श्रीश्रीगुरु – गौरांगौ जयतः
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, मथुरा रोड़,
पोः वृन्दावन,
जिला – मथुरा
24 दिसम्बर, 1963
स्नेह के पात्र,
तुम्हारा दिनांक 18/12/63 का लिखा पत्र मुझे प्राप्त हुआ । पत्र के द्वारा मुझे यह ज्ञात हुआ कि तुमने कृष्णकेशव प्रभु के साथ आसाम में यात्रा की है।
तुम्हारे पिता अस्वस्थ हैं, यह सुनकर मुझे दुःख हुआ । जन्म ग्रहण करने वाली प्रत्येक वस्तु की मृत्यु अथवा विनाश अवश्यम्भावी है, यह जानते हुए, तुम्हारे पिताजी इस नश्वर देह की रक्षा के लिये किसी प्रकार से विशेष चेष्टान्वित नहीं हैं, यह मुझे ज्ञात हुआ । परन्तु यदि वे निरन्तर श्रीभगवद् चिन्तन में निमग्न रह सकें, तभी यह आनन्द और गौरव का विषय होगा। मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि वे डॉक्टर के द्वारा अपनी चिकित्सा कराने के इच्छुक नहीं हैं। जैसा भी हो, पुत्रों एवं कुटुम्ब का यह कर्त्तव्य है कि वे उनकी सेवा-परिचर्या की उचित व्यवस्था करें।
पिता-माता के प्रति तीन प्रकार का विचार तीन प्रकार की बुद्धिवाले पुत्र-पुत्री करते हैं, एवं उनके अनुसार ही वे अपने पिता-माता अथवा आत्मीयजनों की सेवा किया करते हैं।
मोटी बुद्धि वाले अथवा मूर्ख व्यक्ति यही समझते हैं कि ‘मैं यह देह हूँ’। इस प्रकार दिन-रात वे अपने देह को सुखी करने के लिये व्यस्त रहते हैं एवं उसे ही अपना सर्वोच्च स्वार्थ समझते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने पिता-माता के लिये भी शारीरिक सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करने को ही उनकी सर्वोत्तम सेवा अथवा भक्ति समझते हैं तथा उसी प्रकार आचरण करते हैं
जो व्यक्ति मन, बुद्धि एवं अहंकार से युक्त अपने सूक्ष्म शरीर को ही अपना स्वरूप अर्थात् ‘मैं’ मानकर भ्रान्त होते हैं, वे अपने मन की इच्छाओं की पूर्ति को ही अपना सर्वोच्च स्वार्थ मानते हैं। इस धारणा के अनुरूप ही वे अपने आत्मीयजनों की भी मनोवृत्तियों की सन्तुष्टि के लिये प्रयत्न करते हैं तथा यही समझते हैं कि ऐसा करके हमने अपने प्रियजनों की प्रचुर सेवा की है।
जो व्यक्ति यह जानते हैं कि ‘मैं चिद्-तत्त्व अर्थात् आत्मा हूँ’, वे ही बुद्धिमान हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मा के सुख अथवा चिन्मय आनन्द की प्राप्ति अर्थात् परमार्थ प्राप्ति अथवा श्रीभगवद् प्राप्ति को ही अपना परम स्वार्थ मानते हैं । श्रीभगवद् भक्ति अथवा प्रेम के पथ के पथिक हुए बिना श्रीभगवद् प्राप्ति किसी के लिये भी सम्भव नहीं है। अतः ऐसे सुबुद्धिमान जनगण श्रीभगवद् प्रेम प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं एवं इस भावना के अनुसार ही अपने पिता-माता तथा प्रियजनों की भी वैसे ही सेवा करते हैं जिससे वे भी श्रीभगवद् प्रेम को प्राप्त कर सकें ।
जिस प्रकार स्वयं धन प्राप्त करने पर एक व्यक्ति अपने प्रियजनों को उस धन के द्वारा सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार स्वयं कृष्णप्रेम प्राप्त करने पर ही पिता-माता एवं प्रियजनों को उस प्रेम के द्वारा धनी करना [अर्थात् प्रेम की अनुभूति कराना अथवा प्रेम प्राप्ति में सहयोग प्रदान करना ] सम्भव होता है।
यही कारण है कि आदर्श चरित्र से युक्त और समस्त जगत का मङ्गल विधान करने वाले, महाभागवत श्रीप्रह्लाद को अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध भी श्रीकृष्ण भक्ति का अनुशीलन करते देखा जाता है । श्रीमन्महाप्रभु के जीवन-चरित्र का अनुशीलन करने पर भी यह देखा जाता है कि, बाह्य रूप से अपनी वृद्धा जननी एवं युवती पत्नी श्रीविष्णुप्रिया को रुलाकर भी वे श्रीकृष्णप्रेम का अन्वेषण करने के लिये गृह त्यागकर चले गये-
‘आनेर तनये आने रजतकाञ्चन ।
आमि आनि दिब मागो कृष्ण प्रेम धन ॥”
[ श्रीचैतन्य महाप्रभु ने माता शची से कहा—अन्य माताओं के पुत्र उन्हें सोना और चाँदी लाकर देते हैं। हे मेरी प्यारी माता ! मैं तुम्हें कृष्णप्रेम रूपी धन लाकर दूँगा ।]
संसार त्याग करने से पूर्व श्रीचैतन्य महाप्रभु ने उपरोक्त वचनों के द्वारा अपनी माता को सान्त्वना प्रदान की तथा तत्पश्चात् वे एकान्त भाव से निरन्तर श्रीकृष्ण प्रेमास्वादन में निमग्न हो गये। अब देखो, जगत के लोग उनकी कृपा प्राप्ति के लिये किस प्रकार व्याकुल हैं।
तुमने अनेक दिनों तक अपने पिता की सेवा की है, मेरे विचार से, अब उनकी आज्ञा लेकर तुम्हारे लिये श्रीमायापुर लौट आना ही उचित होगा। इस जगत में, श्रीकृष्ण – भजन करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ कोई भी कर्त्तव्य अथवा स्वार्थ नहीं हो सकता। यही समस्त सुखों को प्रदान करने वाला है।
आप सभी मेरा स्नेह – आशीर्वाद ग्रहण करना।
इति नित्यशुभाकांक्षी
श्रीभक्तिदयित माधव