श्री नृसिंहावतार

बहुत वर्षों के बाद नरसिंह चतुर्दशी तिथि में गुरुजी के प्रतिष्ठित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के श्रीविग्रह श्री श्रीगुरु गौरांग श्रीश्रीराधामाधव के पादपद्मों में उपस्थित होकर तिथि पालन करने का अवसर मिला है। बहुत पहले इस समय हम शिमला में जाते थे। अब किसी कारण से हमारा शिमला जाना बन्द हो गया है। सब कुछ भगवान की इच्छा से होता है। उनकी इच्छा के बिना पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यदि कहें की हिल सकता है तो इससे भगवान की भगवत्ता की हानि होती है, सर्वशक्तिमत्ता की हानि होती है। उनकी इच्छा से ही जीव का जन्म होता है तथा उन्हीं की इच्छा से ही मृत्यु होती है। वे सभी के नियन्ता हैं। हम यह देख नहीं पाते।

नरसिंह चतुर्दशी का महात्म्य हमारे दशावतार ग्रन्थ को पढ़ने से कुछ पता चलेगा। उसमें बृहन्नारसिंह पुराण से प्रमाण लेकर लिखा है। आज के दिन प्रह्लाद की पूजा पहले करनी चाहिए। प्रह्लाद के लिए ही नरसिंहदेव का आविर्भाव हुआ है। भगवान की पूजा से पहले भक्त की पूजा करनी चाहिए। उसमें इस प्रकार वर्णित है कि प्रह्लाद पूर्व जन्म में वसुशर्मा के पुत्र थे तथा उनका नाम वसुदेव था, वे एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। वे अपने माता-पिता के सबसे छोटे पुत्र थे। उनकी माताजी सुशीला बहुत पतिपरायणा थीं। किन्तु वसुदेव एक वेश्या से आकृष्ट हो गए। इससे उनका चरित्र भ्रष्ट हो गया। जब किसी के साथ भोग का सम्बंध होता है, तब वहाँ झगड़ा भी होता है। प्रह्लाद जब पिछले जन्म में वसुदेव थे, तब भी बिना भगवद्सेवा संस्कार के अचानक से नृसिंह चतुर्दशी में तिथि पालन हो जाना, इतना सहज नहीं है। बद्धजीव के अन्दर असत् भाव ही रहते हैं। यह कुसंस्कार द्वादश गुण विशिष्ट ब्राह्मण में भी (उदित) हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में हमने श्रवण किया है कि द्वादश गुण विशिष्ट ब्राह्मण अजामिल भी पथभ्रष्ट हो गया था। किन्तु अपने पूर्व किसी संस्कार के फलस्वरूप उसने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान हमें सावधान करते हुए कहते हैं —

अपि चेतसुदुराचारो भजते माम्अनन्यभाक।
साधुरेव स मन्तव्य सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्तः प्रणश्यति।।

