज निमि और नवयोगेन्द्रों के संवाद में भागवत धर्म का स्वरूप और उसका आचरण विस्तार रूप से वर्णित हुआ है। नवयोगेन्द्रों में से एक कवि नामक मुनि भागवत धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुये कहते हैं ‘ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये । अजः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हितान् ॥’
(भा.11/2/34)
अर्थात् कवि मुनि कहते है कि भगवान ने स्वयं अपने मुख से नासमझ व्यक्तियों को भी अनायास आत्मलाभ अर्थात् अपनी प्राप्ति के जो तमाम आसान-आसान उपाय बताये हैं, उन्हीं को भागवत धर्म समझना। मनु आदि ऋषियों द्वारा प्रणीत धर्म को वर्णाश्रम-धर्म कहते हैं। भागवत् धर्म के वक्ता स्वयं भगवान् हैं, इसलिये भगवान् की प्राप्ति का इससे सुन्दर, सहज व सुगम मार्ग और कोई नहीं हो सकता। आँखें बन्द करके दौड़ने से भी इस राह में न फिसलन है और न पतन ही। कारण, भागवत धर्म के आरम्भ में ही भगवान के चरणों में ली गयी शरणागति की बात है। सर्वशक्तिमान भगवान् जिनके रक्षक और पालक होते हैं, उनके पतन की आशंका भला कहाँ रह जाती है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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