आज श्रीचैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय श्रीवक्रेश्वर पण्डित की आविर्भाव तिथि है। षड्गोस्वामियों ने स्वयं इस प्रकार आचरण करके दिखाया कि यह बात नहीं है, कि केवल आविर्भाव और तिरोभाव में ही हम वैष्णवों को स्मरण करेंगे व उनका महात्म्य-कीर्तन करेंगे, उनकी कृपा प्रार्थना करेंगे। वे प्रतिदिन हज़ारों वैष्णवों के उद्देश्य में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते थे; जो श्रीचैतन्य महाप्रभु के पार्षद हैं एवं जो हम लोगों को यह शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण हुए कि कैसे भगवान का भजन करना पड़ता है? भक्तों की कृपा के बिना भजन सम्भव नहीं है। यह बात जब तक समझ न आए, तब तक भक्ति राज्य में प्रवेश नहीं होगा।

भक्तिस्तु भगवद्भक्त संगेन परिजायते।
सत्संगः प्राप्यते पुभिः सुकृतैः पूर्व संचितैः॥

भगवद् भक्त के संग से ही भक्ति होती है, ऐसे नहीं होगी।

रहूगणैतत्तपसा न याति
न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यै-
र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्॥
(श्रीमद्भागवत 5.12.12)

जड़ भरत राजा रहूगण को कहते हैं कि यह परमात्म ज्ञान तपस्या से नहीं मिलेगा, ब्रह्मचर्य इत्यादि द्वारा नहीं मिलेगा, ‘न च इज्यया’—अर्चन-पूजन द्वारा नहीं मिलेगा ‘निर्वपणाद्’—संन्यास धर्म लेने से भी नहीं मिलेगा, संतान उत्पादन धर्म छोड़ देने से भी नहीं मिलेगा,‘गृहाद्वा’—घर में रहने से भी नहीं मिलेगा,‘न छन्दसा’—बहुत वेद ज्ञान होने से भी नहीं मिलेगा। इसका जीवन्त उदाहरण देवानन्द पण्डित के प्रसंग में आता है। देवानन्द पण्डित बाहर के विचार से निष्ठावान व्यक्ति थे। उन्होंने सब इन्द्रियों पर जय प्राप्त कर ली थी तथा पुराण तत्त्वविद् थे। वे कृष्णलीला में भागुरि मुनि हैं। उनके माध्यम से हम सबको शिक्षा देने के लिए भगवान ने ऐसी लीला रची। श्रीदेवानन्द पण्डित जागतिक दृष्टि से बहुत ही चरित्रवान व्यक्ति थे। वे भागवत के अतिरिक्त अन्य कुछ भी पाठ नहीं करते थे। उनके समान पण्डित व्यक्ति का भी, नारद के अभिन्न स्वरूप, श्रीवास पण्डित के चरणों में अपराध हो गया। ऐसा होने के साथ ही साथ महाप्रभु उनपर क्रोधित हो गए। वैष्णव अपराध होने से सब नष्ट हो जाता है।

यदि वैष्णव-अपराध उठे हाथी माता।
उपाड़े वा छिंडे ता शुखि जाय पाता।

रूप गोस्वामी ने लिखा किहम लोगों को भक्ति लाभ कैसे होती है। बहुत प्रकार के विघ्न हैं किन्तु उनमें सबसे गुरुतर है—वैष्णव अपराध। ऐसा करने से भगवान साथ-साथ में अप्रसन्न हो जाएँगे। सब नष्ट हो जाएगा।

महाप्रभु ने दिखाया कि जब वैष्णव के चरणों में अपराध होता है तो उसी वैष्णव के पास जाकर क्षमा-याचना करनी पड़ती है। अन्य किसी के पास जाने से नहीं होगा। श्रीवास पण्डित साक्षात् नारद गोस्वामी हैं। कृष्ण के परम प्रिय हैं। उनका अपमान करने ले लिए दुर्मुख वाचाल पाखण्डियों में प्रधान गोपाल-चापाल नामक ब्राह्मण ने श्रीवास को अपमानित करने के लिए जवाफूल (लाल फूल), लाल चन्दन, मदिरा के पात्र आदि जितनी प्रकार की देवी पूजा की सामग्री है, उनके घर के सामने रख दी। सब भक्त भीतर में संकीर्तन कर रहे थे। प्रात: काल जब द्वार खोला गया और सामने यह सब देखा तो श्रीवास पण्डित ने हँसते हुए कहा–मैं कृष्णभक्त नहीं हूँ, मैं तो देवी पूजा करता हूँ। किन्तु सज्जन व्यक्ति यह सब देखकर अत्यन्त दुःखी हुए, किसी ने विश्वास नहीं किया, उन्होंने सफाई करने वाले व्यक्ति को बुलवाकर उस स्थान का परिष्कार करवाया। वैष्णव कुछ नहीं कहते(वैष्णव किसी का प्रतिवाद नहीं करते) किन्तु गोपाल चापाल का अपराध हो गया। इस कारण उन्हें कोढ़ हो गया। उसके बाद वह गंगा में गया।

