गुण्डिचा मार्जन का क्या अर्थ है? गुण्डिचा, इन्द्रद्युम्न महाराज की सहधर्मिणी(पत्नी) का नाम था। महाप्रभु ने आकर गुण्डिचा मार्जन का प्रवर्तन किया। इन्द्रद्युम्न महाराज को श्रीजगन्नाथ देव ने आदेश दिया था, “तुम बलदेव व सुभद्रा के साथ मुझे रथ में यहाँ से(श्रीजगन्नाथ मन्दिर से) अपनी शक्ति अर्थात् सहधर्मिणी गुण्डिचा के स्थान पर ले जाओ। वह मेरी आविर्भाव स्थली है।” गुण्डिचा के पास ही ‘बांकिमुहान’ नामक स्थान है, जहाँ पर जगन्नाथ देव ‘दारु ब्रह्म’ रूप से प्रकट हुए थे।
ऋग्वेद का वचन है—
अदो यद् दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।
(ऋग्वेद 10.155.3)
यह ऋग्वेद का वचन है। ऋग्वेद सबसे पुरातन ग्रन्थ है। यह झूठ नहीं है। यह ‘दारु ब्रह्म’ प्रकृति के अतीत है; इसे जगत के किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया है। श्रीजगन्नाथ देव ने इन्द्रद्युम्न महाराज को कह दिया था, “तुम्हें नीलमाधव दर्शन नहीं हुए तो दुःखी होने की कोई बात नहीं, मैं दारु ब्रह्म रूप से प्रकट होऊँगा। कहाँ पर? बांकिमुहान, चक्रतीर्थ में। जगन्नाथ मन्दिर से दो मील दूर, गुण्डिचा मन्दिर के पास ही है। हम अपनी आविर्भाव स्थली पर जाएँगे जहाँ इन्द्रद्युम्न महाराज ने एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ किए थे।”
जब महाप्रभु पुरुषोत्तम धाम पहुँचे, सबसे पहले ‘अठारहनाला’ में आये। हमारे गुरुजी द्वारा यहाँ पर महाप्रभु का पादपीठ स्थान बनवाया गया है। यहाँ भक्तों द्वारा सेवा-पूजा की जाती है। जब महाप्रभु ने अठारहनाला पहुँचे, उन्होंने वहाँ से जगन्नाथ मन्दिर को देखा। मन्दिर की चोटी पर श्रीकृष्ण छोटे शिशु के रूप में मुरली बजा रहे हैं।
जब श्रीमन्महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अन्य भक्तों साथ पुरुषोत्तम धाम आ रहे थे तो उनके पास उनका संन्यास-दण्ड था जो उन्होंने ज्ञानी संप्रदाय से लिया था। महाप्रभु ने उस समय की अवस्था को देखकर संन्यास लिया था। महाप्रभु भगवान् है, वे संन्यास-दण्ड क्यों धारण करेंगे? दण्ड हम बद्धजीवों के लिए होता है—शारीरिक दण्ड, मानसिक दण्ड तथा वाक् दण्ड। जब महाप्रभु प्रेमाविष्ट थे तब नित्यानन्द प्रभु ने उनका दंड तीन भागों में तोड़ कर नदी में बहा दिया। जब महाप्रभु ने पूछा कि मेरा दण्ड कहाँ है, तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “जब आप प्रेम के भाव से गदगद थे तो आप दण्ड पर गिर पड़े जिससे वह टूट गया। इसलिए हमने उसे नदी में बहा दिया।”
महाप्रभु ने कहा, “तुमने मेरी सम्पति ले ली। दण्ड मेरा एकमात्र सहारा था। तुम लोगों के साथ जाने से वह भी नष्ट हो गया। मैं अब तुम लोगों के साथ नहीं जाऊँगा। तुम लोग पहले जाओ, मैं पीछे आऊँगा।”
इसपर नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “आप तो सदैव भाव में विभोर रहते हैं। पीछे चलने से आप कहाँ रह गए, हम किस प्रकार देखेंगे? आप आगे चलिए, हम पीछे से आएँगे।” इसलिए महाप्रभु पहले गए।
मन्दिर में पहुँचकर जगन्नाथ-बलदेव-सुभद्रा के दर्शन करके महाप्रभु मूर्च्छित होकर गिर पड़े। मैं तो कितनी बार जगन्नाथ मन्दिर गया, कुछ हुआ ही नहीं। कितने लोग दर्शन करने जाते हैं। दर्शन में बहुत अन्तर है। हम लोग देखते हैं —“यह कैसे विग्रह हैं? हाथ-पैर कटे हुए हैं, यह क्या है?” भगवान ने अनन्त महाराणा के रूप में आकर स्वयं इन विग्रहों को बनाया था। अनन्त महाराणा ने इन्द्रद्युम्न महाराज से कहा था कि आप 21 दिन बाद कमरे (जहाँ वे विग्रहों का निर्माण कर रहे थे) को खोलना। जब इन्द्रद्युम्न महाराज ने देखा कि कमरे के भीतर से कोई शब्द नहीं आ रहा तो उन्होंने 15 दिन बाद दरवाज़ा खोल दिया। जब इन्द्रद्युम्न महाराज ने देखा कि विग्रह अभी असम्पूर्ण थे तो वह बेहोश होकर गिर पड़े। तब भगवान ने कहा कि मेरी इसी रूप में प्रकट होने की इच्छा थी।
इस समय जो हम बलदेव-सुभद्रा-जगन्नाथ के दर्शन करते हैं, उनका रूप इस प्रकार कैसे हुआ?
