छाया नामाभास और प्रतिबिम्ब नामाभास में भेद
छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान।
हृदय – दौर्बल्य हैते अनर्थ – विधान ।।
सेइ सब दोष नाम करेन मार्जन।
प्रतिबिम्ब – नामाभासे दोषेर वर्द्धन ।।
छाया नामाभास में केवल अज्ञान ही होता है, ये अनर्थ हृदय की दुर्बलता से ही होता है। एकमात्र हरिनाम ही ऐसी साधना है जिससे सारे दोष समाप्त हो जाते हैं जबकि प्रतिबिम्ब नामाभास में ये दोष बढ़ जाते हैं।
मायावाद और भक्ति-परस्पर विपरीत-धर्म हैं-मायावाद ही अपराध है
कृष्ण – नाम – रूप-गुण- लीलादि सकल।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल ।।
सेइ मते प्रेमतत्व नित्य नाहि हय।
भक्ति – विपरीत मायावाद सुनिश्चय ।।
भक्तिवैरी – मध्ये मायावादेर गणन।
अतएव मायावादी अपराधी हन ।।
मायावादियों के मतानुसार श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण व लीला आदि सभी झूठे तथा नाशवान हैं। इनके मतानुसार भगवद् – प्रेम – तत्त्व नित्य नहीं होता, इसीलिए यह मायावादी मत शत-प्रतिशत भक्ति मार्ग के विपरीत है। भक्ति के शत्रु के रूप में मायावाद की गणना होती है, इसीलिए मायावादी भगवद् – चरणों में अपराधी होते हैं।
मायावादिमुखे नाम नाहि बाहिराय।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय ।।
मायावादी यदि करे नाम – उच्चारण।
नामके अनित्य बलि’ लभये पतन ।।
नामेर निकटे भोग – मोक्षेर प्रार्थना।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना ।।
मायावादी के मुख से भगवान का नाम नहीं निकलता या यूँ कहें कि उनके मुख से भगवद् नाम निकलने पर भी वह नामत्त्व को प्राप्त नहीं होता अर्थात् मायावादी द्वारा किया हुआ हरिनाम फलीभूत नहीं होता। मायावादी यदि भगवान के नाम का उच्चारण भी करता है तो वह मन ही मन में भगवद् – नाम को अनित्य समझता है जिससे उसका पतन हो जाता है। हरिनाम करते हुये मन में श्रीहरिनाम से दुनियावी भोगों की व मोक्ष की प्रार्थना करना हरिनाम के प्रति धूर्तता है जिसका परिणाम दुःख होता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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दुर्बलचित्त एवं अपराधी में भेद है
दुर्बलचित्त एवं अपराधी एक ही श्रेणी में नहीं आते । यद्यपि चित्त की दुर्बलता ही कुछ समय पश्चात् अपराध में बदल सकती है, तथापि हृदय की दुर्बलता की अवस्था में कामनारूप पाप एवं अपराधों के प्रति घृणा रहती है। परन्तु दुर्बलचित्त व्यक्ति पाप एवं अपराध को अत्यन्त अन्यायपूर्ण जानकर भी उसको परित्याग करने में असमर्थ होता है, जबकि अपराधी व्यक्ति इन सबको हानिकारक या अन्यायपूर्ण मानता ही नहीं है। वह सोचता है कि वह जो कुछ करता है या जो समझता है वही ठीक है, बल्कि साधुओं से ही समझने में भूल हुई है ।
यदि दुर्बलचित्त व्यक्ति कामनाओं को आदर एवं रुचिपूर्वक ग्रहण नहीं करके उनसे घृणा करते-करते उनका परित्याग कर देते हैं, तो समझना चाहिए कि उन पर कृष्ण की कृपा हो रही है। नहीं तो कृष्ण की कृपा से वञ्चित होना पड़ेगा ।
श्रीलप्रभुपाद
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अपने सांसारिक जीवन के लिये परमार्थ को नष्ट नहीं करना।
