अनन्त जीवन वेदान्त पढ़ने से मुक्ति नहीं होगी । अनन्त काल नाक दबाकर जमीन से दस बीस हाथ ऊपर उठने पर भी मंगल नहीं होगा, परन्तु स्वयं भागवत स्वरूप भक्तों के मुख से श्रीमद्भागवत कथा श्रवण करने से संसार के सभी जीवों का मंगल निश्चित रूप से होगा ।
श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _
भगवान् नित्य हैं, जीव भी नित्य हैं तथा उनका परस्पर स्वामी और सेवक का सम्बन्ध भी नित्य ही है। भगवान् की भक्ति ही जीव का प्रयोजन है। इसे ही सनातन धर्म, वैष्णव – धर्म या आत्म- धर्म कहते हैं। सनातन धर्म व्यापक है, विभु है, विराट है, विशाल है। जबकि ब्राह्मण व क्षत्रिय अदि वर्ण तथा गृहस्थ व संन्यास आदि आश्रम – धर्म, इस आत्म – धर्म तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र हैं।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _
दूसरे लोग तो निमित्त हो सकते हैं, परन्तु कारण नहीं
हमारा बन्धन में होना व त्रिताप – ग्रस्त होना ही हमारी श्रीकृष्ण-विमुखता का प्रमाण है। श्रीकृष्ण से हमारे नित्य – सम्बन्ध की विस्मृति ही, हमारे दुःखों का मूल कारण है। सुकृतिवान एवं सौभाग्यशाली जीव ही शुद्ध भक्तों के सम्पर्क में आकर ऐसा जान पाते हैं कि स्वरूप में वे श्रीकृष्ण के नित्य- दास हैं तथा श्रीकृष्ण से अपने नित्य-सम्बन्ध की विस्मृति के कारण ही वे माया के जाल में फँस गए हैं। अब यदि वे श्रीकृष्ण के पाद – पद्मों का पूर्ण आश्रय ग्रहण करें तो वे इससे छूट जाएँगे। जीव भगवान के अणु – चेतन अंश हैं, इसी कारण उन्हें इच्छा, क्रिया व अनुभूति की योग्यता प्राप्त है। परन्तु उन्हें प्राप्त अणु- स्वतन्त्रता का दुरुपयोग ही उनकी श्रीकृष्ण – विमुखता का कारण है।
श्रीकृष्ण जीव की अणु-स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसा करने से जीव के अस्तित्व का प्रयोजन ही नष्ट हो जाएगा। अतः श्रीकृष्ण व उनके भक्तजन सदैव जीवों को परामर्श देने एवं समझाने का प्रयास करते हैं ताकि वे स्वेच्छा से श्रीकृष्ण के शरणागत हो जाएँ। “हम नहीं जानते कि हम अपने मूल गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कब विमुख हुए। इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि हम भगवान श्रीकृष्ण से अपने सम्बन्ध को अनादिकाल से भूले हुए हैं। अपनी अणु – स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने के कारण जब से हम श्रीकृष्ण से विमुख हुए हैं, तभी से श्रीकृष्ण की माया (बहिरंगा भौतिक प्रकृति) ने हमें जकड़ लिया है और इसी कारण हम जन्म – मृत्यु के अनन्त चक्र से गुज़र रहे हैं।
“हम अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों के फल का भोग करते हैं। हमें अपने ही कर्मों के कारण मिलने वाले दुःखों के लिए दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए। दूसरे लोग तो निमित्त हो सकते हैं, परन्तु कारण नहीं। कर्म (प्रारब्ध कर्म), जिसका फल भोग प्रारम्भ हो चुका है, को त्यागी अथवा गृहस्थी को प्रसन्नतापूर्वक भोग लेना चाहिए।” “केवल शुद्ध- भक्ति या केवल शुद्ध नाम ही प्रारब्ध कर्म के फल तक को भी नष्ट कर देता है।”
श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _
जो भगवान से विमुख है एवं जिसकी इन्द्रियाँ संसारिक विषयों में लगी हुई हैं, वही वैष्णवों में दोष देखता है। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे भक्त का कभी भी विनाश नहीं होता- ‘न मे भक्तः प्रणश्यति’। जो अनन्यभाव से भगवान का भजन करते हैं, क्या कभी उनका अमंगल हो सकता है? नहीं! हमारी दृष्टि में ही दोष है, इसीलिए हमें वैष्णवों में भी दोष दिखाई पड़ते हैं। तभी हम वैष्णव – अपराध कर बैठते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वैष्णव- अपराध को नष्ट करने की शक्ति श्रीकृष्ण में भी नहीं है। वैष्णव – अपराध तो एक ही प्रकार से नष्ट हो सकता है कि जिनके श्रीचरणों में अपराध हुआ है यदि वे क्षमा कर दें तो। अन्यथा कोई उपाय नहीं है, जिसके द्वारा वैष्णव- अपराध के फल से बचा जा सके। ठीक वैसे ही जैसे महाराजा अम्बरीष के चरणों में अपराध करने पर दुर्वासा ऋषि को त्रिभुवन में कहीं भी शरण नहीं मिली थी। अन्त में महाराज अम्बरीष के चरणों में शरण लेने पर ही वे सुदर्शन चक्र के कोप से बच पाए थे।