विदेशी भक्तों के लिए, मैं जो बोल रहा हूँ, उसे किसी को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करना पड़ेगा, वैसे भाषा ज्ञान होने से कुछ नहीं होता है। यदि आपकी श्रवण करने की हृदय से इच्छा है तो आप अवश्य ही समझ पाएंगे। जो विष्णु सेवा में शरणागत हुए हैं, स्वयं को दे चुके हैं, विष्णुभक्त के चरण में स्वयं को दे चुके हैं, संसार में ऐसे व्यक्ति का मिलना बहुत कठिन है। जो भगवान और उनके अभिन्न स्वरूप भक्त के चरणों में एकान्तिक रूप से शरणागत हो चुके हैं, उनके अन्तःकरण में हरिकथा स्वतः स्फुरित होती है। हम हरिकथा अपने प्रयास से कह देंगे, इस प्रकार से नहीं होता।

इसीलिए कहा—

‘र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्’—महाजन के पादपद्मों की रज से अभिषिक्त हुए बिना अन्य किसी भी प्रकार से भक्ति नहीं होगी।

वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु को नन्दनन्दन कृष्ण से अभिन्न दर्शन करते हैं। द्वारिका में नन्दनन्दन कृष्ण का ऐश्वर्य रूप है। द्वारिका में आदि चतुर्व्यूह है—वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न व अनिरुद्ध। यह अनिरुद्ध ही वक्रेश्वर पण्डित हैं, भगवान से अभिन्न हैं। द्वितीय चतुर्व्यूह बैकुंठ में है। नारायण के भी विस्तार—वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न व अनिरुद्ध हैं। वक्रेश्वर पंडित कृष्ण से, महाप्रभु से अभेद हैं। इसके अतिरिक्त श्रीराधा रानी की प्रिय सखी शशि रेखा भी श्रीवक्रेश्वर पण्डित में प्रविष्ट हैं।

यह कैसे सम्भव है(कि वक्रेश्वर पण्डित में युगपत् अनिरुद्ध भी हैं तथा सखीभाव भी है)? अर्जुन कृष्ण के सखा हैं। भगवान को भी आज्ञा दे देते हैं—‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।’ उनका भी गोपी भाव है अर्जुनीया सखी के रूप में। श्रीराय रामानन्द प्रसंग में इसका वर्णन पाया जाता है। भगवान स्वयं आनन्द प्राप्त करने के लिए अपने शुद्ध भक्तों से अनेकों रूपों से सेवा ग्रहण करते हैं।

श्रीवक्रेश्वर पण्डित ने अद्भुत भजन आदर्श दिखाया। हम लोग अपने समय 10 मील पैदल-पैदल ही स्कूल चले जाते थे। किन्तु आजकल के समय में यदि किसी को इतना पैदल चलना पड़े तो वह कहेगा कि मैं तो मर ही जाऊँगा इतना पैदल चलकर।

महाप्रभु के पार्षद वक्रेश्वर पण्डित ने 24 प्रहर अर्थात् निरन्तर 3 दिन नृत्य लगातार किया था। स्वयं महाप्रभु ने उनके नर्त्तन में कीर्तन किया तथा वक्रेश्वर पण्डित ने महाप्रभु का निरन्तर दर्शन किया। श्रीजगन्नाथ पुरी में रथयात्रा के समय सप्त सम्प्रदायों में से चतुर्थ सम्प्रदाय में गोविन्द मूल कीर्तनीया थे तथा वक्रेश्वर पण्डित उनके साथ नृत्य करते थे।

जब हम नगर संकीर्तन में जाते हैं तो लगभग 3 घण्टे लग जाते हैं। उसमें तीन-चार व्यक्ति कीर्तन करते हैं एवं वे उतने में भी थक कर चूर हो जाते हैं। परन्तु वक्रेश्वर पण्डित ने लगातार तीन दिन तक नृत्य किया। क्या यह साधारण मनुष्य के लिए सम्भव है? शुद्ध भक्तों के लिए सम्भव है। भगवान के लिए सम्भव है।

दश सहस्त्र गन्धर्व मोरे देह चन्द्रमुख।
तारा गाय, मुइ’ नाचि तबे मोर सुख॥

वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु के पास प्रार्थना करते हैं कि आप मुझे दस हज़ार गन्धर्व दे दें ताकि वे गाएँ तथा मैं उनके सामने नृत्य करूँ, तभी मुझे सुख प्राप्त होगा। निरन्तर तीन दिन तक नृत्य करते रहने पर भी उन्हें कष्ट का अनुभव नहीं हुआ। देखने से प्रतीत होता है कि वे लोग हमारी तरह ही हैं किन्तु ऐसा नहीं है, उनका शरीर हमारे जैसा नहीं है। ब्रह्मा को भी भगवान का स्वरूप समझने में भूल हो गई थी।

