गत 25 अक्टूबर को आपकी दादी के आकस्मिक निधन का संवाद प्राप्त कर मुझे दुःख हुआ। यह स्वाभाविक है कि किसी परिवारजन का देहान्त होने पर परिवार के अन्य सदस्य दुःख से संतप्त होते हैं और प्रिय बन्धु के वियोग से शोकाकुल होते हैं।
किन्तु भगवान् कृष्ण गीता में कहते हैं, “जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जो अटल है उसके लिए शोक करना उचित नहीं है।” कोई भी इस जगत में सदा के लिए नहीं रहेगा। आज नहीं तो कल सभी को यह संसार छोड़ कर जाना ही होगा।
आपकी दादी ने आपको शिक्षा दी है कि इस शरीर का नाश होना निश्चित है, और इसलिए हमें पूर्णानन्द स्वरूप भगवान की प्राप्ति के लिए अतिशीघ्र स्वयं को माया के बन्धन से मुक्त करने की तैयारी करनी होगी। हमें माता-पिता, सन्तान व बन्धु बांधवों से जो सम्बन्ध अनुभव होता है वह अविद्या कल्पित है; इस जगत में कोई भी हमारा आत्मीय नहीं है। हम बन्धु बांधवों को अपने आत्मीय मानते हैं और इस मोह जनित स्नेह के कारण शोक करते हैं। न वे हमारी इच्छा से आए हैं और न ही हमारी इच्छा से जाएँगे। वे भगवान् की इच्छा से आए हैं और भगवान् की इच्छा से ही जाएँगे। वास्तव में सभी भगवान् के हैं। भगवान् श्रीकृष्ण से अपने नित्य सम्बन्ध की विस्मृति ही हमारे बन्धन व दुखों का मूल कारण है। हमें पूर्ण रूप से भगवान् में शरणागत होना होगा व प्रत्येक परिस्थिति में उनका स्मरण करना होगा।
मुझे यह जानकर अतिशय दुःख लगा कि आपके पुत्र का दुर्घटना में देहान्त हो गया। पुत्र-वियोग को सहन कर पाना किसी भी माता-पिता के लिए कष्टदायक होता है। दुर्घटना में होने वाली मृत्यु से अतिशय दुःख होता है जिसे सहन कर पाना अति कठिन है। समय ही एकमात्र उपचार है।
श्रीवसुदेव व श्रीदेवकी देवी, जिन्हें भगवान् श्री कृष्ण को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उन्हें कंस के द्वारा एक-एक करके अपने छह पुत्रों की हत्या का अति-भीषण कष्ट सहन करना पड़ा था। वे दोनों महात्मा थे। उन्हें इतने अति-भीषण कष्ट को क्यों सहना पड़ा, यह समझना हमारे लिए कठिन है। वास्तव में, उनकी विरह वेदना इतनी तीव्र नहीं थी, जितना हमें प्रतीत होता है, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि जागतिक-संबंध क्षणभंगुर हैं व सभी जीव अपने द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगते हैं। जब तक उनके लिए इस जगत में अपने कर्मों के फल को भोगना तय है, तब तक वे यहाँ रहते हैं। जब कर्मों का फल समाप्त हो जाता है, उन्हें इस जगत को छोड़कर अन्य स्थान पर जाना होता है। वह अंतिम समय किसी भी प्रकार—कोई दुर्घटना, ज्वर, हृदयरोग इत्यादि—से आ सकता है। जो अनिवार्य है उसे हमें सहन करना होगा। शास्त्रों में लिखा है कि वसुदेव व देवकी देवी के छह पुत्रों के पूर्व-जन्म में ऐसे कर्म थे जिसके कारण उनकी मृत्यु कंस के द्वारा होनी निश्चित थी। कर्मों का यह चक्र सबके लिए चल रहा है।
लौकिक सम्बन्ध वास्तविक नहीं हैं; वे सदैव परिवर्तनशील हैं। हमारा यथार्थ संबंध भगवान् श्रीकृष्ण के साथ है। वास्तव में हमें, भगवान् श्रीकृष्ण से अपने सम्बन्ध की विस्मृति के लिए संताप करना है, क्योंकि वे ही हमारे वास्तविक प्रियतम हैं।