भक्त से यह प्रतिज्ञा करवाई। यदि किसी कारणवश किसी ने घृणित कार्य कर लिया, उनके चरणो में अपराध नहीं करना चाहिए। वे शीघ्र ही पवित्र धर्मात्मा बनेंगे। यह बात इसलिए कही क्योंकि उस व्यक्ति ने अनन्यरूप से भगवान का आश्रय किया किन्तु पूर्व के किसी संस्कार से कुछ गलत आचरण कर लिया। वसुदेव और वेश्या का अचानक से ही व्रत पालन नहीं हुआ। उनका आपस में झगड़ा हुआ जिससे वसुदेव के भीतर में परिताप हुआ कि मेरे पिताजी, भाई इत्यादि परिवार के सदस्य मुझे इतना स्नेह करते थे परन्तु मैंने सबको कष्ट ही पहुँचाया। इस प्रकार उन्हें अन्दर से पश्चात्ताप होने लगा तथा पुराने संस्कार भी आ गए। उन्होंने सोचा कि अब कुछ नहीं खाऊंगा एवं इस शरीर को त्याग दूंगा। वे भगवान को स्मरण करने लगे, और सोचने लगे कि मेरा जीवन तो व्यर्थ हो गया। इस प्रकार यदि न जानते हुए भी कोई नृसिंह चतुर्दशी के दिन व्रत पालन करे अर्थात् न खाकर रहे व भगवान के समीप वास करे, उसका फल अवश्य मिलेगा। इसी व्रत के फलस्वरूप वसुदेव अगले जन्म में हिरण्यकशिपु के ज्येष्ठ पुत्र प्रह्लाद के रूप से प्रकट हुए। उन्हें भगवद्भक्त नारद गोस्वामी की कृपा प्राप्त हुई। यह सब लीला श्रीमद्भागवत पढ़ने से पता चलती है। वेश्या भी देवलोक में अप्सरा शरीर प्राप्त करके बाद में भगवान को प्राप्त हुई। यदि प्राकृत उद्देश्य से व्रत पालन करें तो प्राकृत फल ही प्राप्त होता है। इसलिए शुद्ध भक्त नृसिंह देव से भक्ति के विघ्न हिरण्यकशिपु के विनाश की प्रार्थना करते हैं। हमारे अन्दर भी हिरण्यकशिपु है। यद्यपि बाहरी रूप से हिरण्यकशिपु एक असुर देखा जाता है किन्तु वह भी भगवद्पार्षद ही है। केवल लीला पुष्टि के लिए असुर रूप धारण किया है। इसीलिए भगवान ने चतु:सन को प्रेरणा दी। चतु:सन (सनक, स्नन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार) ब्रह्मज्ञ ऋषि थे तथा बाद में नारायण के भक्त बन गए थे। चतुःसन की आयु सप्तऋषि (अत्री, अंगिरा, पुलसत्य, अगस्त्य इत्यादि) से भी अधिक है। चतु:सन ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। किन्तु चतु:सन छोटे बच्चों की तरह नग्न होकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमते हैं। सब समझते हैं कि ये बच्चे हैं तथा उनकी ओर ध्यान नहीं देते। भगवान ने ऐसी लीला करवाई। एक बार वे वैकुण्ठ में भी चले गए, जहाँ जाना इतना सहज नहीं है। जब वे वैकुण्ठ में पहुँचे तो वहाँ के द्वारपाल — जय, विजय ने उन चारों को वस्त्रहीन देखकर कहा, “तुम लोग यहाँ पर कहाँ से आ गए हो? ये स्थान बच्चों के लिए नहीं है। तुम यहाँ से चले जाओ।” जय-विजय उन्हें बार-बार हटाने लगे। ऐसा करने से उन्हें गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा, “तुम में निर्गुण धाम में रहने की योग्यता नहीं है। तुम्हारे अन्दर रजोगुण-तमोगुण आ गया है, इसलिए तुम त्रिगुण से बने संसार में जाओ। हम तुम्हें अभिशाप देते हैं कि तुम असुर देह प्राप्त करो।” साथ ही साथ वे दोनों असुर देह प्राप्त करके नीचे की ओर जाने लगे। तब चतु:सन को उन पर दया आ गई और कहा कि तुम लोग तीन जन्म के बाद वापस आ जाना। अर्थात् वे दोनों भगवान की सत्ययुग, त्रेतायुग व द्वापरयुग की लीला में यथाक्रम हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष, रावण-कुम्भकर्ण तथा शिशुपाल-दन्तवक्र रूप से सेवा करने आए। जय-विजय भगवान के पार्षद हैं। उनके जैसी तपस्या ब्रह्मांड में कोई नहीं कर सकता।

हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे — प्रह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद तथा आह्लाद। इनमें गुण में सर्वश्रेष्ठ प्रह्लाद थे। उस समय में गुरु गृह में जाकर शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था थी। हिरण्यकशिपु ने अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रह्लाद को गुरु गृह में भेजा। उनके कुलगुरु शुक्राचार्य तपस्या करने गए थे इसलिए उन्होंने प्रह्लाद को शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। हिरण्यकशिपु ने सोचा कि वे दोनों राजप्रासाद (राजमहल) के निकट ही रहते हैं, इससे प्रह्लाद का समाचार भी मिलता रहेगा।

तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम्।
पाठयामासतु: पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान्॥
(7.5.2)

