श्री श्री गुरु गौरांगौ जयतः
श्री गौड़ीय मठ,
कलकत्ता,
29 जुलाई, 1935
स्नेहविग्रहेषु –
मैं कल प्रातः कलकत्ता गौड़ीय मठ पहुँच गया था। सुनकर सुख हुआ कि तुम्हारी माता जी श्रीमायापुर स्थित श्रीमन्दिर में वास कर रही हैं। तुम्हारी भजन-उन्नति के सम्बन्ध में सुनकर मुझे बहुत आनन्द हुआ- यही विद्या की सफलता है। हरिभजन करने वालों को छोड़कर और सभी अबोध और आत्मघाती हैं, तुम जो इस बात को समझ गए हो, उससे मेरी खुशी में बहुत बढ़ोतरी हुई है।
श्रीधाम में वास करने से हमारी भजन में उन्नति होती है। श्रीधाम का भोग करने वाले भोगी व्यक्ति भी श्रीधाम में वास करने का अभिनय करते हैं। वे अपने पुत्र, पत्नी, कन्या और नाती – पोते इत्यादि के साथ वर्तमान में सुख पाने की इच्छा से एवं उनकी मृत्यु के बाद अपने वंश में सुखभोग बढ़ा सकें, उसके लिए सोचते हैं और कभी – 2 तो इसी सोच में वे भगवान और भक्तों के विचारों में भी दोष दर्शन करते हैं। अवश्य ही तुम समझदार व्यक्ति हो- तभी “श्रीधामभोग” और “श्रीधामवास” इन दोनों शब्दों के अन्तर को समझ सके हो। प्रभु और … प्रभु ये प्रमुख श्रीधामवासी अर्थात् श्रीमठवासी ‘भगवद् – भक्त’, ‘श्रीधाम – भोग’ और ‘श्रीधाम सेवा’ का अन्तर, श्रीयुत वाचू इत्यादि, भक्ति उन्मुख व्यक्तियों को स्पष्ट रूप से समझा सकते हैं। मैं जितना जल्दी हो सके, वहाँ जाकर अविद्या को हरने वाले सत्संग भवन में ‘श्रीधामभोग’ और ‘श्रीधामसेवा’ के विषय में चर्चा करूँगा। इस सभा में श्रीयुत श्रीयुत और श्रीयुत महाशयों के उपस्थित रहने से आनन्द होगा।
श्रीधाम – भोगी सम्प्रदाय के लोग यह अवश्य ही जानते हैं कि श्रीधामवासियों की चित्तवृत्ति ईश्वर की सेवा से विमुख साधारण कर्मकाण्डियों की चित्तवृत्ति के समान नहीं है। श्रीधामवासी की चित्तवृत्ति में परमार्थ ही जीवन का प्रयोजन होता है। अपने से छोटे तथा अपने अधीन रहने वाले लोगों के लिए परमार्थ प्राप्ति की व्यवस्था कराना ही श्रीधामवासियों का कर्त्तव्य है। उसे भूलकर पहले बताये गये, धाम में रह रहे भोगी व्यक्तियों के विचारों को अंगीकार कर मठवासियों के दोष ही ढूंढते रहने से और दूसरों की निन्दा – चुगली जैसे कार्यों में ही व्यस्त रहने से श्रीभक्तिदेवी के श्रीचरणों में अपराधों का ढेर ही इक्ट्ठा होता है।
मैं जब श्रीधाम में वास करने आता हूँ, तब ये सोचकर आश्वस्त होता हूँ कि श्रीधाम में रहकर में स्वयं और मेरे परिवार के लोग परमार्थ पथ के पथिक होंगे। शुद्ध भक्तों के साथ परमार्थ पथ के पथिक बने रहने से मेरे अन्दर पल रही अभक्तों की अन्याभिलाषाएँ, कर्मफल का भोग और ब्रह्म में विलीन होने की वासना नष्ट हो जाएगी तथा मैं भक्ति का स्वरूप समझ पाऊँगा। परन्तु इस प्रकार के स्थान अर्थात् परम पवित्र धाम में आने का अभिनय करने से तो फल उल्टा ही होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि निःस्वार्थ रूप से व निष्कपट रूप से धाम में वास न करने से जीव माया के संसार में और बुरी तरह फँस जाता है तथा उसके मन की पुरानी गलत चिन्ता धाराएँ और प्रबल हो जाती हैं जिससे उसकी भक्ति-राज्य से एक लम्बे समय के लिए छुट्टी हो जाती है।
गृहस्थ भक्तों के मन के भाव और अभक्तों के मन की वृत्ति एक नहीं है। श्रीधाम में वास करने का नाटक करने वाले व्यक्ति यदि दिव्य ज्ञान लाभ करने के बजाय अपनी मूर्खता को ही पालते रहेंगे तो धाम में रहने से भी श्रीवास जी की सास व दूधाहारी ब्रह्मचारी जैसे लोगों की गुलामी ही बढ़ेगी।
भक्तिलता के सूख जाने के कारण व वैष्णव अपराध रूपी हाथी की सूण्ड के द्वारा क्षत-विक्षत हो जाने पर हमारा लक्ष्य लाभ-पूजा व प्रतिष्ठा की आशा में बदल जाता है। इसलिए श्रीधाम में वास करने का अभिनय करने वालों के एवं उनके विचारों का अनुसरण करने वालों के चरणों में हमारा यही निवेदन है कि वे लोग अपने मन की पुरानी अमंगलमय चिन्ता – धारा को लेकर श्रीधाम में वास न करें, क्योंकि ऐसा करने से उनके कुल को वैष्णव-निन्दकों का संग ही प्राप्त होगा।
आजकल अन्दर में श्रीधाम को भोग करने की वासना को पोषित कर व बाहर से श्रीधाम वास करने के छल से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए चेष्टा करने वाले अभक्तों की ही संख्या ज्यादा है। श्रीधाम वास का नाटक करने वाले लोगों की इस प्रकार की दुष्प्रवृत्ति अग्नि की ऊँची-ऊँची लपटों के समान है। इसलिए मेरे जैसे दुर्बल प्राणी ऐसे विषयी व्यक्तियों के संग से हज़ारों मील दूर ही रहते हैं। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योकि भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कहा है- “सन्दर्शनं विषयिनामथ योषितांच हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु।” हम महाप्रभुजी की इस शिक्षा से अपना मुख नहीं मोड़ सकते।