बलदेव, सुभद्रा व जगन्नाथ (कृष्ण) द्वारिका में थे। कृष्ण ने वृन्दावन में न रहकर द्वारिका में रहने की लीला की। सबसे पहले वे वृन्दावन से मथुरा आए, उसके बाद वृन्दावन वापस नहीं गए। परन्तु वास्तव में तो कृष्ण वृन्दावन में ही हैं। बाहर से ब्रजवासियों को दिखाया कि वे वृन्दावन में नहीं हैं, उन लोगों के विरह को बढ़ाने के लिए। प्रेम को बढ़ाने के लिए विरह और मिलन दोनों आवश्यक हैं। इसलिए ऐसी लीला करके दिखाई कि वे वृन्दावन में नहीं हैं। सब ब्रजवासी भक्त कृष्ण के विरह में सब समय रोते रहते हैं; यशोदा मैया, नन्द बाबा रोते-रोते दुबले हो गए। “गोपाल नहीं है, किसके लिए रसोई बनाएँ”, ऐसा कहते हुए सब समय रोते रहते हैं। केवल प्राण धारण करके रखा हुआ है। सब सखा भी रोते रहते है—“भाई कन्हैया नहीं है। हम लोग गरीब हैं तथा कन्हैया महाराज बनकर हमें भूल गया है।”
एक दिन रोहिणी देवी द्वारिका में पहुँचीं। वे सभी महीषियों से मिलीं तथा उन्हें कहा, “आप सब कितनी सौभाग्यशाली हैं। आप लोगों के प्रेम के वशीभूत होकर, कृष्ण यहीं रहते हैं, ब्रज जाते ही नहीं। सारे ब्रजवासी सदा कृष्ण के विरह में रोते रहते हैं एवं सोचते रहते हैं कि उनसे क्या गलती हुई। तब महीषियों ने कहा कि यह सत्य नहीं है। बाह्य रूप से कृष्ण हम लोगों के साथ रहते हैं किन्तु भीतर से हमारे साथ नहीं हैं।
रोहिणी मैया ने पूछा, “क्यों?”
गोपियाँ कहती हैं, “रात में जिनका नाम लेकर चिल्लाकर रोते हैं, उसमें हमारा नाम नहीं होता। हम में से किसी महिषी का नाम नही लेते, सब समय गोप-गोपियों का एवं सखाओं का नाम लेकर रोते हैं। उनका शरीर यहाँ पर है परन्तु मन ब्रज में ही है। हम लोगों को प्रेम नहीं करते हैं। हम लोगों का नाम उच्चारण क्यों नहीं करते? हम लोग एक साथ सोते हैं परन्तु कभी हमारा नाम नहीं लिया। इसका क्या कारण है?”
