नामाभास के चार प्रकार

चर्तुविध नामाभास एइमात्र जानि।
संकेत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जहाँ तक मुझे ज्ञात है-संकेत, परिहास, स्तोभ और हेला ये चार प्रकार के नामाभास होते हैं।

संकेत रूपी नामाभास दो प्रकार के होते हैं

विष्णु लक्ष्य करि’ जङबुद्धये नाम लय।
अन्य लक्ष्य करि’ विष्णु नाम उच्चारय ।।

संकेते द्विविध एइ हय नामाभास।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश ।।

यवनसकल मुक्त हबे अनायासे।
‘हाराम’, ‘हाराम’ बलि’ कहे नामाभासे ।।

अन्यत्र संकेते यदि हय नामाभास ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश ।।

पहला संकेत नामाभास तो तब होता है जब भगवान विष्णु को लक्ष्य करके दुनियावी बुद्धि से जब भगवान का नाम उच्चारण किया जाता है तथा दूसरा तब, जब भगवान के अतिरिक्त कहीं और ध्यान हो (या चिन्तन हो) और मुख से भगवान का नाम उच्चारण किया जायेगा। संकेत रूपी नामाभास इन्हीं दो प्रकार का होता है। सांकेतिक नामाभास के सम्बन्ध में अजामिल का उदाहरण शास्त्रों में प्रकाशित है। ‘हा राम’! ‘हा राम’! उच्चारण से सभी यवन अनायास ही मुक्त हो जायेंगे। अन्यत्र किसी वस्तु को संकेत करते हुये भी यदि भगवद् नाम उच्चारण किया जाता है, तो इस तरह से हरिनाम के उच्चारण में भी हरिनाम का प्रभाव है, वह खत्म नहीं होता।

परिहास-नामाभास

परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे।
जरासन्ध – सम सेइ ए संसारे तरे ।।

जो जीव परिहास (मज़ाक) करते हुये भी श्रीकृष्ण नाम ले लेते हैं, जरासन्ध की तरह वे भी इस संसार से पार हो जाते हैं।

स्तोभ नामाभास

अङ्ग‌भङ्गी चैद्य सम करे नामाभास ।
स्तोभ मात्र हय, तबु नाशे भवपाश ।।

शिशुपाल की तरह और किसी उद्देश्य से लिया गया हरिनाम, स्तोभनामाभास कहलाता है। इससे भी जीव का भवबन्धन दूर हो जाता है।

हेला नामाभास

मन नाहि देय आर अवज्ञा – भावेते।
कृष्ण राम बले, हेला – नामाभास ता ‘ते ।।

एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे ।।

हरिनाम में अपने मन को न लगाकर सहज भाव से यदि कोई कृष्ण या राम नाम उच्चारण करता है तो इससे उसका हेला नामाभास होता है। ऐसे नामाभास के द्वारा सभी म्लेच्छ संसार से तर जाते हैं अधिकतर विषयी एवं आलसी लोगों के द्वारा यह नामाभास होता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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पैसा होने से ही भगवत् सेवा होगी ऐसा नहीं; परन्तु हरिकथा – प्रचार एवं हरिसेवा के लिए निर्बन्धिनी मति, दृढ़ संकल्प एवं अकपट सेवामय प्राण रहने से ही भगवत् सेवा कार्य होगा । तुम लोग पैसे के लिए चिन्ता मत करना । अर्थ या पैसे के द्वारा मठ आदि की रक्षा नहीं होती, परन्तु विषयों का स्वभाव ही ऐसा है, जो कि हरिसेवा में अयुक्त व्यक्ति को विषय – भोग में ही प्रमत्त करा देता है ।

श्रीलप्रभुपाद
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तुम्हारे गुरु जी की सेवा सारी की सारी तुम्हारी ही है। यदि कोई दूसरा कुछ कर दे तो उसके लिए तुम कृतज्ञ रहना। श्रीकृष्ण के संसार की majordomo (बड़े परिवार की सर्वप्रधान गृहिणी) हैं – श्रीमती राधारानी। वह जानती हैं कि श्रीकृष्ण की समस्त सेवाएं उनकी ही करणीय हैं, दूसरा कोई कैसे भी सेवा कर दे, वह कृतार्थ हो जाती हैं, उसकी कृतज्ञ रहती हैं।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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विच्छेद और विरह में अन्तर

