श्रीश्रीगुरु – गौरांगौ जयतः
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, 35,
सतीश मुखर्जी रोड़, कोलकाता- 26
16 अक्टूबर, 1972
स्नेह के पात्र,
श्री* *****महाराज, तुम्हारा दिनांक 13/10/72 का लिखा पत्र आज सन्ध्या के समय अभी-अभी मुझे प्राप्त हुआ।
यदि मठ के किसी सेवक द्वारा कोई त्रुटि – विच्युति होती है, तथा मठ के प्रबन्धन वर्ग को इस विषय से अवगत कराया जाता है, तब मठ का प्रबन्धन वर्ग उस विषय पर गहन अनुसन्धान करके उक्त सेवक अथवा सेवकों के संशोधन हेतु उन्हें उपदेश करते हैं। यदि उसके द्वारा भी किसी का संशोधन नहीं होता, तो उस सेवक अथवा सेवकों को मठ से बहिष्कार कर दिया जाता है। जनसाधारण, विशेषकर उग्र स्वभाव वाले ऐसे अपरिपक्व युवक, जो स्वयं उच्छृङ्खल हैं, वे अन्यों का क्या मङ्गल अथवा उपकार कर पाएँगे? उनका स्वभाव रज एवं तमोगुण प्रधान है, अतः वे लोग रजो एवं तमोगुण प्रधान क्रियाओं का ही प्रदर्शन कर सकते हैं। अपना अथवा दूसरों का उपकार करना उनके द्वारा सम्भव नहीं होता। एक हिंसा परायण व्यक्ति अन्यों के उपकार की कदापि कल्पना भी नहीं कर सकता। केवल सज्जन व्यक्ति ही अन्यों का उपकार कर सकते हैं तथा किया करते हैं। दूसरों को पीड़ा देने में ही जिनको सुख प्राप्त होता है, वे शोचनीय व्यक्ति हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। करुणामय श्रीहरि उन्हें सुबुद्धि प्रदान करें एवं उनका वास्तविक मङ्गल विधान करें, यही उन श्रीहरि की कृपाशक्ति के समक्ष मैं प्रार्थना करता हूँ । सभी मेरा स्नेह – आशीर्वाद ग्रहण करना।
इति नित्यशुभाकांक्षी
श्रीभक्तिदयित माधव