श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _
परम – आराध्य, श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने लिखा है कि जो व्यक्ति अपना मंगल चाहते हैं उन्हें निम्न लिखित शिक्षणीय विषयों को अपने चित्त में धारण करना चाहिए तथा पालन करना चाहिए
1) दूसरे के दोषों को ढूंढते रहना, विशेष भाव से विष्णु व वैष्णवों के दोषों को ढूंढना अथवा उनकी निन्दा करना भक्ति के प्रतिकूल-होता है। साधकों को चाहिए कि वे दूसरों के दोषों को ढूंढने के स्वभाव को परित्याग करके अपनी कमियों की ओर ध्यान दें। ऐसा करने से ही वे संशोधित होकर भजन के रास्ते में अग्रसर हो पायेंगे-
“यदि वैष्णव – अपराध उठे हाती माता।
उपाड़े वा छिण्डे तार शुखि याय पाता।।”
अर्थात्ः यदि वैष्णव अपराध रूपी मतवाला हाथी आ जाये तो वह भक्तिलता को उखाड़ फेंकता है जिससे वह सूख जाती है। श्रील रूप गोस्वामी को अवलम्बन करके महाप्रभु जी की ये शिक्षा शुद्धभक्ति चाहने वाले साधकों को हमेशा याद रखनी चाहिए।
2) सद्गुरु के चरणाश्रित सभी शिष्य एक बराबर नहीं होते। बाहरी रूप से गुरु पदाश्रय करते हुए मन्त्र ग्रहण करने से ही उसकी गिनती वास्तविक शिष्यों में अथवा सशिष्य के रूप में नहीं होती। स्निग्ध व सेवापरायण शिष्य पर ही गुरु कृपा करते हैं या यूँ कह सकते हैं कि स्निग्ध व सेवापरायण शिष्य ही गुरु-कृपा प्राप्त कर सकते है। अपना निश्चित कल्याण चाहने वाले साधकों को चाहिए कि वे श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा निर्देशित चौंसठ प्रकार के भक्ति अंगों में से ‘विश्रम्भेन गुरोः सेवा’ रूपी भक्ति के अंग का विशेष रूप से चिन्तन करें।
3) गुरु वैष्णवों की मर्यादा लंघन करना भक्ति साधन – पथ के प्रतिकूल है। ‘मर्यादालंघन प्रभु सहिते न पारेन’- अर्थात् कोई अपने से बड़ों की मर्यादा का उल्लंघन करे, यह महाप्रभु जी को सहन नहीं होता- इसे स्मरण रखें। दुर्भाग्य से ही अनर्थयुक्त जीव भगवान की माया से मोहित होकर अपने आपको श्रेष्ठ व ज्ञानी मानता है तथा इसी घमण्ड से गुरु-वैष्णवों को सुधारने व उन्हें उपदेश देने की धृष्टता करता है।
4) ठीक तरह से भक्ति में उन्नति करने की जिनकी इच्छा है वे स्निग्ध तथा स्वजातीय वैष्णवों का संग करेंगे तथा उनकी सेवा करेंगे-
‘स्वजातीयाशये स्निग्धे साधौ संगः स्वतो वरे’
विष्णु – वैष्णव सेवा परायण साधु के संग से ही विष्णु – वैष्णव सेवा की प्रवृत्ति बढ़ती है।
5) गुरुदेव का सम्बन्ध धारण करने वाले गुरुजी के गुरुभाई भी गुरुजी की तरह पूज्य हैं। उन्हें हमेशा मर्यादा प्रदान करना ही कर्तव्य है। उनका आदेश व निर्देश उचित न लगने पर भी उनके साथ रूरखा व्यवहार नहीं करना चाहिए और न ही उन पर शासनात्मक वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए। स्वयं श्रीमन्महाप्रभु जी ने ये आचरण करके शिक्षा दी –
‘गोरार आमि, गोरार आमि मुखे बलिले नाहि चले।
गोरार आचार गोरार विचार लइले फल फले।।’
अर्थात्ः मैं गौरांग महाप्रभु जी का हूँ मैं गौरांग महाप्रभु जी का हूँ- सिर्फ मुंह से बोलने से नहीं चलेगा। श्रीगौरांग महाप्रभु जी का जो आचरण है व श्रीगौरांग महाप्रभु जी के जो विचार हैं उन पर अमल करने से ही सही रूप में उनका हुआ जायेगा।
कहने का मतलब ये है कि हम जितना भी भजन करें वह हमारी अपनी साधना है परन्तु हर तरह से सावधान रहें कि भगवान के भक्त के प्रति हमारा अपराध न हो जाए। अन्यथा सब किये कराये पर पानी फिर जाएगा।
_ _ _ _ _ _ _ _ _
हरिभजन की साधना करने वाले लगभग हर साधक का ये प्रश्न होता है कि हमारा मन बड़ा चंचल है, इसे भगवद्-भजन में कैसे लगायेंगे?
