श्रद्धा पूर्वक नाम-ग्रहण और हेला नामाभास में भेद
श्रद्धा करि’ करे नाम अनर्थ सहित ।
श्रद्धा – नाम हय सेइ तोमार विहित ।।
संकेतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि’।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि’ ।।
नामाभास – अवधि से हेला – नाम हय।
ताहातेओ मुक्ति लभे, पाप हय क्षय ।।
श्रीहरिदास जी महाप्रभु जी से कहते हैं कि अनर्थयुक्त जीव भी यदि श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण नाम करता है तो उसे भी आप श्रद्धापूर्वक लिया गया हरिनाम ही कहते हो। हेला नामाभास तक जितने भी प्रकार के नामाभास हैं, उनमें से किसी भी तरह का नामाभास यदि हो जाता है तो इस प्रकार श्रद्धा – रहित हरिनाम उच्चारण से भी जीवों के तमाम पाप खत्म हो जाते हैं और उनको मुक्ति की प्राप्ति होती है।
अनर्थ समाप्त होने पर नामाभास करते-करते शुद्ध नाम होने से प्रेम प्रदान कराता है
कृष्ण – प्रेम छाड़ि’ सब नामाभासे पाय।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम ह ‘ये याय ।।
अनर्थ – विगते यबे शुद्ध नाम हय।
कृष्णप्रेम तबे तार हइबे निश्चय ।।
नामाभास साक्षात् से प्रेम दिते नारे।
नाम ह ‘ये प्रेम देय विधि – अनुसारे ।।
श्रीकृष्ण – प्रेम को छोड़कर बाकी सब कुछ नामाभास से ही प्राप्त किया जा सकता है और यह नामाभास भी धीरे-धीरे शुद्ध हरिनाम में परिवर्तित हो जाता है। अनर्थों के समाप्त हो जाने पर जब साधक के मुख से शुद्ध-नाम होने लगता है तब उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण – प्रेम प्राप्त हो जाता है। नामाभास साक्षात् रूप से प्रेम प्रदान नहीं कर सकता परन्तु इस प्रकार का हरिनाम ही क्रमानुसार प्रेम – मार्ग (अर्थात् श्रीकृष्ण – प्रेम) तक पहुँचा देता है।
नामाभास और नाम-अपराध में भेद
अतएव नाम – अपराध परिहरि’।
नामाभास करे येइ, तारे नति करि ।।
कर्म ज्ञान हइते अनन्त श्रेष्ठतर ।
बलि’ नामाभासे जानि, ओहे सर्वेश्वर ।।
रतिमूला श्रद्धा यदि शुद्ध भावे हय।
तबे त’ विशुद्ध नाम हइबे उदय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे सर्वेश्वर! हे प्रभु! जो व्यक्ति नामापराध को छोड़कर नामाभास भी करते हैं, उन्हें भी मैं प्रणाम करता हूँ क्योकि ये नामाभास कर्म मार्ग व ज्ञान मार्ग से अनन्त गुणा श्रेष्ठ है। श्रीहरिदास जी कहते हैं कि भगवद्-प्रेम उत्पन्न कराने वाली श्रद्धा यदि किसी के हृदय में शुद्धभाव से विद्यमान हो तो तभी उसके मुख से विशुद्ध श्रीकृष्ण – नाम उच्चारित होगा।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
_ _ _ _ _ _ _ _