तब रोहिणी मैया ने कहा कि में बताऊँगी, पर कृष्ण- बलराम यहाँ आने न पाए।
महीषियां बोली, सुभद्रा को पहरेदार रखेंगे, वह उन्हें अंदर नहीं आने देगी। आप चिंता न करें।
तब रोहिणी मैया गोपियों के कृष्ण के प्रति प्रेम के बारे में बताने लगीं तथा सभी बहुत तन्मय होकर सुनने लगीं।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।
अर्थात् भगवान कहते हैं कि जहाँ पर भी मेरे भक्त मेरी कथाओं का गान करते हैं, मैं वहीं प्रकट हो जाता हूँ। तब कृष्ण तथा बलराम भी वहाँ पर आ गए एवं कथा सुनने लगे। सुनते- सुनते उनमें प्रेम के विकार होने लगे; हाथ-पैर सब अन्दर चले गए, पैर भी नहीं रहे, हाथ भी नहीं रहे, आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं। सुभद्रा की भी इसी प्रकार अवस्था हो गई। वही रूप हम जगन्नाथ पुरी में देखते हैं। हम लोग नहीं जानते किन्तु महाप्रभु को सब पता है। महाप्रभु सर्वोत्तम प्रेमीका, मधुर रस के भक्तों के प्रेम रस से निर्मित जगन्नाथ, बलदेव व सुभद्रा के विग्रहों का दर्शन करते हैं।
महाप्रभु अभी तो भक्त की लीला कर रहे हैं, स्वयं राधारानी का भाव लेकर आए हैं। स्वयं भक्तभाव अंगीकार किए बिना सबको शिक्षा नहीं दे सकते, इसलिए उन्होंने भक्तभाव अंगीकार करके सबको लीला करके दिखाया कि किस प्रकार भगवान की सेवा करनी चाहिए। उनका आचरण देखकर सब लोग शिक्षा लेते हैं। महाप्रभु को सब ज्ञात है, वे सदैव राधारानी के भाव में विभावित रहते हैं। हम लोग जिस प्रकार से दर्शन करते हैं, उस प्रकार नहीं। महाप्रभु जगन्नाथ को अपने इष्टदेव कृष्ण के रूप में देखते हैं, जिनमें राधारानी आसक्त हैं। इसलिए उनके दर्शन करके वे मूर्च्छित हो गए। हम लोग दर्शन करते हैं कि उनके हाथ-पैर नहीं हैं।
मैं उस भूमिका का नहीं हूँ। मैं तो बद्धजीव हूँ, अनर्थयुक्त बद्धजीव, शरीर में ‘मैं’ बुद्धि रखनेवाला। इस जगत के जड़ नेत्रों द्वारा हम क्या समझेंगे? हम इन कथाओं को सुनते तो अवश्य हैं परन्तु हमारे अनुभव में कुछ नहीं है। जगदीश पंडित को अनुभव हुआ, वे भगवान के पार्षद थे। इसलिए वे रो-रोकर जगन्नाथ को नीलाचल से गौड़देश में ले आए। हम लोग नहीं ला सकते। भगवान हम लोगों की बात नहीं सुनेंगे। हम भीतर से कुछ व बाहर से कुछ हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने गुण्डिचा मन्दिर मार्जन का प्रवर्तन किया। चैतन्य महाप्रभु पर राजा प्रतापरुद्र, काशीमिश्र, वासुदेव सार्वभौम आदि सब बहुत श्रद्धा करते थे। चैतन्य महाप्रभु के कुछ कहने से सब उसे स्वीकार कर लेते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “जगन्नाथ गुण्डिचा में जाते हैं, मैं वहाँ पर एक सेवा की याचना करता हूँ। जब जगन्नाथ, बलदेव व सुभद्रा को उनके जन्मस्थान पर ले जाएँगे, तब मैं वहाँ पर स्वयं मन्दिर मार्जन करना चाहता हूँ।”
जब तक हमारे हृदय में अन्य आकांक्षाएँ रहेंगी, तब तक जगन्नाथ, बलदेव व सुभद्रा के वास्तव दर्शन नहीं होंगे, वास्तव रथ यात्रा भी नहीं होगी।
महाप्रभु कहते हैं, “ मैं काशीमिश्र(राधाकांत मठ के प्रधान) तथा प्रधान व्यक्ति वासुदेव सार्वभौम से निवेदन करता हूँ कि हमें यह सेवा करने की आज्ञा प्रदान करें।” महाप्रभु को उनसे आज्ञा लेने की कोई आवश्यकता नहीं थी किन्तु उन्होंने तब भी ऐसी लीला कि ताकि उन्हें देखकर अन्य भक्त भी प्रेरित हों और वे स्वैच्छिक कार्य न करें। इसलिए काशीमिश्र और सभी को बुलाकर उनसे सेवा माँग ली।
काशीमिश्र ने कहा, “आप इस सेवा के लिए प्रार्थना कर रहे हैं, कदाचित आप कोई लीला करके शिक्षा देना चाहते हैं।” उन्होंने सारी व्यवस्था कर दी।
महाप्रभु सबको लेकर गुण्डिचा गए। महाप्रभु किस भाव से जगन्नाथ को गुण्डिचा लेकर जाते हैं?
सेइ त’ पराण-नाथ पाइनु।
जाहा लागि’ मदन-दहने झुरि’ गेनु॥
(चै॰च॰ मध्य 13.113)
अर्थात् मैंने अपने प्राणनाथ को पा लिया है । रथ ऐश्वर्य लीला का स्थान(प्रतीक) है—हाथी, घोड़े इत्यादि। वहाँ से भगवान को ले जाते हैं—गुण्डिचा अर्थात् वृन्दावन।
राजा का नियम होता है—प्रजा का रंजन करना, प्रजा को सुख देना। इसीलिए सभी द्वारिकावासी सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र जाने के लिए तैयार हो गए। महाराज को भी जाना पड़ेगा। उत्सव के लिए सबको निमंत्रण दिया गया परन्तु ब्रजवासियों को निमंत्रित नहीं किया गया। नारद ऋषि ने देखा कि ब्रजवासी कितने प्यारे हैं। इन्होंने (कृष्ण के विरह में) खाना -पीना सब छोड़ दिया। इन्हें निमन्त्रण क्यों नहीं दिया? उनकी छाती फट गई, उनका हृदय बहुत दुःखी हो गया।
नारद जी ने कृष्ण के पास शिकायत की, “आपने सारी दुनिया को निमन्त्रित किया किन्तु ब्रजवासियों को निमंत्रण नहीं दिया। यह क्या बात है? मेरे हृदय में बहुत दुःख हो रहा है।” तब कृष्ण कहते हैं कि ब्रजवासी अपने हैं। क्या पुत्र पिता-माता को निमंत्रण करता है अथवा क्या पिता-माता पुत्र को निमंत्रण देते हैं? संबंधियों को निमंत्रण किया जाता है किन्तु जो घनिष्ट व्यक्ति है जैसे माता-पिता, उन्हें निमंत्रण नहीं दिया जाता। एक और कारण है कि उनको निमंत्रण करने से यहाँ पर ब्राह्मण लोग जो कर्मकाण्डात्मक यज्ञ आदि करेंगे, सब नष्ट हो जाएगा, द्वारिका-वासियों की इच्छापूर्ति नहीं होगी।
नारद ऋषि चुप हो गए। वृन्दावन कुरुक्षेत्र के निकट ही है, जब कृष्ण इतने निकट आ गए हैं, तो सभी ब्रजवासी कृष्ण दर्शन के लिए तड़प रहे थे। कृष्ण के सखाओं, गोपियों व सभी ब्रजवासियों ने विचार किया, “हम लोग तो ग्वाले-ग्वालिनें हैं, गोप जाति के हैं, गरीब हैं तथा कृष्ण तो महाराज है। उसकी तो कितनी महीषियाँ है। हम लोगों को वह क्यों मिलेगा? किन्तु पुत्र सब कुछ भूल सकता है परन्तु अपने माता-पिता को नहीं भूल नहीं सकता है, इसलिए यदि नन्द महाराज व यशोदा मैया को साथ ले जाएँ तब माता-पिता को तो देखेने के लिए तो अवश्य आएगा। तब हम लोगों को भी उससे मिलने का अवसर मिल जाएगा।”
इसलिए सभी ब्रजवासी नन्द महाराज तथा यशोदा मैया के पास गए व कहा—“हम तो गरीब ग्वाले हैं, कृष्ण महाराज है। हम लोगों के जाने से कदाचित भेंट न हो परन्तु जब आप जाएँगे तो आपको प्रणाम करने कृष्ण अवश्य आएगा। वह हम लोगों को भूल गया। हम गरीब है न, हमारे जाने से भी उससे भेंट नहीं होगी।” उनसे बहुत प्रार्थना की। तो नन्द बाबा और यशोदा मैया ने कहा, “ठीक है, हम जाएँगे। किन्तु यदि दर्शन नहीं हुए तो हम शरीर छोड़ देंगे, यह हमारी शर्त है।”
सभी बोले, “चिंता मत करें, अवश्य दर्शन होंगे।”
कुरुक्षेत्र में, महाराज कृष्ण रथ लेकर, सेना लेकर आए। बहुत बड़ी इमारत का निर्माण किया गया। किसी को कृष्ण से मिलने की अनुमति नहीं है। ब्राह्मण सूर्यग्रहण के उपलक्ष्य में यज्ञ कर रहे हैं। कृष्ण वहाँ बैठे हैं। सभी ब्रजवासी द्वार पर पहुंच गए।
द्वारपाल ने पूछा, “आप लोग कौन हैं?”