जब रासलीला में सब गोपियाँ आनन्द में नृत्य कर रही थीं तब श्रीक़ृष्ण अचानक रासस्थली से अन्तर्धान हो गए। उनके विरह से सब गोपियाँ रोने लगीं। जब रोते-रोते वे श्रीकृष्ण को ढूँढ रही थीं तो श्रीकृष्ण उनके सामने शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण के रूप में प्रकट हो गए। तब गोपियों ने सोचा कि नारायण से हमारा सम्बन्ध नहीं है। इसलिए वे सब उन्हें प्रणाम करके चली गईं। किन्तु जब राधा रानी आईं, जिनका शतकोटि गोपियों से भी अधिक प्रेम है, तो श्रीकृष्ण की दो भुजाएँ उनके भीतर प्रविष्ट हो गईं तथा वे द्विभुज कृष्ण बन गए। राधा रानी का ऐसा प्रेम है। उस स्थान को कहते हैं—पैठा धाम। अपभ्रंश भाषा में उसे परसौली कहते हैं। जैसे चक्रदह को अपभ्रंश भाषा में चाकदाह कहते हैं। चक्रदह अर्थात् चक्र का ध्वंस होना।

भगवान की अनेक लीलाएँ हैं। श्रीकृष्ण ने व्रज में इन्द्र पूजा बन्द करवाकर गोवर्धन पूजा का प्रवर्तन किया था। इससे कुपित होकर इन्द्र ने बहुत वर्षा की थी। सब जगह पानी-पानी हो गया, बाढ़ आ गई। सब भगवान का नाम लेकर चिल्लाने लगे। तब कृष्ण सबको कहते हैं कि तुम घबराओ नहीं, अपना सारा सामान बैलगाड़ी में रखकर मेरे पास आ जाओ। मैं गोवर्धन को उठा लूँगा। गोवर्धन का परिमाण उस समय चौंसठ मील था। किन्तु पुलस्त्य मुनि के अभिशाप के कारण अब उसका परिमाण घटते-घटते सात मील रह गया। धीरे-धीरे पूरा अन्तर्धान करेगा। अन्तर्धान होने से विश्व की परिस्थिति बहुत खराब होगी।

कृष्ण के वचन सुनकर सब वहाँ आ गए। सभी सोचने लगे—“कृष्ण तो छोटा बच्चा है, इतने विशाल पर्वत को वह कैसे उठाएगा? कृष्ण के हाथ तो बहुत कोमल हैं। इतने कोमल हाथों से यदि पहाड़ उठाएगा तो चोट लग जाएगी। इसलिए हम इसे गोवर्धन उठाने की अनुमति नहीं दे सकते। पहले परीक्षा करके देखेंगे।” तब सखाओं ने एक बहुत बड़ा कदम्ब का पेड़, जिसे बड़े-बड़े बलवान व्यक्ति भी उठा नहीं सकते थे, उसकी ओर इशारा करते हुए कृष्ण को कहा कि क्या तुम इस वृक्ष को घुमा सकते हो? तब कृष्ण ने उसे बिना किसी प्रयास के सहज ही घुमा दिया।

We cannot understand. It is all beyond our comprehension. All Powerful can do anything.(हम इन विषयों को नहीं समझ सकते। यह हमारे चिन्ता से अतीत हैं। सर्वशक्तिमान भगवान कुछ भी कर सकते हैं।) जो लोग कहते हैं कि यह सब घटनाएँ झूठ हैं अथवा काल्पनिक हैं, उनका भाग्य खराब है। उनका नास्तिक भाव प्रबल है जिसके द्वारा वे प्रत्येक क्षण जन्म-मृत्यु आदि त्रिताप ज्वाला में जलकर मरेंगे तथा नरकगामी होंगे।

कृष्ण के सखा यह नहीं देखते कि कृष्ण भगवान हैं, भगवान होते हुए भी उनका भाव ऐसा है कि यह तो हमारी तरह ही है; उनका कृष्ण के प्रति सख्यप्रेम है। तब कृष्ण ने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। सब देखकर हैरान हो गए कि यह कैसे किया। पहाड़ को उठा लिया और इतना बड़ा पहाड़! यदि गिर जाए तब क्या करेंगे? तब सभी सखाओं ने अपनी-अपनी लाठी पर्वत के नीचे लगा दी। सभी व्रजवासियों ने सात दिन, सात रात्रि तक कुछ नहीं खाया, कुछ नहीं पिया, सोए भी नहीं। आँखें तक बंद नहीं कीं। भगवान को निष्पलक नेत्रों से देखकर उनका खाना-पीना सब हो गया। कोई मरा नहीं। क्या दर्शन किया? उनके दर्शन से ही सब कुछ मिल गया। उनका शरीर और सुंदर हो गया। हम लोगों को यदि सुबह का खाना न मिले तो हम कहते हैं कि यह भंडारी अच्छा नहीं है, हम लोगों को मारने के लिए आया। वहाँ पर सात दिन सात रात्रि तक सभी भूखे रहे। वे लोग चाहते हैं कि सब समय कृष्ण का दर्शन करें। कृष्ण ने उनकी इच्छापूर्त्ति करने के लिए ऐसी लीला की। वहाँ गोप-गोपी सब कृष्ण को ही देख रहे हैं। उनको देखकर सबको इतना आनन्द हो रहा है कि किसी को भूख, प्यास अथवा नींद का अनुभव ही नहीं हो रहा।