मिलन के अभाव से ही विरह की उत्पत्ति होती है। “आम तौर पर, विरह का अर्थ-विच्छेद (बिछुड़ना) समझा जाता है। एक भौतिक वस्तु को दूसरी वस्तु से अलग कर देने से विच्छेद होता है, वह ‘विरह’ नहीं है। भले ही उस विच्छेद को कई बार ‘विरह’ की संज्ञा दी जाती है, लेकिन उस विरह या विच्छेद के कारण शोक-मोह जैसा हम एक भाव देखते हैं। शोक-मोह हमें संसार के प्रति आसक्त बना देता है; लेकिन विरह हमें सांसारिक आसक्ति से मुक्ति प्रदान कर भगवत् सेवा में निष्ठा प्रदान करता है। इसीलिए हम वैष्णवों की विरह तिथि का पालन करते हैं। आपके हृदय में यही भाव जागृत हो, ठाकुर से यही प्रार्थना है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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निष्ठावान वैष्णव से ही हरिकथा श्रवण करनी चाहिए

साधुसंग में श्रीधाम दर्शन और तीर्थों की परिक्रमा आदि से भजन प्रयासी व्यक्तियों का निश्चय ही कल्याण होता है। उस समय प्रचुर परिमाण में श्रीहरिकथा श्रवण का अवसर प्राप्त होता है। अन्य समय इस प्रकार का स्वर्णिम अवसर प्राप्त नहीं होता है। गुरु-वैष्णवों की कृपा होने पर असंभव भी संभव हो जाता है-मूक (गूँगा) भी वाचालत्व (बड़बोलापन) प्राप्त करता है, विकलांग भी पर्वत को पार करने की क्षमता अर्जित कर लेता है। चातुर्मास्य-व्रत के समय, विशेष करके नियम सेवा के समय प्रतिदिन नियमित रूप से श्रीभगवान् के नाम-रूप-गुण-लीला कथा का श्रवण-कीर्तन आदि अवश्य होना चाहिए। लेकिन शुद्धाचारी एकनिष्ठ वैष्णव के श्रीमुख से ही हरिकथा-श्रवण का विधान विशेष रूप से शास्त्र आदि में प्रदान किया गया है। नहीं तो श्रवण-कीर्तन का सुष्ठु फल प्राप्त नहीं होता है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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सदाचार

शास्त्र द्वारा बताये हुये विषय को अपने जीवन में आचरण करने का नाम ही आचार है । भगवद्भक्त-साधु-वैष्णवों का आचार ही सदाचार है । शास्त्र कहते हैं- भक्ति ही साधुत्व है । इसलिये भगवद-भक्त ही वास्तविक साधु हैं ।

पद्मपुराण में कहते हैं-

स्मर्त्तव्य सततं विष्णुर्विस्मर्त्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किंकराः ॥

विष्णु को सर्वदा स्मरण रखो, उन्हें कभी न भूलो । जिसे करने से भगवान् स्मृतिपथ पर उदित हों वही जीव का कर्तव्य और विधि अथवा आचार है एवं जिस कार्य के द्वारा भगवद् विस्मृति हो, वही निषेध और अनाचार है। शास्त्र में जितने प्रकार की विधि और निषेध हैं वे सभी हरिस्मृति रूप मूल विधि एवं हरि विस्मृति रूप मूल निषेध के किंकर या आधीन हैं ।

साधुसंग द्वारा ही भगवान् में मति अथवा भगवद्स्मृति होती है। इसलिये सत्संग श्रेष्ठ और मुख्य आचार है । असत्संग द्वारा जीवन का सर्वनाश होता है, अतः असत्संग त्याग ही जीव का कर्तव्य और सदाचार है ।
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