श्रीमद् भगवद् गीता जी के छटे अध्याय के 34वें श्लोक में अर्जुन भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न करते हैं-
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।
(गीता 6-34)
अर्थात् हे प्रभु श्रीकृष्ण ! ये मन तो बड़ा ही चंचल है। किस तरह से इसे आपके भजन में लगाया जाये। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि ये तो बहुत ही बलवान है। इसे वश में करना तो वायु से भी ज्यादा कठिन है। इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(गीता-6-35)
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं- इसमें कोई संशय नहीं है कि मन को वश में करना कठिन है। परन्तु हे महाबाहु अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इस मन को वश में किया जा सकता है।
यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण के ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’ के कहने का तात्पर्य है कि अपने करोड़ों जन्मों के संस्कार व विषय भोगों में सुख के भ्रम के कारण बार-बार हमारा मन विषयों में चला जाता है। इस मन को बार-बार विषयों से हटाकर भगवान में लगाना होगा। मन को बार-बार खींचने की इस प्रक्रिया को ‘अभ्यास’ कहते हैं।
संसार के विषयों में सुख नहीं है। इन क्षणिक सुखों का परिणाम वैसे भी दुःख ही होता है। यदि विषयों में आनन्द होता तो उसे तो लगातार बढ़ते रहना चाहिए था। जैसे किसी को रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है। 10-12-14 रसगुल्ले लाकर उसके सामने रख दिये जायें। तो एक समय ऐसा भी आएगा जब वह स्पष्ट रूप से बस और नहीं, और नहीं- कह देगा। वैसे भी संसार के विषय भोग अनित्य हैं और साथ ही दुःखमय हैं- जीवन में विषय भोगों की अनित्यता व दुःखमयता का अहसास हो जाना ही “वैराग्य” कहलाता है।
श्रीमद् भगवद् गीता जी के तीसरे अध्याय के 42वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेम्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।
(गीता-3-42)
यहाँ पर भगवान कहते हैं कि ये ठीक है कि इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं, बलवान हैं परन्तु मन तो इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ है। यदि सब कुछ ठीक हो तो इन्द्रियों को मन के अधीन रहना होगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से श्रेष्ठ बुद्धि है तथा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है- आत्मा।
जो ज्यादा शक्तिशाली होगा, ताकतवर होगा, वह अपने से कमज़ोर को अपनी तरफ खींच लेगा। भगवान की वाणी के अनुसार आत्मा सबसे अधिक शक्तिशाली है। फिर हम कैसे कहते हैं कि मन चंचल हो गया, ये बाहर भाग जाता है, ये हमारे वश में नहीं होता है। मन की ताकत मुझसे यानि कि आत्मा से अधिक थोड़े ही है। मन मुझसे अधिक बलवान थोड़े ही है।
हमें भगवान की इन बातों को, भगवान के इन उपदेशों को समझना होगा। संसार के विषयों में हमारा जो मन गया हुआ है उसे वहाँ से हटाकर भगवान में लगाना होगा। अभ्यास और वैराग्य के साथ जब हम अपने मन को भगवान के भजन में लगायेंगे तो श्रीमद् भगवद् गीता जी के अनुसार हमें उस रस की, उस आनन्द की अनुभूति होगी जिसके सामने संसार के सभी रस
फीके व तुच्छ से लगने लगेंगे। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यास्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्येत ।।
(गीता 6/22)
अर्थात् ये एक ऐसी अवस्था है जिसमें स्थित होकर व्यक्ति का मन ज़रा सा भी चलाय -मान नहीं होता। ऐसी स्थिति में अर्थात् आत्म – सुख प्राप्त करने के बाद व्यक्ति उससे अधिक दूसरा कोई लाभ ही नहीं मानता। यहाँ तक कि ऐसी स्थिति में वह बड़े से बड़े दुःख के अवसर पर ज़रा सा भी चलायमान नहीं होता।
पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति सर्वस्व निष्किंचन महाराज जी के प्रवचन का एक अंश
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _