श्री श्री गुरु – गौरांगौ जयतः
श्री चैतन्य गौड़ीय मठ, सैक्टर 20 बी, चण्डीगढ़ ।
9-5-1971
स्नेह भाजनेषु,
याद रखना कि साधक का जीवन सदा सुसंयत होना उचित है । बहुत लोगों के साथ इकट्ठे रहने के लिए सहन – शील होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उनमें से जो जिम्मेदार एवं ज्येष्ठ हों उन्हें वैसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो दूसरों के अनुकरण करने में अहितकर हो । बहुत व्यक्ति एकत्रित रहने पर उनके चरित्र, भजन, दोष – गुण आदि में फर्क अवश्य रहेगा । जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य एवं रूप यौवनादि की तात्कालिक या लौकिक मर्यादा नहीं देने पर बहुत स्थान में अशान्ति उत्पन्न होती है । अशान्त अथवा चंचल चित्त से कभी भी भगवद् – स्मरण या मन्त्र जप ठीक प्रकार सुसम्पन्न नहीं होता है। इसलिए साधक को अपना चित्त स्थिर रखना चाहिए। चंचल – चित्त किसी विशेष विषय में आविष्ट होने पर, उससे श्रीभगवान की भक्ति नहीं होती । श्रीमन् महाप्रभुजी के शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक के अर्थ को ठीक प्रकार समझ कर उसके अनुसार चलना चाहिए । संसार में सब जगह ही त्रिताप हैं। जगत् के सब प्राणीयों या लोगों को अपने मत के अनुसार चलाना असम्भव है । इसलिए शान्त – व्यक्ति, यह समझ कर कि उनके आराध्य देव का स्नेहमय हस्त सर्वत्र है, अपने अनुकूल अवस्था न होने पर भी अपने को विभिन्न अवस्थाओं में नियन्त्रित कर लेते हैं,
“तत्कृपावलोकन” को साधन-भक्ति का एक अंग समझना । तुम सबको मेरा स्नेहाशीर्वाद ।
नित्य शुभाकाँक्षी
श्री भक्ति दयित माधव