नैषातिदु:सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्॥

परीक्षित महाराज के संबंध में भी ऐसा कहा जाता है। जब परीक्षित महाराज शुकदेव गोस्वामी से हरिकथा श्रवण कर रहे थे तब शुकदेव गोस्वामी कहते हैं कि आप कुछ विश्राम कीजिए, थोड़ा भोजन कीजिए अथवा पानी ही पी लीजिए, नहीं तो आपका स्वास्थ्य खराब हो जाएगा। जो प्यास बहुत कष्टदायक है, भूख बहुत कष्टदायक है वह महाराज परीक्षित को अनुभव ही नहीं होरहा था। क्या वे झूठ कह रहे हैं? क्या वेदव्यास मुनि ने भागवत में झूठ लिखा है? परीक्षित महाराज ने शुक्रताल में झूठ कहा? नहीं। तब यह कैसे सम्भव हुआ?

पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्।

अर्थात् महाराज परीक्षित कहते हैं कि आपके मुखारविन्द से मैं सब समय कथामृत पान कर रहा हूँ। मुझे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है। आप चिन्ता मत कीजिए। भगवान का दर्शन जब वास्तव में हो, तभी ऐसा सम्भव है। यदि Challenging Mood लेकर जाएँगे तो भगवान भी नहीं देख पाएँगे, भगवान के भक्त भी नहीं देख पाएँगे, कुछ भी नहीं देख सकेंगे। जैसे ब्रह्मा ने सोचा कि कृष्ण ग्वाले का पुत्र है, उन्हें भगवान नहीं समझा; हम भी भक्तों को नहीं समझेंगे, भगवान को भी नहीं समझेंगे।

You will be deprived of actual real eternal benefit if you have no actual belief in Supreme Lord, no actual surrender to the Supreme Lord. (हम वास्तविक लाभ से वंचित हो जाएँगे यदि हमारा भगवान में विश्वास ही नहीं होगा, उनमें शरणागति ही नहीं होगी।)

वक्रेश्वर पण्डित के वचनों को सुनकर महाप्रभु कहते हैं—

प्रभु बलेन,—तुमि मोर पक्ष एक शाखा।
आकाशे उड़िया जाङ, पाङआर पाखा’॥

अर्थात् तुम मेरे एक पंख हो, कहीं तुम्हारे जैसा एक और पंख मिल जाए तो मैं आकाश में उड़ जाऊँ।

वक्रेश्वर पण्डित साक्षात् कृष्ण हैं, कृष्ण तत्व हैं। तत्त्व तो दो-तीन-हज़ार नहीं होते। भगवान हज़ार नहीं होते हैं। केवल लीला में अन्तर है। वक्रेश्वर पण्डित कृष्ण की पूर्ण शक्ति हैं। जब उनकी कृपा हो तो भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। हम लोग कृष्ण की प्राप्ति के लिए इच्छा रखते हैं। यदि वक्रेश्वर पण्डित में भक्ति हो जाए तो कृष्ण की प्राप्ति हो जाएगी।

देवानन्द पण्डित बहुत अच्छे वक्ता थे, उनके अनेक शिष्य थे, आचरण भी अच्छा था, जितेन्द्रिय थे। किन्तु उनकी भागवत की व्याख्या भक्तिपर नहीं, ज्ञानपर है। उनका महाप्रभु के ऊपर विश्वास नहीं था। जब नारदजी के अवतार श्रीवास पण्डित उनका भागवत पाठ सुनने के लिए गए तो उनका भाव उदित हो गया एवं और वे भाव में चिल्लाए। ऐसा करने से देवानन्द पण्डित के शिष्यों ने श्रीवास को सभा से निकाल दिया। यह देखकर भी देवानन्द पण्डित कुछ नहीं बोले। इससे महाप्रभु उनपर क्रोधित हो गए तथा कहा—इस देवानन्द का भागवत पाठ करने का कोई अधिकार ही नहीं है।

