श्रीमन् महाप्रभु जी का कहना है कि श्रीकृष्ण की तटस्था शक्ति से उत्पन्न जीव, श्रीकृष्ण को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से कभी भी नित्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता। कृष्ण-प्रेम ही जीव की प्राप्त करने योग्य चरम वस्तु है। श्रीकृष्ण में प्रीति ही जीव का वास्तविक स्वार्थ है एवं वही श्रीकृष्ण प्रीति ही निस्वार्थपरता एवं परार्थपरता है। श्रीमहाप्रभु जी के अनुसार कलियुग में कृष्ण-प्रीति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है-श्रीकृष्ण नाम- संकीर्त्तन । श्रीकृष्ण नाम- संकीर्तन में स्थान या समय आदि का कोई विचार नहीं है। किसी भी जाति-वर्ण के स्त्री-पुरुष, बालक-युवा व वृद्ध – सभी जीव श्रीकृष्ण नाम कर सकते हैं।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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स्वयं को अन्यों द्वारा किये गये उग्र व्यवहार के लिये उत्तरदायी मानना

एक समय श्रील भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज अपने एक गुरुभ्राता का दर्शन करने के लिये गये, किन्तु उनके गुरुभ्राता ने उनसे भेंट नहीं करके अपने सेवक के माध्यम से एक सौ रुपये प्रणामी भेजकर उन्हें विदाई दी। श्रील पुरी गोस्वामी महाराज वहाँ से तो लौट आये किन्तु उन्होंने सम्पूर्ण दिवस अन्न-जल का त्यागकर उपवास किया। उन्होंने उस प्रणामी को ठाकुरजी के भेंट-पात्र में डाल दिया तथा स्वयं के लिये एक रुपया भी व्यवहार नहीं किया।

जब मैंने उनसे उनके उपवास का कारण पूछा तब उन्होंने मुझे बतलाया, “मैं वैष्णव-दर्शन करने गया था, दर्शन हुआ नहीं, मैं अपराधी होने के कारण वैष्णव-दर्शन से वञ्चित हुआ हूँ, अतएव प्रायश्चित स्वरूप उपवास अर्थात् सब प्रकार के कार्यों से सम्पूर्ण रूप से निवृत्त होकर हरिनाम कर रहा हूँ। श्रीचैतन्य-भागवत (मध्य-खण्ड ८.१९७) के अनुसार ‘सर्व महाप्रायश्चित्त जे प्रभुर नाम अर्थात् प्रभु का नाम करना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है।”

मैंने उनसे कहा, “इसमें आपका तो नहीं बल्कि दर्शन नहीं देने वाले का ही अपराध प्रतीत होता है।”

श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित कल्याण-कल्पतरु (उच्छवास २.७.६) ग्रन्थ में से कीर्त्तन के एक पद को उद्धृत करते हुए उत्तर दिया, “वैष्णव चरित्र सर्वदा पवित्र अर्थात् वैष्णव का चरित्र सदैव पवित्र होता है, अतएव हमें वैष्णवों के द्वारा वैसा व्यवहार करने पर भी इसमें ‘तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्ष्यमाणो’ श्लोकानुसार स्वयं सुसमीक्षा कर इसे अपने ही कर्म का फल स्वीकार कर सदा भगवान् की कृपा पर निर्भर रहना चाहिये।”

श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज

श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज जी द्वारा सञ्चित
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यद्यपि सामान्य व्यक्ति उचित एवं अनुचित व्यवहार की बाह्य अभिव्यक्ति को ही लक्षित करते हैं परन्तु दूरदर्शी व्यक्तियों की दृष्टि बाह्य व्यवहारिक क्रियाओं के परे भी दर्शन करती है। ऐसे व्यक्ति यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि दूसरे व्यक्ति की हृदयगत अवस्था क्या है एवं भविष्य में उसकी क्या स्थिति होने वाली है।

श्रील भक्तिकुमूदसन्त गोस्वामी महाराज
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