अपराध मायावादी को कब छोड़ते हैं
तबे यदि मायावादी भुक्ति – मुक्ति – आश !
छाड़िया करये नाम ह ‘ये कृष्णदास ।।
तबे ता रे छा ‘ड़े मायावाद – दुष्टमत ।
अनुताप सह हय नामे अनुगत ।।
साधुसद्धे करे पुनः श्रवण – कीर्तन ।
सुसम्बन्ध – ज्ञान तार उदे ततक्षण ।।
अविश्रान्त नाम करे, पड़े चक्षुजल ।
नामकृपा पाय, चित्त हय त’ सबल ।।
हाँ, यदि मायावादी भोग और मोक्ष की इच्छा को छोड़कर, स्वयं को श्रीकृष्ण का दास समझकर व पश्चाताप के साथ हरिनाम करता है तो मायावाद रूपी दुष्ट मत से उसका छुटकारा हो जाता है। इतना ही नहीं, साधु-संग करते हुये जब वह भगवद्-कथा श्रवण एवं कीर्तन करता है तो उसके हृदय में सम्बन्ध ज्ञान का अनुभव उदित होता है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जब वह सम्बन्ध-ज्ञान के साथ निरन्तर हरिनाम करता रहता है तो उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है। वह हरिनाम की कृपा को प्राप्त करता है तथा उसका चित् आत्मबल से परिपूर्ण हो जाता है।
भक्ति को अनित्य बोलने के कारण ही मायावाद रूपी अपराध होता है
कृष्ण रूप – कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब ।।
हेन मायावाद नाम – अपराधे गणि।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि ।।
श्रीकृष्ण की शक्ति के अंश स्वरूप जीव का, श्रीकृष्ण की सेवा करना ही स्वभाव होता है जबकि मायावादी इसे अनित्य और कल्पित समझते हैं। ऐसे मायावाद की नाम अपराध के अन्तर्गत गणना होती है। गम्भीरता से देखा जाये तो यह मायावाद तमाम मुसीबतों की खान है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रेय का ही अनुशीलन
आपलोग श्रीमद्भागवत की कथा सुनें । श्रीमद्भागवत कह रही है-अनेक जन्मों के बाद मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है, अतः यह अत्यन्त दुर्लभ है । मनुष्य जन्म अनित्य होने पर भी परमार्थप्रद है । स्वतन्त्रता का परित्याग कर शरणागत होकर निष्कपटरूप में भजन करने पर इसी जन्म में भगवान की प्राप्ति हो सकती है । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति मृत्यु से पूर्व ही क्षणमात्र भी विलम्ब न कर चरम – कल्याण प्राप्त करने के लिए यत्न करेंगे । आहार – विहार आदि सभी जन्मों में पाये जाते हैं, किन्तु परमार्थ (भक्ति) अन्य जन्मों में नहीं पायी जा सकती । हमारा कोई भी जन्म क्यों न हो, विषय सभी जन्मों में प्राप्त हो जायेंगे । मनुष्य न होने पर भी विषय सभी जन्मों में पाये जायेंगे, इसलिए मनुष्य जन्म में श्रेय (आत्म-कल्याण) का ही अनुशीलन करना चाहिए ।
श्रीलप्रभुपाद
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