देवानन्द पण्डित कृष्णलीला में भागुरी मुनि हैं। भागुरी मुनि नन्द महाराज के सभा-पण्डित हैं। उन्होंने इस प्रकार की लीला हमें यह शिक्षा देने के लिए की कि यदि हमारा कोई ऐसा अभिमाना हो कि अपनी बुद्धि अथवा पाण्डित्य द्वारा हम शास्त्र समझ लेंगे, भागवत समझ लेंगे यह सम्भव नहीं है। भक्ति के अतिरिक्त किसी भी माध्यम से उनको को समझा नहीं जा सकता। ‘भक्त्याहम् एकया ग्राहयम्’—भगवान को प्रकाशित करने वाला शास्त्र भी भक्ति द्वारा ही मिलेगा।

अपने शिष्यों को ऐसा निन्दित कार्य करने से न रोकने के कारण उनका वैष्णव अपराध हो गया। इससे महाप्रभु ने उन पर बहुत क्रोधित हुए। अपराध के करण महाप्रभु में उनको विश्वास नहीं है एवं शुद्ध भक्ति को भी ग्रहण नहीं कर प रहे थे। चैतन्य भागवत में इस प्रकार लिखा है—

भक्ति बिनु भागवत ये आर बखाने।
प्रभु वले से अधम किछुइ न जाने॥
निरवधि भक्ति हीन ए व्याटा बखाने।
आज पूंथि चिरव देखह विद्यमाने॥
(चै.भा.म21/20-21)

भक्ति को छोड़कर जो श्रीमद् भागवत पुराण की कोई अन्य प्रकार की व्याख्या करते हैं, महाप्रभु कहते हैं कि वे भागवत के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते हैं। देवानन्द की तरफ इशारा करते हुये महाप्रभु कहते हैं कि ये बेटा निरन्तर भक्तिहीन ही व्याख्या करता है। आप सभी के सामने आज मैं इसकी पुस्तक फाड़ दूँगा।

महाप्रभु ने कहा कि उनकी भागवत छीन कर ले आओ। उन्हें भागवत पढ़ने का अधिकार नहीं है। किन्तु जब वक्रेश्वर पण्डित देवानन्द पण्डित के घर में रहे एवं जब उन्होंने उनकी सेवा की तब महाप्रभु प्रसन्न हो गए। वैष्णव अपराध भयंकर अपराध है। अपराध करते रहेंगे और भक्ति होगी यह असम्भव है। चाहे वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे गृहस्थ हो, संन्यासी हो अथवा किसी भी आश्रम का क्यों न हो, अपराध करने से सब चला जाएगा।

यदि वैष्णव अपराध उठे हाती माता।
उपाड़े वा छिण्डे तार शुखि जाय पाता॥

जो नारद गोस्वामी के प्रकाश हैं, उन श्रीवास पण्डित के चरणों में उनका अपराध होने से भगवान अप्रसन्न हो गए। तब उनका भागवत पाठ करने से क्या लाभ है? यहाँ एक और बात है कि जिन वैष्णव के चरणों में अपराध होता है उनके पास क्षमा माँगने से ही मार्जन होता है। जब गोपाल चापाल को कोढ़ बीमारी हुआ तब महाप्रभु उसे कहते कि तुमने ऐसा घृणित कार्य किया है। तुमने श्रीवास से भवानी पूजा करवाई। तुम्हें करोड़ जन्म इसी प्रकार कीड़ों से खिलवाऊँगा। महाप्रभु अन्तर्यामी हैं, वे सब जानते हैं।

श्रीमन्महाप्रभु जब नीलाचल से अपराधभंजन पाट-कुलिया(कोलद्वीप-वर्तमान शहर नवद्वीप) में आए तो उस समय जब गोपाल-चापाल ने रोग से मुक्ति के लिए प्रार्थना की तो श्रीमन् महाप्रभु को दया आ गई तथा उन्होंने उसे श्रीवास पण्डित के चरणों में क्षमा प्रार्थना करने के लिए कहा। श्रीवास पण्डित के चरणों में क्षमा याचना करके गोपाल चापाल का उद्धार हो गया।

एक और उपाय है। जिस मुख से वैष्णव निंदा करते-करते विषपान किया उसी मुख से सब समय वैष्णव का महिमा कीर्तन करने से अमृत आकर विष को निकाल देगा।

चाहे कनिष्ठ हो, मध्यम हो अथवा उत्तम हो, महाभागवत सारी दुनिया को ही वैष्णव देखते हैं। वह सोचते हैं कि मैं ही एकमात्र वैष्णव नहीं हूँ। जबकि हमारा ऐसा अभिमान है कि मैं ही एकमात्र वैष्णव हूँ, अन्य कोई भी वैष्णव नहीं है। जो वास्तव में वैष्णव है वह देखता है कि मेरे भीतर सारे अवगुण हैं तथा सब भगवान के भक्त हैं।

स्थावर जंगम देखे ना, देखे तार मूर्ति।
सर्वत्र हय निज इष्टदेव स्फूर्ति।।

इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने अपराध से सावधान कर दिया।

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥

हम मुख से कहते हैं किन्तु वास्तव में वैसा आचरण नहीं करते। हम में तृण के समान सुनीचता है ही नहीं। पेड़ से भी अधिक सहनशील होने को कहा गया है। थोड़ा सा इधर-उधर हो जाने से गुस्सा आ जाता है, जैसे सारी दुनिया को ही जला देंगे।

‘अमानिना मानदेन’—किसी से मान की इच्छा मत रखो, सबको मान दो।

जीवे सम्मान दिबे जानि कृष्ण अधिष्ठान।

इस प्रकार जब वक्रेश्वर पण्डित देवानन्द पण्डित के घर में रहे, तब उनका महाप्रभु के चरणों में विश्वास हो गया। उन्होंने महाप्रभु की कृपा लाभ की तथा उनका सब अपराध चला गया।

जिस मुख से इतने दिन वैष्णव निंदा की उसी मुख से सब समय वैष्णव महिमा करनी होगी। संसार में जितने लोग हैं, सब में गुण व दोष हैं। हमें गुण को देखना चाहिए। वैष्णव, जो विष्णु के हैं, वे केवल यही देखते हैं कि मैं विष्णु का हूँ एवं सब विष्णु के हैं। यह छोड़कर अन्य कुछ नहीं देखते। वे किसी को उपदेश नहीं करते। मध्यम भागवत लीला में उपदेश होता है। महाभागवत लीला में उपदेश होता नहीं है, क्योंकि वे किसी से स्वयं को श्रेष्ठ मानते ही नहीं।

आज वक्रेश्वर पण्डित की आविर्भाव तिथि में अवसर मिल गया वक्रेश्वर पण्डित को स्मरण करने का। वे महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय हैं, उनकी पूर्ण शक्ति हैं। महाप्रभु कहते हैं कि यदि मुझे प्राप्त करना है तो वक्रेश्वर पण्डित में भक्ति होनी चाहिए। जो उनकी भक्ति करेगा, वह मुझे प्राप्त कर लेगा। हम भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं।

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।

भगवान सब के स्वामी हैं। Masculine phase of Godhead not neutral phase of Godhead.

We are moving in this world, there are so many living beings, if there is life there is attraction but lifeless means devoid of everything. Even if a spark of that conscious principle is existing in the body, till that time bliss is there. Dead body does not give satisfaction to anyone. Actually we have got no belief that all jivas are coming from the cause of all causes i.e Supreme lord. We are having an actual eternal relationship with Him.

(हम इस जगत में भ्रमण कर रहे हैं। यहाँ बहुत सारे प्राणी हैं। जब तक प्राण हैं, तब तक आकर्षण रहता है। प्राण निकालने से सब चला जाता है। मृत शरीर का कोई आनन्द नहीं है। वास्तव में हम इस बात पर विश्वास नहीं करते कि सभी जीव कारणों के कारण भगवान से ही आ रहे हैं। हमारा उनसे नित्य सम्बन्ध है। जब हम इस सम्बन्ध को भूल गए तो संसार में आना पड़ा।)

वक्रेश्वर पण्डित के एक शिष्य थे—गोपाल गुरु। पहले इनका नाम मकरध्वज पण्डित था तथा इनके पिताजी का नाम श्रीमुरारि था। वक्रेश्वर पण्डित का बालक मकरध्वज में बहुत प्रेम था। वे उस बालक को स्नेह से गोपाल-गोपाल कहकर बुलाते थे। एक बार एक त्रिदण्डी संन्यासी आए। आकर जब वह शौचादि क्रिया करने के लिए गए, तो मकरध्वज भी वहाँ साथ में जाने लगा। तब वह महात्मा उस बालक को कहते हैं कि तुम यहाँ क्यों आते हो? बाहर जाओ। उस महात्मा ने सब समय हरे कृष्ण महामन्त्र उच्चारण करने का अभ्यास बना लिया था। उनकी जिह्वा स्वयं चलने लगती थी। तब वह महात्मा कहते हैं कि अभी तो गंदा काम कर रहा हूँ, अभी तो भगवान का नाम नहीं करना चाहिए। उस समय उसने अपनी जिह्वा को खींचकर रखा था। तब वह बालक पूछता है कि यह आप क्या कर रहे हैं? महात्मा कहते हैं कि मैं अपनी अपवित्र अवस्था में हूँ। तब भगवान का नाम नहीं करना चाहिए। तब बालक कहता है कि भगवान का नाम सब समय करना चाहिए। मल-मूत्र त्याग करते समय भी करना चाहिए। यदि उस समय दूसरा नाम करें व मर जाएँ तो क्या गति होगी?