आपके समाज में या रिश्तेदारों में यदि किसी ने भी उच्चशिक्षा प्राप्त नहीं की तो क्या आपने भी उच्च शिक्षा से परहेज रखा? इसी प्रकार यदि आपके रिश्तेदारों में से किसी को भी पारमार्थिक शिक्षा में उन्नत अधिकार प्राप्त न हुआ हो तो इस कारण से उनकी तरह आप को भी परमार्थ के सम्बन्ध में अशिक्षित रहना होगा, कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा नहीं कहेगा। वरन् आप अपने उन्नत आदर्शमय जीवन के द्वारा अपना व अपने परिवार और अपने समाज का हित करें। अपने सांसारिक जीवन के लिये परमार्थ को नष्ट नहीं करना। सांसारिक सुख-स्वछन्दता द्वारा लोगों को आप कितना खुश कर सकते हो और वह खुशी कितने थोड़े समय तक रहेगी और इससे आपका और उनका कितना कल्याण होगा? ये विशेष रूप से सोचना चाहिये। किसी भी समय मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। इसलिये ऐसी तथाकथित सहानुभूति उसके पश्चात् भी कार्य-कारी या सहायक होगी क्या? मृत्यु के साथ-साथ ही देह-सम्बन्धी पृथ्वी के सभी वैभव व सुख यहीं पर पड़े रह जायेंगे और हमें उनके संग से वन्चित होना पड़ेगा।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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कर्म मार्ग में जीवों की विपरीत फल प्राप्ति
अज्ञानी जीव जन्म-जन्मान्तर से कर्म मार्ग पर ही विचरण करता आ रहा है। लेकिन उस मार्ग पर वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सका बल्कि उसके भाग्य में विपरीत फल ही प्राप्त होता है। वेदान्त सूत्र में कहा गया है, – “कृतात्ययेऽनुशयवान् दृष्ट-स्मृतिभ्याम् ।” श्रीमद्भागवत में भी यही बात कही गयी है-“कर्माण्यरभमानानां दुःखहत्यै सुखाय च। पश्येत् पाक-विपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम्।।” जगत में मनुष्य का एक ही लक्ष्य है-दुःख का नाश और सुख की प्राप्ति। इसीलिए उन्होंने कर्ममार्ग का चयन किया है। किन्तु परिणाम देखते हैं-उल्टा । शास्त्रकारों ने इसीलिए कर्ममार्ग को निरर्थक बताया है और उस मार्ग में विचरण करने से मना किया है। क्योंकि, बीमारी का diagnosis ना कर, दवा खाने से, कोई भी दवां काम नहीं करती है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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श्रीगुरु-वैष्णवों की कृपा अंतःस्थल से अनुभव करने की वस्तु है। जिनका जड़ अहंकार है, वे इसे कभी भी अनुभव नहीं कर सकते हैं।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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उपवास ही वास्तव में महोत्सव है
उपवास में कष्ट का अनुभव करना जागतिक देह-स्मृति का लक्षण है।
अप्राकृत आनन्दमय (भगवान) के आविर्भाव की प्रतीक्षा करने में किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति हो ही नहीं सकती। सूर्योदय के पहले ही जैसे सूर्य के आभास मात्र से समस्त जगत् से अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार कृष्ण के आविर्भाव की चिन्ता अथवा सेवा में मग्न रहने से जीवों के : सब प्रकार के सांसारिक दुःखों का अन्त हो जाता है। सूर्योदय के आभास में ही जो प्रकाश देखा जाता है अर्थात् अरुणोदय काल का इतना माहात्म्य है कि उसका शीतल स्निग्ध प्रकाश, पूर्णिमा के प्रकाश की अपेक्षा अधिक होता है एवं वह जीवों में ज्ञान का उद्गम भी कराता है। इस प्रकार कृष्ण की जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में कृष्ण के आविर्भाव से पहले तक उपवास करने से ही जीवों का अज्ञान-अन्धकार दूर हो जाता है तथा दिव्य ज्ञान का उदय होता है। अतएव जन्माष्टमी का उपवास वास्तव में महोत्सव ही है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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