श्रीकृष्ण की इच्छा से ही जीव जन्म और मृत्यु को प्राप्त करते हैं, अतः कभी वे आते हैं और कभी वे चले जाते हैं। भ्रमवश हम उन्हें अपना समझ लेते हैं। एक समय आएगा जब सारा ब्रह्मांड नष्ट हो जाएगा और भगवान् श्रीकृष्ण सभी जीवों को ले जाएँगे। कोई भी उनकी स्वतन्त्र इच्छा में बाधा नहीं दे सकता। इसलिए, परम मंगलमय पूर्ण तत्त्व (श्रीभगवान्) की स्वतन्त्र इच्छा को स्वीकार करने में ही बुद्धिमत्ता है।
भगवान् श्रीकृष्ण हमें श्रीमद् भगवद् गीता में शिक्षा देते हैं कि जो अटल है उसके लिए शोक करना उचित नहीं है। जिसका जन्म हुआ है, एक न एक दिन उसकी मृत्यु अनिवार्य है।
श्रील गुरुदेव एवं भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण शरणागत होकर निरन्तर श्रीकृष्ण नाम ग्रहण करें। हरिनाम आपके हृदय की वेदना को दूर कर देगा व शांति प्रदान करेगा। मेरे पास आपको सांत्वना देने के लिए और शब्द नहीं है।
परम कृपामयी भगवान् श्रीकृष्ण दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें।
हमने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनके संग से हम इतने शीघ्र व सहसा वंचित हो जाएँगे। वे श्रील गुरुदेव के प्रति अपनी भक्ति व पंजाब में अद्भुत प्रचार कार्य के लिए भारत व बांग्लादेश की हमारी सभी मठ-शाखाओं में सुविख्यात थे। उनके आकस्मिक निधन पर सभी शोक कर रहे हैं और हमें विभिन्न व्यक्तियों से अनेकों पत्र प्राप्त हो रहे हैं। भगवद इच्छा के प्रति समर्पण व विरह वेदना को सहन करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। उनका आकस्मिक निधन हमें जन्म-मृत्यु के चक्र से निकलने व श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति के लिए यत्नशील होने के लिए संकेत दे रहा है क्योंकि किसी भी क्षण हमारी मृत्यु हो सकती है व हम इस अमूल्य अवसर को खो सकते हैं।
जिसका कोई विकल्प नहीं है उसे सहन करने के लिए हम विवश हैं। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के उपरान्त जन्म निश्चित है। जो अटल है, उसके लिए शोक करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने निषेध किया है। ‘प्रारब्ध-कर्म-निर्वाणो न्यापतत पंच-भौतिक:’ अर्थात् प्रारब्ध कर्मों के फल के समाप्त होने पर यह शरीर का अन्त हो जाता है। यह अंत व्याधि, दुर्घटना आदि से हो सकता है, किन्तु ये सभी केवल निमित्त हैं। जीवों का आवागमन श्रीकृष्ण की इच्छा से होता है। अज्ञानतावश हम उन्हें अपना मान लेते हैं व उनमें अपनी आसक्ति के कारण दुःख प्राप्त करते हैं। किसी का जीवन-मरण हमारी इच्छा से नहीं होता है।
जीव जब श्रीकृष्ण से विमुख हो जाते हैं, श्रीकृष्ण की माया शक्ति उन्हें आच्छादित कर जन्म-मृत्यु व त्रिताप रूपी संसार-दुःख के सागर में डूबा देती है। हम भूलवशतः स्वयं को देह व देह सम्बन्धी अन्य व्यक्तियों को अपना बन्धु मानते हैं। वास्तव में हम श्रीकृष्ण के हैं व श्रीकृष्ण हमारे हैं। दुःख का कोई वास्तव अस्तित्व नहीं है। दु:ख की अनुभूति एक स्वप्न की भांति है। जब हम श्रीकृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल जाते हैं तब दु:खों से ग्रस्त हो जाते हैं। शुद्ध भक्त, निरंतर श्रीकृष्ण-स्मरण के कारण दुःख की अनुभूति रूपी इस स्वप्न से परे होते हैं।