प्रह्लाद नीतिज्ञ थे। यदि हम में दुर्नीति रहे तब हम वास्तविक मंगल लाभ नहीं कर सकते। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्वयं आचरण करके शिक्षा दी। श्रीकृष्ण अपना माधुर्य आस्वादन करने के लिए राधारानी का भाव और अंगकान्ति लेकर चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने चंदन सरोवर, नरेन्द्र सरोवर के निकट गदाधर पण्डित गोस्वामी से ध्रुव चरित्र तथा प्रह्लाद चरित्र एक बार नहीं, सौ बार श्रवण किया। हमने एक बार भी पूरा ध्रुव चरित्र अथवा प्रह्लाद चरित्र शुरू से अन्त तक श्रवण नहीं किया। तब भी हम दूसरी बार सुनने पर कहते हैं कि हमने यह सुन लिया है, कोई नई बात सुनाओ। किन्तु श्रीमन्महाप्रभु सौ बार सुनने के बाद भी कहते थे कि मुझे और सुनाओ। भगवान् जैसे निर्गुण है — ‘हरिः हि निर्गुण: साक्षात् पुरुष: प्रकृतेः परः’ — उसी प्रकार भक्त भी निर्गुण है, प्रकृति के परे हैं। प्रह्लाद महाराज के अन्दर सब गुण पहले से ही विद्यमान थे। प्रह्लाद के जन्म से पहले जब हिरण्यकशिपु तप करने गया था तब देवराज इन्द्र को अवसर मिल गया और वे आक्रमण करके उसकी गर्भवती स्त्री कयाधु को लेकर चले गए। उन्हें मार्ग में नारद गोस्वामी मिल गए। उन्होंने कहा कि आप देवराज इन्द्र होकर ऐसा बुरा कर्म कर रहे हैं। इन्द्र ने कहा कि मेरी इनके प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। इनके (गर्भ में) अन्दर असुर हिरण्यकशिपु का वीर्य है। यह भविष्य में एक भयंकर असुर ही बनेगा इसलिए जन्म होने पर मैं इनके पुत्र का वध कर दूँगा। नारद कहते हैं कि इनके गर्भ में जो पुत्र है, वह विष्णु भक्त है। तुम उसे मार नहीं पाओगे। यह सुनकर कि वह विष्णु भक्त है, इन्द्र भयभीत हो गया तथा कयाधु को छोड़ दिया। इन्द्र ने गर्भ में स्थित संतान को प्रणाम करके क्षमा माँगी और कयाधु को छोड़ दिया। तब माता कयाधु नारद गोस्वामी के आश्रय में रहने लगी। वहाँ नारद गोस्वामी ने उन्हें बहुत उपदेश दिया। नारद गोस्वामी को प्रह्लाद की माता ने कहा कि आपने कृपा करके जो उपदेश दिया वह मुझे समझ नहीं आया। आप आशीर्वाद दीजिए कि मेरे गर्भ में जो सन्तान है उसमें आपके उपदेशों की स्फूर्ति हो जाए। गर्भ में रहते हुए ही प्रह्लाद को नारद गोस्वामी की कृपा मिली। वह शिशु जन्म लेने के साथ-साथ ही महाभागवत हुए। हिरण्यकशिपु तपस्या करके वापस आ गया। इधर प्रह्लाद कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, सदा भगवद्प्रेम में विभावित रहते हैं। नैतिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रह्लाद से सीखना पड़ेगा; श्रेष्ठ के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना, गुरूजनों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, समान आयु के व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना पड़ता है, छोटे बालक के साथ कैसा व्यवहार चाहिए — यह सब शिक्षाएँ प्रह्लाद से ग्रहण करनी चाहिएँ।

षण्ड और अमर्क अन्य असुर बालकों के साथ प्रह्लाद को भी शिक्षा प्रदान करने लगे।

यत्तत्र गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनुपपाठ च।
न साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम्॥
(7.5.3)