उसी समय महाप्रभु ने कहा कि यह बालक गोपाल गुरु है। तब से उनका नाम गोपाल गुरु हुआ।

श्रीरामदास(श्रील अभिराम ठाकुर) नित्यानन्द प्रभु के पार्षद थे। यदि कोई शिला विष्णुशिला अथवा शालिग्राम नहीं है, एक साधारण पत्थर है, तो वह इनके प्रणाम करने से फट जाती थी। विग्रह यदि भक्त द्वारा प्रतिष्ठित न हो तो वह टूट जाएगा। वे किसी व्यक्ति को प्रणाम करे और यदि भक्त न हो, अभक्त हो तो वह मर जाएगा। एक समय उन्होंने कहा कि मैं गोपाल गुरु के पास उन्हें प्रणाम करने जाऊँगा। जब वे गोपाल गुरु के पास पहुँचे तो सब भयभीत हो गए। सब बालक से प्रेम करते हैं। जब रामदास बालक को प्रणाम करने आए तब वह दौड़कर महाप्रभु की गोद में जाकर बैठ गया और महाप्रभु ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया। जब उन्होंने प्रणाम किया तो कुछ भी नहीं हुआ। इस तरह गोपाल गुरु चौंसठ महंतो में से एक महन्त बन गए।

वक्रेश्वर पण्डित की तरह उनके शिष्य में भी अलौकिक शक्ति देखी गई। गम्भीरा के राधाकान्त मठ की सेवा-परिचालना गोपाल गुरु करते थे। उन्होंने अपना शरीर वहीं पर छोड़ा। गोपाल गुरु को उनके शिष्य रोते-रोते स्मशान में ले गए। तब कुछ सरकारी अधिकारी राधाकान्त मठ में आए तथा कहने लगे कि यहाँ पर बहुत धन-सम्पत्ति है जिसका कोई हिसाब नहीं है। उसका हिसाब देना पड़ेगा। तब ध्यानचन्द्र गोस्वामी, जो श्रीगोपाल गुरु के शिष्य थे उनको यह समाचार मिला। उनको बहुत चिन्ता हो गई। तब ध्यानचन्द्र गोस्वामी अपने गुरुजी के पास जाकर उनके चरणों में गिर पड़े एवं रोते-रोते कहने लगे कि आपके चले जाने से सर्वनाश हो गया। अब मठ की रक्षा कैसे होगी? यह सुनकर गोपाल गुरु उठ कर बैठ गए।

जिन्होंने शरीर छोड़ दिया वे कैसे उठकर बैठ सकते हैं? ऐसा भी हमने देखा कि व्यक्ति यमपुरी से लौटकर आ गया। श्रीधर गोस्वामी महाराज का एक शिष्य क्षितिज जब चौदह वर्ष का था तब यमदूत उसे यमपुरी ले गए थे। यमपुरी जाकर पता चला कि उनसे भूल हो गई, वे 80 वर्ष के क्षितिज की जगह 14 वर्ष के क्षितिज को ले आए। तब उन्होंने उसे छोड़ दिया। जब उसकी आत्मा वापस आई तब तक उसके शरीर को स्मशान में ले जा चुके थे। जब उसका शरीर हिलने लगा, सबने सोचा कि वह भूत है। तब वह बालक सीधा उठकर श्रीधर गोस्वामी महाराज के पास गया तथा सब बताया। उसके बाद वह वापस घर गया ही नहीं। यह साक्षात् हमने उनके मुख से सुना।

जो हम लोग साक्षात् नहीं देखते हैं वह हम सोचते हैं कि अवास्तव है। यह सब जगत अवास्तव है। जो वास्तव में हम लोग देख रहे हैं यह सब नश्वर है, शरीर ध्वंस होने से सब ध्वंस हो जाएगा। इसका क्या मूल्य है? मूल्य उनका है जो नित्य रहते हैं—पूर्ण सच्चिदानन्द विग्रह।

वहाँ पर जब गोपाल गुरु उठकर वापस आए तो सब सरकारी अधिकारी भाग गए। तब जाकर उन्होंने सब समस्या का समाधान किया व उसके बाद वापस चले गए। कुछ समय बाद एक दिन वृन्दावन से समाचार आया कि आपके गुरुजी को तो यहाँ पर देखा। शिष्यों ने कहा कि उनकी तो यहाँ पर समाधि हो गई हैं परन्तु वे लोग दृढ़ता के साथ कहते हैं कि हमने उन्हें वृन्दावन में भजन करते देखा है। तब ध्यानचन्द्र गोस्वामी वृन्दावन में गए। वहाँ जाकर देखा कि उनके गुरुजी भजन कर रहे हैं। तब ध्यानचन्द्र ने गोपाल गुरु को प्रार्थना की कि आप मेरे साथ वापस चलिए। किन्तु वे वापस जाना नहीं चाहते थे। जब ध्यानचन्द्र बहुत रोने लगे तब अन्त में उन्होंने कहा कि वहाँ पर मेरी दारु मूर्त्ति स्थापित करो।

