श्री श्री गुरु – गौरांगौ जयतः

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ
35, सतीश मुखर्जी रोड़
कलकत्ता-26

26-12-1977

स्नेहभाजनेषु

सचमुच तुम्हारी यदि पढ़ने की आकांक्षा है तब कलकत्ता, कृष्णनगर व श्रीमायापुर मठ में रहकर संस्कृत अध्ययन कर सकते हो । तुम्हें स्मरण रखना उचित है कि हम साधन – भजन करने के लिए घर, पिता-माता व कुटुम्ब आदि को परित्याग करके मठ में आये हैं।

गृहत्यागियों का साधन – भजन ही मुख्य व्रत है, और ये भक्ति – साधन, साधु, शास्त्र और गुरु के निर्देश के अनुसार सम्भव होता है । स्वेच्छाचारी होने से अर्थात् अपनी इच्छानुसार चलने से अथवा मन में जो अच्छा लगता है उसी प्रकार करने से पतन अवश्यम्भावी है तथा साथ ही नाना प्रकार के दुःख भी अवश्य ही आ पड़ेंगे । भिक्षा करके भोजन करना एवं केवल देह के संरक्षण के लिए चेष्टा करना ही भक्ति का कोई अंग नहीं है। भगवान और भक्त के निर्देश अनुसार चलना ही भक्ति है, वही एकमात्र श्रेय साधन है । आहार का कष्ट पशु – पक्षी को भी नहीं होता, वह कुछ न खाकर भी नहीं मरते ।

इसलिए मनुष्य – देह लाभ करके केवल आहार, निद्रा इत्यादि के लिए व्याकुल होने से परमार्थ- साधन नहीं होगा । दुर्लभ मनुष्य – जन्म व्यर्थ हो जाएगा ।

काम, क्रोध और लोभ – ये तीनों ही मनुष्य के लिए नरक (क्लेश) के द्वार हैं एवं यह तीनों ही आत्मा के ध्वंस का कारण बन जाते हैं। साधन की प्रथम अवस्था में काम, क्रोध और लोभ आदि रह सकते हैं, किन्तु साधन करते रहने से भक्ति के प्रभाव से, भगवान और भक्त की कृपा द्वारा वह निश्चय ही शान्त हो जायेंगे एवं साधक मंगल लाभ कर सकेंगे । बहुत साधकों के साथ एकत्र वास करने से अनेक प्रकार के सुयोग और सुविधायें आती हैं। किसी के चित्त में कभी भी दुर्बलता आने से अन्य साधकों के भय व उपदेश से निन्दित कार्य से साधक संयत होता है। जब मन कभी कुछ खराब होता है एवं असत् चिन्ता करना चाहता है तब आर्त – भाव के साथ, उच्च स्वर से हरिनाम करना अर्थात भगवान को पुकारना । वह कृपामय व अन्तर्यामी होकर हमारे हृदय का भाव समझ कर अवश्य कृपा करेंगे व हमारी रक्षा करेंगे ।

नित्य – शुभाकाँक्षी
श्रीभक्तिदयित माधव