उन्होंने कहा, “हमारा पुत्र अन्दर है।”
“आपका पुत्र कौन है?”
“कृष्ण”
“नहीं, उनके माता-पिता तो देवकी-वसुदेव हैं। वे अंदर उपस्थित हैं। आप लोग कहाँ से आए हैं? आप तो गरीब हैं। आप लोग कैसे उनके माता-पिता हो सकते हैं? हम आप लोगों को अंदर नहीं जाने दे सकते। यह यहाँ पर कानून है।”
सभी ब्रजवासी रोने लगे।
“रोने से क्या होगा? आप कहते हैं कि वेआपके पुत्र हैं परन्तु उनके माता-पिता तो अन्दर हैं। आप लोग कहाँ से आए हैं, कुछ प्रमाण दीजिए।”
वहाँ पर चार द्वार हैं। वे सभी द्वारों पर गए, प्रार्थना की परन्तु उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया। तब उन्होंने प्रार्थना की कि थोड़ा सा द्वार खोल दो, हम दूर से ही उन्हें देख लेंगे।
“नहीं, हमारी नौकरी चली जाएगी। वहाँ सब ब्राह्मण हवन कर रहे हैं। हम आपको अन्दर नहीं जाने दे सकते।”
वे लोग सोचने लगे, “हमने तो पहले ही कहा था कि हम लोग गरीब हैं, कृष्ण हमें भूल गया होगा। अभी वह महाराज बन गया है। उसका कितना ऐश्वर्य है, कितनी महीषियाँ है। अब उससे मिलने की कोई आशा नहीं है। यशोदा मैया ने कहा मैं यह शरीर छोड़ दूँगी।”
“गोपाल…….गोपाल…….” चिल्लाकर वे रो पड़ी। महाराज यज्ञ स्थली में बैठे थे। वे साथ-साथ खड़े हो गए, रह नहीं सके, अपनी पोशाक फेंक दी। सब आश्चर्यचकित हो गए। कृष्ण निर्वस्त्र होकर छोटे बच्चे की तरह “माँ…..माँ…….” चिल्लाते हुए दौड़ने लगे। उनके अन्दर भी कष्ट था। दौड़कर माता की गोद में आकर बैठ गए। माता यशोदा की आँखों में भी अश्रु हैं, रोते-रोते “गोपाल….गोपाल….” पुकार रहे हैं। नन्द महाराज भी रोते-रोते “गोपाल……गोपाल…….” कह रहे हैं। जितने सखा हैं वे सब “भाई कन्हैया…..” पुकार रहे हैं। उन लोगों के आने के कारण कर्मकाण्ड चलेगा नहीं, सब नष्ट हो गया। ब्राह्मण भी आश्चर्यचकित हो गए कि यह क्या हो गया।
कृष्ण कहते हैं, “क्योंकि यहाँ सब ब्रजवासी आ गए हैं, अब यहाँ रहना सम्भव नहीं है। जल्दी से रथ ले आओ।”
कृष्ण ने ब्रजवासियों से कहा, “कुछ काम बाकी रह गया है, उसे समाप्त करके जितना शीघ्र होगा हम वापस आ जाएँगे।”
सभी गोपियों ने कहा, “हे गोपीनाथ! हे गोपीनाथ! वृन्दावने चलो हे गोपीनाथ!”