वक्रेश्वर पण्डित की तरह उनके शिष्य भी अलौकिक हैं। उन्हीं वक्रेश्वर पण्डित ने देवानन्द पण्डित का उद्धार किया। वे हम सबका भी उद्धार कर सकते हैं यदि हम उनके चरणों में गिर जाएँ। आज वक्रेश्वर पण्डित की आविर्भाव तिथि है। आविर्भाव तिथि में वैष्णव उदार होते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी आदि प्रकट तिथियों में प्रार्थना करने से शीघ्र कृपा मिलने की संभावना होती है। आज वक्रेश्वर पण्डित, जो महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय हैं, की कृपा प्रार्थना करनी चाहिए।

कृपा प्रार्थना भी भक्त की कृपा बिना नहीं होती। कृपा प्रार्थना करने के लिए भी योग्यता चाहिए। उनको स्मरण करने के लिए भी योग्यता चाहिए।

गुरु, वैष्णव भगवान तिनेर स्मरण।
तिनेर स्मरणे हय विघ्न विनाशन।
अचिराते हय निज अभीष्ट पूरण।।

केवल मुख से बोल दिया किन्तु भीतर से संसार की चिन्ता करते रहे, तो क्या लाभ हुआ?

प्रह्लाद महाराज ने कहा,

मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥

संसार के जीतने बद्धजीव हैं, जड़ीय मन से भगवान को स्मरण नहीं कर सकते।

ततो दु:सङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभि:॥

साधु संग द्वारा ही उन्हें स्मरण करना सम्भव है।

अत: श्रीकृष्ण नामादि: न भवेद ग्राह्यम् इन्द्रियै:।
सेवन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यद:॥

हमारी प्राकृत इन्द्रियों से कृष्ण के नाम-रूप-गुण-लीला अनुभव नहीं कर सकते। प्राकृत नेत्र तो नाशवान हैं। हमारे सामने आने से भी हम उन्हें नहीं देख सकेंगे। ‘सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यद:’—सब इन्द्रियाँ भगवान की ही हैं, यह शरीर भी भगवान का है, इन्द्रियाँ भी भगवान की हैं जब भगवान के होकर भगवान के लिए हम स्वयं को दे देंगे तो वहाँ पर भगवान का आविर्भाव होता है।

Bhagvan will descend in a completely surrendered soul. One should have the actual ego that I am of krsna, I am of devotee of krsna.

(भगवान पूर्ण शरणागत जीव के अन्तःकारण में ही अवतरित होते हैं। हमारा यह शुद्ध अभिमान होना चाहिए कि मैं कृष्ण का हूँ, उनके भक्त का हूँ।) उसके बाद भजन आरंभ होगा। उससे पहले भजन आरंभ हो ही नहीं सकता है।

सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते॥

समस्त उपाधियों से विनिर्मुक्त होकर, जब उसकी गन्ध भी नहीं रहेगी, संसार के किसी भी अभिमान की गन्ध भी नहीं रहेगी। केवल जगत का अभिमान छोड़ने से नहीं होगा। यह सोचना होगा कि मैं कृष्ण का हूँ, यह शरीर भी कृष्ण का है, सूक्ष्म शरीर भी कृष्ण का है, मैं कृष्ण का हूँ। यह ज्ञान कौन देगा? जो उसमें प्रतिष्ठित है। इसीलिए भगवान अपने भक्तों को भेजते हैं। जब भगवान ने अन्तर्धान किया, उनके पार्षदों ने भी अन्तर्धान किया, अनेक अपसम्प्रदाय निकल गए। तब भगवान ने देखा कि दुनिया में तथाकथित पण्डित बहुत हैं किन्तु कोई हमारी बात नहीं समझा। उस समय शास्त्र थे, चैतन्य भागवत है, चैतन्य चरितामृत है, षड्गोस्वामियों के ग्रन्थ हैं परन्तु कोई उनका तात्पर्य नहीं समझा। तब भगवान ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्रील प्रभुपाद को भेजा।

आज की तिथि में हम वक्रेश्वर पण्डित के श्रीचरणों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। उनको तो हमने देखा नहीं किन्तु उन्हीं के अभिन्न स्वरूप गुरुजी को हमने देखा, कैसे गुरुजी वास्तव में सहनशील थे। सब जगह प्रचार करने जाते थे। कभी नहीं सोचा यहाँ नहीं जाना, वहाँ नहीं जाना। हम उन्हें कहते थे कि वहाँ नहीं जाना, आपका अपमान करेंगे, तब वे कहते थे –“हमारा मान-अपमान क्या है? वे लोग भी भगवान के हैं। यदि वे बुलाएँगे तो हम अवश्य जाएँगे।” गुरूजी इस प्रकार भाव से बात करते थे कि उन लोगों ने कभी गुरूजी का असम्मान नहीं किया।