गुरुगृह में जाकर प्रह्लाद सब कुछ ध्यान से सुनते तथा जब उनके गुरु प्रश्न करते तो उसका सुन्दर रूप से उत्तर देते। षण्डामर्क को बहुत अच्छा लगा। प्रह्लाद को पहले ही नारद की कृपा प्राप्त हो चुकी थी। प्रह्लाद मन-मन में सोचते हैं कि हमारे गुरु (षण्डामर्क) हमें राजनीति की शिक्षा देते हैं। राजनीति अर्थात् साम, दाम, दंड, भेद। यह एक प्रकार की भेद नीति है जिसमें सिखाया जाता है कि यह अपना है, यह दूसरे का है। साधु इसे पसन्द नहीं करते। यह उसका दल है यह हमारा दल है, दल-दल का आपस में झगड़ा, गोष्ठी-गोष्ठी में झगड़ा — यह साधु पसंद नहीं करते। साधु मानते हैं कि सब कुछ भगवान का ही है। मन से प्रह्लाद उनकी शिक्षाओं को पसंद नहीं कर रहे थे, परन्तु कुलगुरु की एक मर्यादा है, उनकी आयु की भी एक मर्यादा है। इसलिए वे जो बोलते, प्रह्लाद उसे ध्यान से सुनते और उनके प्रश्नों के उत्तर भी देते। इससे षण्ड – अमर्क बहुत आनन्दित हुए। उन्होंने सोचा कि इस बालक ने इतनी कम आयु में ही कितना कुछ सीख लिया। यदि इसे घर भेज दिया जाए तो हिरण्यकशिपु यह जानकर उन दोनों पर बहुत प्रसन्न हो जायेंगे कि प्रह्लाद ने इतना शीघ्र ही सब शिक्षा ग्रहण की है । उन्होंने धर्म, अर्थ, काम तथा राजनीति की शिक्षा भी दी और प्रह्लाद सब का ठीक-ठीक उत्तर दे रहे है। तब उन्होंने प्रह्लाद को कहा कि तुम घर जाकर पिता-माता से मिलकर आ जाओ। षण्ड-अमर्क के ऐसा कहने पर प्रह्लाद महाराज घर गए। वहाँ जाकर माता को साष्टांग प्रणाम किया। वैसे तो माता प्रह्लाद को बहुत स्नेह करती ही हैं किन्तु उनके प्रणाम करने से माता को और अधिक स्नेह हुआ एवं प्रह्लाद को प्यार करने लगी, उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। फिर प्रह्लाद को स्नान करवाकर, अच्छी तरह से पोशाक पहनाकर सुसज्जित करके उन्होंने कहा कि तुम दरबार (राजसभा) में जाओ। वहाँ तुम्हारे पिताजी हैं। पिताजी को प्रणाम करके आओ। वहाँ जाकर प्रह्लाद ने पिता को सिंहासन पर बैठा देखा एवं साष्टांग प्रणाम किया। हिरण्यकशिपु को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना छोटा सा बालक कैसे प्रणाम कर रहा है। वह सिंहासन पर बैठा न रह सका व जाकर पुत्र को गोद में बिठा लिया। हिरण्यकशिपु को इतना आनंद हुआ कि अपनी नेत्रों के अश्रुओं से प्रह्लाद को पूरा गिला कर दिया। हिरण्यकशिपु ने सोचा कि यह अभी-अभी गुरु गृह से आया है। यदि मैं कोई विशेष प्रश्न पूछूँगा और यह उत्तर नहीं दे पाएगा तो इसके मन में दुःख होगा।

एकदासुरराट् पुत्रमङ्कमारोप्य पाण्डव।
पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भ‍वान्॥

एक दिन हिरण्यकशिपु ने सिंहासन पर बैठकर प्रह्लाद को गोदी में लिया और पूछा कि तुम जो साधु समझते हो (जो अच्छा समझते हो) वह बताओ। प्रह्लाद समझ गए जो शिक्षा मुझे षण्ड-अमर्क से मिली है, पिता उसमें से कोई अच्छी बात सुनना चाहते हैं। परन्तु उन्होंने जो सिखाया वह तो साधु बात नहीं है। उन्होंने तो मुझे राजनीति व धर्म-अर्थ-काम की शिक्षा दी। सब दरबारी प्रह्लाद पर बहुत श्रद्धा करते थे क्योंकि छोटा बालक होने पर भी वे बहुत ज्ञानी थे। प्रह्लाद जो भी बोलेंगे उसे वे लोग शास्त्र प्रमाण के रूप में ग्रहण करेंगे।इसलिए प्रह्लाद ने सोचा कि मैं झूठ नहीं बोल सकता। वास्तव में जो साधु है मैं वही कहूँगा। पिता के अभिप्राय अनुसार उत्तर नहीं दूँगा।

तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्।
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं
वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत॥

अपने पिता को कैसे सम्बोधित किया? हे असुर श्रेष्ठ! असुर वर्य! पिता कहकर सम्बोधित नहीं किया क्योंकि हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से प्रश्न किया कि तुम जो साधु समझते हो, वह बताओ। असुर तो साधु को अच्छा नहीं समझते। तब भी मेरे पिता असुर सम्राट होकर साधु क्या है — यह सुनने की इच्छा करते हैं। इसलिए अपने आश्चर्य भाव को प्रकाशित करने के लिए प्रह्लाद ने हिरण्यकशिपु को असुर वर्य कहकर सम्बोधित किया।

तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्।

‘देहिनाम्’ अर्थात् देह के अन्दर जो देह का स्वामी है। देह वास्तव में व्यक्ति नहीं है। सच्चिदानन्द तत्त्व जब तक शरीर में है, तब तक शरीर में इच्छा, क्रिया तथा अनुभूति रूपी चेतनता रहती है। जब तक चेतनता रहती है, तब तक व्यक्ति माना जाता है। चेतनता रहने से ही सबको सुख होता है। चेतनता चले जाने से मृत शरीर को कोई नहीं चाहता। मन इस संसार की नाशवान वस्तुओं में आसक्त होने कारण जीव कष्ट पाते हैं। जब तक शरीर में ‘मैं’ बुद्धि रहेगी असत् तृष्णा कभी नहीं जाएगी। मूल है स्वरूप भ्रम। स्वरूप भ्रम जब तक रहेगा असत् तृष्णा तब तक रहेगी ही। असत् तृष्णा से असद्वस्तु में आसक्त होते हैं। इसलिए प्रह्लाद कहते हैं — देहधारी जीव के लिए मैं साधु समझता हूँ कि जिनका मन इस प्रकार सदैव उद्वेग युक्त है उन्हें ऐसे आत्मा के पतन के स्थान, अन्धे कुएँ के समान घर को छोड़कर वन में जाकर हरि चरणाश्रय करना ही साधुता है।

अन्धा कुआँ अर्थात् जिस कुँए में पानी नहीं है। जिस कुएँ में पानी नहीं होता, वहाँ कोई जाता है? खारे पानी के पास भी कोई नहीं जाता, तब जहाँ पानी ही नहीं है वहाँ कौन जाएगा? यदि ऐसे अन्धे कुँए में कोई प्राणी गिर जाए तो उसके बचने का कोई उपाय है? उसकी मृत्यु वहीं पर हो जाएगी। यदि कुएँ के ऊपर कोई व्यक्ति सहायता करने के लिए न आए तो बचने का कोई उपाय नहीं है। जब तक ऊपर से सहायता ना मिले वह बाहर नहीं निकल सकता है। एक बार व्रजमण्डल परिक्रमा में ऐसी एक घटना हुई थी। परम पूज्यपाद भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराज पानी पीने गए। पानी के चारों ओर घेराव नहीं था। वहाँ जाकर स्नान किया और देखा कि पानी अच्छा है, तो उन्होंने पानी भर लिया। एक महिला वहाँ से जा रहीं थी, वह पानी में गिर गई। वह माताजी चिल्लाने लगी — “गुरुदेव! गुरुदेव! हा गुरुदेव! हा गुरुदेव! हा कृष्ण! हा कृष्ण! मैं गिर गई। गिर गई।” तब उस महिला को सबने किसी प्रकार से वहाँ से उठाया। यदि पानी न होता तो वहाँ पर कोई नहीं जाता। इसी प्रकार जहाँ पर साधु का, शुद्ध भक्त का समादर नहीं है, शुद्ध भक्त का आगमन नहीं है, उस अन्धे कुएँ के समान घर को छोड़ देना चाहिए। वह आत्मा के पतन का स्थान है। साधु जब घर में आएँगे तो कहेंगे — तुम कौन हो? तुम इस दुनिया के नहीं हो, यह शरीर नहीं हो, तुम भगवान् के हो, तुम्हारा भगवान् के साथ नित्य सम्बन्ध है। साधु यह समग्र बातें बताएँगे। इसलिए जब साधुसंग होता है तब हमारा हृदय भगवान् की ओर जाता है।

