श्रीश्रीगुरु – गौरांगौ जयतः
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,
सेक्टर 20 बी, चण्डीगढ़
8 मई, 1976
स्नेह के पात्र,
तुम्हारा दिनांक 28/3/76 का कोलकाता के पते पर लिखित पत्र मुझे प्राप्त हुआ। तुमने कितने दिन कहाँ-कहाँ प्रचार किया, तथा वहाँ प्रचार का क्या परिणाम हुआ, यह बतलाने पर मुझे प्रसन्नता होगी। श्रील प्रभुपाद की इस वाणी को स्मरण रखना – “कनक, कामिनी, प्रतिष्ठा बाघिनी, छाड़ियाछे जारे सेई त वैष्णव।
सेई अनासक्त, सेई शुद्ध भक्त
संसार तथाय पाय पराभव ॥”
[ जिस व्यक्ति को धन, स्त्री और प्रतिष्ठा रूपी बाघिनी ने त्याग दिया है (अर्थात् जब धन, स्त्री और प्रतिष्ठा उस व्यक्ति को वश में करने के अपने प्रयासों में विफल हो जाते हैं, तो वे उसे अपने वश में करने के समस्त प्रयासों को छोड़ देते हैं, अपितु उस व्यक्ति की सेवा करते हैं ।) वही वास्तव में वैष्णव है। ऐसा व्यक्ति अनासक्त है, वही शुद्ध भक्त है, उसकेके समक्ष ही यह संसार अर्थात् मायादेवी का समस्त प्रकार का पराक्रम पराजित हो जाता है । ]
जिस कारण से हम सभी मठ में वास कर रहे हैं, वह सदा स्मरण रखकर चलना । कृष्ण से असम्बन्धित अन्य अभिलाषाएँ ही जीव के समस्त दुःखों का कारण हैं। अतः हमें सर्वदा श्रीकृष्ण तथा उनकी प्रेममयी सेवा के चिन्तन में निमग्न रहना चाहिये, तभी अन्य अभिलाषाएँ हम पर प्रभुत्व नहीं जमा पायेंगी । “ शुनिया गोविन्द रव, आपनि पलाबे सब – ‘गोविन्द’ शब्द श्रवण करते ही समस्त प्रतिकूलताएँ स्वयं ही पलायन कर जाती हैं। ” (प्रेम-भक्ति- चन्द्रिका 2.13)
आप आगरतला में रहकर ही चन्दा एकत्रित करने के लिये नये व्यक्तियों को जोड़ना तथा भिक्षा संग्रह करना । इस सेवाकार्य को करने के साथ-साथ शिक्षाष्टक का तृतीय श्लोक सर्वदा स्मरण रखकर चलना।
इति नित्यशुभाकांक्षी
त्रिदण्डिभिक्षु
श्रीभक्तिदयित माधव