श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण-पार्षदों के नाम, रूप, गुण व लीला की महिमा का गान अर्थात् संकीर्तन करना ही सर्वोत्तम भक्ति है। यदि हम भक्ति-पथ में उन्नति हेतु गम्भीर हैं तो जहाँ कहीं भी रहे, हमें नियमित रूप से श्रवण-कीर्तन करना होगा।
प्रश्न : हमें कृपा कर बताएँ कि ‘गोकुल’ (संस्थान) वर्तमान में किस प्रकार कार्यरत है व भविष्य में इसकी गतिविधियों के लिए आपकी परिकल्पना एवं इच्छा किस प्रकार है। हमारे लिए गोकुल से संलग्न होने के लिए क्या करना उपयुक्त रहेगा—हमारे देश की न्याय-व्यवस्था के अनुसार अपनी शाखा को यहाँ पंजीकृत कराना या मूल अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में सम्मिलित होके रहना? आपसे हमारा ओर एक निवेदन भी है—अपने स्वास्थ्य की समस्या के कारण यदि आप स्वयं यहाँ नहीं आ सकते हैं तो मठ से किसी अन्य संन्यासी, ब्रह्मचारी या गृहस्थ गुरुभ्राता अथवा अपने किसी शिष्य को हरिकथा-संकीर्तन के लिए यहाँ भेजे जो हमें श्रीगुरु-वैष्णव-भगवान् की सेवा में रत रहने के लिए आवश्यक उत्साह एवं बल प्रदान करें।
मुझे श्रील भक्तिवैभव पुरी महाराज के शिष्यों द्वारा एक वैष्णव सभा में वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया है। क्योंकि मैं स्वयं को इस सेवा के लिए अयोग्य अनुभव करता हूँ, आपसे इस विषय में उपदेश प्रदान करने के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ। यद्यपि मैं जागतिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए आवश्यक शिष्ट भाषा व अलंकृत शब्दों से सिद्धांत की बात बोल सकता हूँ किन्तु मुझ में भगवद्-अनुभूति एवं श्रीकृष्ण-सेवा वृत्ति किंचित मात्र भी नहीं तथा मैं वैष्णव-धर्म की अपकीर्ति नहीं करना चाहता।
श्रील गुरुदेव : GOKUL(गोकुल) ‘Global Organisation of Krishna Chaitanya’s Universal Love’ (विश्वव्यापी कृष्णचैतन्य सर्व-प्रेमधर्म संघ) का शब्द-संक्षेप है। ‘Universal’ अर्थात् यह सभी के लिए है। Universal होने पर भी जागतिक न्याय-व्यवस्था के नियमों के अनुसार आपके लिए स्थानीय शाखा को अपने देश में पंजीकृत कराना उचित होगा। इस संस्थान (गोकुल) के सदस्य गौड़ीय विचारधारा का अनुशीलन करेंगे।
जब मैंने अपनी विदेश यात्रा के संदर्भ में विशेषज्ञ चिकित्सक से सलाह ली थी तो उन्होंने मुझे परामर्श दिया था कि भारत का ग्रीष्म काल मेरे स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं होगा, अतः इस समय में मेरे लिए विदेश यात्रा करना उपयुक्त होगा यदि मैं अपना वास एक ही गंतव्य स्थल पर सीमित रखूं तो। भिन्न-भिन्न स्थानों पर यात्रा करना मेरे स्वास्थ के लिए ठीक नहीं होगा। विभिन्न स्थानों से भक्त मेरे पास आ सकते हैं। ऐसे उपयुक्त स्थान के चयन के लिए आप यूरोप और इंग्लैंड के सभी भक्तों से परामर्श कर सकते हैं।
प्रचार मण्डली, संन्यासी, ब्रह्मचारी या गृहस्थ भक्तों को वहाँ भेजने के विषय में मैं अन्यान्य भक्तों व संन्यासी गणों से विचार-विमर्श करूँगा व तदनुसार आपको सूचित करूँगा।
आपके अंतिम प्रश्न के सन्दर्भ में, एक शुद्ध भक्त का जीवन श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण-भक्तों की सेवा के लिए पूर्णतया समर्पित होता है। श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण-पार्षदों के नाम, रूप, गुण व लीला की महिमा का गान अर्थात् संकीर्तन करना ही सर्वोत्तम भक्ति है। यदि हम भक्ति-पथ में उन्नति हेतु गम्भीर हैं तो जहाँ कहीं भी रहे, हमें नियमित रूप से श्रवण-कीर्तन करना होगा। हमारे जीवन का उद्देश्य एक प्रखर वक्ता बनना नहीं है; हमें इस जीवन को कृष्ण व कृष्ण-भक्तों की सेवा में समर्पित करना है। श्रवण-कीर्तन जल के समान है। यदि वृक्ष की जड़ को जल से सिंचन नहीं करेंगे तो उसे पोषण नहीं मिलेगा। मंत्र प्राप्त करने के पश्चात्, आपको इसे जल से सिंचन करना है अर्थात् कृष्ण-कथा का श्रवण-कीर्तन करना है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आप, गुरु-वैष्णवों के मुखारविंद से जो आपने श्रवण किया है व जो शुद्ध-भक्ति-शास्त्रों की वाणी है उसका अनुकीर्तन करें।
सर्वकृपामयी श्रीगुरुगौरांग राधाकृष्ण आप सभी पर कृपा करें एवं उनकी सेवा करने का सामर्थ्य प्रदान करें। आप सभी को मेरा स्नेह।