इसी भाव से महाप्रभु रथ को खींच रहे हैं। कुरुक्षेत्र से वृन्दावन ले जाएँगे।
गुण्डिचा अर्थात् वृन्दावन धाम। कृष्ण वहाँ दूसरे भाव में होते हैं। महाप्रभु रो-रोकर रथ खींचते हुए चलते हैं।
गोपियाँ कहती हैं, “यहाँ पर सब लोकारण्य—हाथी, घोड़े इत्यादि सब राजपुरुष लोग हैं। वृन्दावन है—पुष्पारण्य। हम लोगों को यहाँ अच्छा नहीं लग रहा। आपसे मिलकर अच्छा लग रहा है किन्तु आप वृन्दावन चलो। वृन्दावन में ऐश्वर्य नहीं है परन्तु माधुर्य है। वृन्दावन के सब भाव वहाँ प्रकाशित हैं।”
तब भगवान कहते हैं—
मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।
दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापन: ॥
(श्रीमद भागवतम 10.82.44)
“आपलोगों का मुझमें जो भक्ति है वही मुझे प्राप्त करने का कारण है। मेरा अहोभाग्य है कि तुम सब मुझे प्यार करती हो। मैं प्रेम से ही मिलता हूँ, अन्य किसी उपाय से नहीं। मैं आ रहा हूँ, तुम लोग चिन्ता मत करो।”
महाप्रभु ने उसी भाव से रथ खींचा। वही भाव देने के लिए महाप्रभु आए।
अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञानकर्म्माद्यनावृतम्।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ॥
जितनी प्रकार की हमारी इतर आकांक्षाएँ हैं, उन्हें झाड़ू देना। तृण, कंकर, धूलि सबको यहाँ से उठाकर दूर फेंकना पड़ेगा। हृदय में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रहनी चाहिए। ‘अन्याभिलाषिता शून्यम्’—वेद निषिद्ध विलास तो रहने ही नहीं चाहिएँ, यहाँ तक कि कर्म तथा ज्ञान को भी छोड़ना पड़ेगा। नरोत्तम ठाकुर ने लिख दिया,
ज्ञानकाण्ड कर्मकाण्ड, केवल विषेर भाण्ड।
‘अमृत’ बलिया येबा खाय।
नाना योनि सदा फिरे, कदर्य्य भक्षण करे,
तार जन्म अधः पाते याय॥
(प्रेमभक्ति चन्द्रिका)
(कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड विष के दो बर्तन के समान हैं। यदि कोई इन दोनों विषों को पीता है तथा घोषणा करता है कि वे दोनों अमृत के समान मीठे हैं, तो वह मानव योनि से गिर जाएगा तथा नाना योनियों में भ्रमण करते हुए, कई घृणित वस्तुएँ खाते हुए व अनेकों विषयों को भोगते हुए अपना बहुत समय व्यर्थ व्यतीत कर देगा।।)
कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड के द्वारा कोई भगवान को नहीं पा सकता है। सारी आकांक्षाओ को दूर करना पड़ेगा । इसलिए महाप्रभु ने स्वयं झाड़ू लगाया।
महाप्रभु ने अकेले जितनी धूलि, कंकर साफ करके इकठ्ठा किया, सबका मिलाकर भी उतना नहीं हुआ।
महाप्रभु ने सबको बहुत उत्साह दिया, और कहा ये इतर आकांक्षाएँ छोड़नी पड़ेगी। छोड़कर भगवान का भजन करना पड़ेगा। आकांक्षाओ को दूर करने के लिए नियम होता है—हरिनाम करना।
100 नए झाड़ू एवं 100 घड़े पानी से भरकर लाए गए। घट लेते हैं तो बोलते है “हरे कृष्ण”, देते हैं तो भी कहते हैं—“हरे कृष्ण”। सभी भक्त झाड़ू देते हुए, पानी डालते हुए, सफाई करते हुए, केवल ‘हरे कृष्ण’ कह रहे हैं।
महाप्रभु ने कहा, “सब भगवान का नाम करो, संकीर्तन करो।”
चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः-कैरव-चन्द्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम्।
आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम्॥
(श्रीशिक्षाष्टकम्-1)
स्वयं महाप्रभु स्वरूप दामोदर व राय रामानन्द के गले में हाथ डालकर कहते हैं, “नाम संकीर्तन कलौ परम उपाय।” नाम के अन्दर में ही सब कुछ है।
हरेर नाम हरेर नाम हरेर नामैव केवलम।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यधा।।
नामकीर्तन करते-करते सब मन्दिर मार्जन कर रहे हैं।