काम तथा कामदेव एक साथ नहीं रह सकते

श्रीनाम साक्षात् भगवान हैं । श्रीनाम शब्द – ब्रह्म हैं । ब्रह्मवस्तु श्रीनाम को मैं Regulate नहीं कर सकता, श्रीनाम ही मुझे Regulate करेंगे, मुझपर कृपा करेंगे, मेरा उद्धार करेंगे । यदि साधु-गुरु की कृपा से यह जानने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय कि मैं श्रीनाम का सेवक हूँ, तो हृदय में कनक, कामिनी और प्रतिष्ठा प्राप्ति की इच्छा रह ही नहीं सकती । जो कनक, कामिनी और प्रतिष्ठा के जबड़े से मुक्त हो गये हैं, उनके मुख से ही शुद्धनाम उच्चारित होता है । शुद्धसत्ता में ही शुद्धनाम की स्फूर्ति होती है । कृष्णनाम साक्षात् कामदेव हैं। काम तथा कामदेव एक साथ नहीं रह सकते ।

श्रीलप्रभुपाद
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जो वस्तु चेतन है, उसमें तीन लक्षण पाये जायेंगे – इच्छा, क्रिया और अनुभूति । अचेतन अर्थात् जड़ वस्तु में इच्छा, क्रिया और अनुभूति नहीं होती। जिसमें इच्छा, क्रिया और अनुभूति है, उसे व्यक्ति रूप से स्वीकार करना ही होगा, चाहे वह वस्तु छोटी से छोटी हो या बड़ी से बड़ी। मैं यदि अचेतन होता तो मुझ में अनुभव नहीं होता, क्योंकि मुझ में अनुभव है, इसलिये मैं चेतन हूँ। ज्ञान होने पर मुझ में सर्वज्ञता व सर्वव्यापकता हर समय विद्यमान रहती। पूर्ण ज्ञान एक है- दो, तीन नहीं – ‘एकमेवाद्वितीयम्’; पूर्ण के बाहर यदि परमाणु का भी अस्तित्व मान लिया जाये तो पूर्ण-पूर्ण नहीं रहता। पूर्ण का ही दूसरा नाम असीम है। असीम के बाहर कुछ है-ऐसा मानने से असीम सीमित हो जाएगा; क्योंकि असीम एक है और जितनी भी वस्तुएँ हैं, सभी उसके अन्दर हैं, अधीन हैं। मैं यदि असीम होता तो सब वस्तुएँ मुझ में रहतीं और मैं सभी का नियन्ता (controller) होता। मैं सर्वशक्तिमान नहीं हूँ, सर्वव्यापक, भूमा चेतन भी नहीं हूँ किन्तु चेतन ज़रुर हूँ। पाश्चात्य दार्शनिक लोग Absolute की परिभाषा देते हुये कहते हैं- Absolute is for itself and by itself, अर्थात् ‘पूर्ण अपने लिये है, और सब वस्तुएँ उसके लिए हैं।’

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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गौड़ीय वैष्णवों के जिस आचार-विचार का श्रील प्रभुपाद जी ने प्रवर्त्तन किया है, उसका सब प्रकार से संरक्षण करना होगा। उससे कोई स्वेच्छा से हुआ हो या अनिच्छा से हुआ हो, पतित या भ्रष्ट होने पर उसका संशोधन करने की चेष्टा करनी होगी। संशोधन की सम्भावना नहीं रहने पर उसे दुःसंग समझकर त्याग देना होगा अथवा विशेष परिस्थिति में उससे निरपेक्ष होकर रहना होगा।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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गुरुसेवा की वस्तु हरण करने वाले का कृकलास (गिरगिट)-जन्म

सद्गुरु या सज्जनों की आवश्यक सद्‌गुणावली, जिसका विवरण भागवत में दिया गया है, उसका अध्ययन करने से ईर्ष्या-हिंसा-मात्सर्य आदि की भावना कम हो जाती है। सेवकों को जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह सब ही गुरुसेवा के उपकरण हैं— उन्हें अपनी सम्पत्ति मान लेने से गुरु-वैष्णव-भोगी होकर कृकलास (गिरगिट) का जन्म लेना पड़ता है। जैसे भी हो नीति-आदर्श ग्रहण करने से ही हमारा मंगल है। दूसरों की समालोचना न करके आत्म-संशोधन की चेष्टा ही मंगलदायक है। दूसरों के सद्‌गुणों को स्वयं अपनाना ही उदारता है। “आप्भाल तो जगत् भाल” (आप भला तो जग भला)।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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