जितनी मात्रा में अनर्थ नष्ट होते हैं, उसी मात्रा में नामाभासत्त्व दूर होता है तथा चिन्मय नाम प्रकाशित होता है
नामाभास भेदि’ शुद्ध नाम लभिवारे।
सद्गुरू सेविवे जीव यत्न सहकारे ।।
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जिह्वाय ।।
जितनी मात्रा में अनर्थ नष्ट होते हैं, उसी मात्रा में नामाभासत्त्व दूर होता है तथा चिन्मय नाम प्रकाशित होता है। नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि नामाभास छोड़कर शुद्ध नाम को प्राप्त करने के लिए जीव को यत्न के साथ सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए। भजन करते-करते जिस समय सारे अनर्थ नाश हो जाते हैं, उसी समय चित्-स्वरूप श्रीहरिनाम भक्त की जिहा पर नृत्य करता है।
नाम से अमृत – धारा नाहि छाड़े आर।
नामरसे मत्त जीव नाचे अनिवार ।।
नाम नाचे, जीव नाचे, नाचे प्रेमधन।
जगत् नाचाय, माया करे पलायन ।।
हरिनाम तो अमृत की धारा है, इसे पान करके, उसे छोड़ने का विचार ही नहीं होता। जीव तो हरिनाम के आनन्द में मत्त होकर अवश्य ही नृत्य करने लगता है। श्रीहरिनाम के प्रभाव से जीव तो नाचता ही है, जीव के हृदय में श्रीकृष्ण – प्रेम भी उसके साथ नृत्य करता है। यही नहीं ऐसा भक्त स्वयं तो नाचता ही है, साथ ही जगत् के लोगों को भी नचाता है और ऐसे में माया तो वहाँ से कोसों दूर चली जाती है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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हमारा दुर्भाग्य क्या है
कृष्ण की सेवा की चेष्टा को छोड़कर अपने सुखदायक वस्तुओं का संग्रह करना ही हमारा मूल रोग है । हमें विषयरस अच्छा लगता है, परन्तु सभी विषयों के भी विषय कृष्ण की सेवा हमें अच्छी नहीं लगती यही हमारा दुर्भाग्य है। पीलिये के रोगी को मीठी मिश्री भी कड़वी लगती है, उसी प्रकार विषयों में आसक्त होने से मधुर से भी मधुर कृष्णनाम और कृष्णसेवा में हमारी रुचि नहीं होती । यदि शरीर में विष चढ़ जाए तो शहद भी कड़वा लगता है । मिश्री ही पीलिया रोग की औषधि है । मिश्री खाते-खाते धीरे- धीरे जब रोग दूर होने लगता है, तो क्रमशः वही मिश्री मीठी लगने लगती है । उसी प्रकार अनर्थग्रस्त होने के कारण इच्छा न होने पर भी यदि कृष्णनाम और कृष्ण की सेवा की जाए, तो क्रमशः बहिर्मुखता दूर होने लगती है तथा संसार के प्रति आसक्ति कम होने लगती है । फलस्वरूप भगवान के नाम और उनकी सेवा में रुचि होने लगती है । उस समय कृष्णनाम – माधुर्य स्वयं ही प्रकाशित होकर हमें चिन्मय इन्द्रियों के द्वारा भगवान की सेवा में नियुक्त कर देते हैं ।
श्रीलप्रभुपाद
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किसका सँग मेरे लिये हितकर है
उपवास करने से अर्थात् व्रत में भूखा रहने से ही क्या खाने की प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी? विषयों को ग्रहण न करने पर भी उन्हें ग्रहण करने की प्रवृत्ति दूर नहीं होगी। श्रेष्ठ-रस का आस्वादन होने से निकृष्ट रस का मोह अपने आप हट जाता है। भगवत् प्रेम रस का आस्वादन होने से कृष्णेतर रस के प्रति मोह नहीं रहता। इसे ही युक्त वैराग्य कहते हैं। इसीलिये युधिष्ठिर महाराज जी को नारदजी ने उपदेश करते हुये कहा था :-
“- येनकेनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ।
(भा.7/1/31)
अर्थात् हे महाराज युधिष्ठिर! किसी भी तरह मन को कृष्ण में लगा दो। मैं वैराग्य कर रहा हूँ, संकल्प-विकल्पात्मक मन का संग कर रहा हूँ, किन्तु श्रीकृष्ण का संग नहीं कर रहा हूँ, उससे मेरा क्या फायदा होगा? मेरी जो पूजा कर सकता है, स्तव, स्तुति कर सकता है, उसका संग मेरे लिये हितकर नहीं है। जो शासन करता है, नियन्त्रण करता है मेरी गलतियाँ दिखाता है, उसका सँग ही मेरे लिये हितकर है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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निष्काम सेवा परायणता ही भक्ति है, इसीलिए भक्त का हृदय भगवान का विश्राम-स्थल
भक्ति ऐसी वस्तु है कि, भगवान् स्वयं भक्त के वश में आकर भक्त के सेवक का कार्य भी कर देते हैं। किन्तु वसुदेव ने नारद से कहा कि, आप मुझे ऐसा उपदेश दें ताकि भगवान् की सेवा करने के लिए मैं हमेशा उन्हें पुत्र के रूप में रख सकूँ। वात्सल्य का स्वभाव- स्नेह के पात्र के प्रति हमेशा ध्यान केन्द्रित रखना, ‘कहीं मेरे पुत्र का किसी प्रकार से अमंगल न हो जाय’ इसी चिन्ता से परेशान रहना। वसुदेव सदैव भक्तवत्सल भगवान् को नित्यकाल तक अपने पास रखने के लिए प्रयासरत हैं।
“भक्तेर हृदये सदा गोविन्देर विश्राम।” (अर्थात् भक्त के हृदय में हमेशा गोविन्द विश्राम करते हैं।) यहाँ ‘विश्राम’ शब्द का विशेष तात्पर्य है। कामी व्यक्तियों की कामना पूरी करते-करते भगवान् परेशान होकर थक जाते हैं। किन्तु भक्त के हृदय में किसी प्रकार की कामना-वासना नहीं रहने पर भगवान् वहाँ विश्राम लेते हैं। वसुदेव जगत को शिक्षा दे रहे हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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यदि तुम वैष्णवों के आनुगत्य में रहते हो तो तुम्हारे लिए सब कुछ ही है और आनुगत्य-विहीन होने पर “शून्य ग्रंथि आँचले बंधन” ( साड़ी के आँचल में दी हुई गाँठ, जिसके अंदर कुछ नहीं है अर्थात् दिखावटी। )
जैसा होगा।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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