श्रीश्रीगुरु – गौरांगौ जयतः
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,
35, सतीश मुखर्जी रोड़, कोलकाता- 26
12 मई, 1968
स्नेह के पात्र,
हैदराबाद में तुम्हारे स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा है, यह जानकर मुझे दुःख हुआ। हमारा शरीर कभी स्वस्थ, कभी अस्वस्थ, इस प्रकार ही चलेगा। स्वास्थ्य की इस प्रकार की परिवर्तनशील अवस्थाओं में भी सुचतुर और बुद्धिमान मनुष्यगण अपने नित्य-आराध्य और प्रियतम प्रभु की सेवा के लिये प्रयत्न करते रहते हैं। अपने कर्मों के फलस्वरूप ही सुख – दुःख आदि तथा परिवेश [आस-पास का वातावरण] आदि प्राप्त होते हैं, अतः साधक को सर्वदा सतर्कतापूर्वक जीवन यापन करना चाहिये। यदि किसी गुरुभ्राता में किसी प्रकार की दुर्बलता दिखलायी दे, तब उसके साथ अनुकूल भाव युक्त प्रीतिपूर्ण व्यवहार करना ही उचित है जिससे कि वह गुरुभ्राता उस दुर्बलता के चङ्गुल से छुटकारा प्राप्त कर सके। साधुसङ्ग में “बोधयन्तः परस्परम्” का 1 “ मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥” अर्थात् जिन्होंने अपने चित्त तथा प्राण मुझे समर्पित कर दिए हैं, वे सर्वदा एक-दूसरे को मेरा तत्त्व बताते हुए एवं मेरे नाम, रूप आदि का कीर्तन करते हुए सन्तोष लाभ करते हैं और आनन्दका अनुभव करते हैं। (भगवद्गीता 10.9) तात्पर्य यह है कि साधुसङ्ग में ही ऐसा सुयोग प्राप्त होता है।
सुयोग होता है, इसलिये साधक साधुसङ्ग में रहकर साधन – भजन करने का प्रयत्न करते हैं। दूसरों की दुर्बलता दिखायी देने पर स्वयं को और अधिक सतर्क होना चाहिये, जिससे कि हमारा अपना आदर्श जीवन अन्यों के लिये हितकारी हो सके ।
नित्यशुभाकांक्षी
श्रीभक्तिदयित माधव