आगे प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि वन में जाकर हरि-चरणाश्रय करना। वन क्या होता है? अब तो जंगल भी शहर के समान बन गए हैं। क्या वहाँ सब भगवान का भजन करते हैं? नहीं, वहाँ बदमाश व्यक्ति, डाकू भी रहते हैं।

वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते।
तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम्॥
(11.25.25)

वन में रहना सात्त्विक वास होता है। त्रिगुण के अन्तर्गत आने वाला सात्त्विक वास उत्तम नहीं है तब भी अच्छा है। कम से कम त्याग और वैराग्य के साथ रहना चाहिए। सात्विक भाव से रहना चाहिए। निर्गुण भाव से शुद्ध भक्त के संग में रहना और भी अच्छा है। वन में भगवद्भक्त के संग में रहकर हरि का चरणाश्रय करना ही साधु है।

हरि कौन हैं? पद्म पुराण में लिखा है—

हरिरेव सदाराध्यः सर्वदेवेश्वरेश्वरः।
इतरे ब्रह्मरुद्राद्या नावज्ञेया कदाचन॥

हरि समस्त ईश्वरों के ईश्वर हैं। वास्तव में ‘हरि’ भगवान विष्णु का एक नाम है। जिस प्रकार भगवान् के एक स्वरूप को विष्णु कहते हैं, उसी प्रकार हरि भी कहते हैं। समस्त हरि में सर्वोत्तम हरि कौन हैं? वल्लभाचार्य चौराग्रगण्याष्टकम् में कहते हैं—

व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं, गोपांगनानां च दुकूलचौरम्।
अनेक-जन्मार्जित-पापचौरं, चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि॥

सबसे बड़ा चोर कौन है?
‘व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं’ — व्रज में माखनचोरी किसने की? नन्दनन्दन कृष्ण ने। उनसे बड़ा चोर कोई नहीं है।
‘गोपांगनानां च दुकूलचौरम्’ — व्रज में गोपियों के वस्त्रों का अर्थात् उनकी लज्जा का हरण किया।
‘अनेक-जन्मार्जित-पापचौरं’ — एक जन्म के नहीं, करोड़-करोड़ जन्मों के पाप हरण कर सकते हैं।
‘चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि’ — इस प्रकार जो चोरों में सबसे बड़े चोर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, उन्हें प्रणाम करता हूँ।

श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं, नवांबुदश्यामलकान्तिचौरम्।
पदाश्रितानां च समस्तचौरं, चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि॥

‘श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं’ — श्रीराधारानी के हृदय को कौन चोरी कर सकता है? नन्दनन्दन श्रीक़ृष्ण।

‘नवांबुदश्यामलकान्तिचौरम्’ — नव मेघ की श्यामल कान्ति को भी चोरी कर लिया।

‘पदाश्रितानां च समस्तचौरं’ — जो उनका आश्रय ग्रहण करते हैं, वे उनका सब कुछ हरण कर लेते हैं। उनका सर्वनाश कर देते हैं।

उन्हीं कृष्ण का जो भजन करते हैं, वे ही साधु हैं।

जब हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद के मुख से यह बात सुनी, हिरण्यकशिपु मुस्कुराया और सोचने लगा कि यह अभी बालक है, इसे समझ नहीं है। किसी वैष्णव अथवा साधु से ऐसी बात सुनकर इस प्रकार कह रहा है। विष्णु हमारा शत्रु है। विष्णु ने मेरे भाई का निधन किया। मेरा पुत्र होकर मेरे शत्रु की गुणावली करना तो अच्छी बात नहीं है। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि कोई भी वैष्णव हमारे राज्य में नहीं आना चाहिए। हिरण्यकशिपु का यह आदेश सुनने के बाद षण्ड और अमर्क भयभीत हो गए। उन्होंने सोचा कि हमने तो इस विचार से प्रह्लाद को वापस भेजा था कि महाराज प्रसन्न होंगे परन्तु यह तो उल्टा हो गया। हमने तो ऐसी शिक्षा नहीं दी कि भगवान का भजन करना ही श्रेष्ठ है, इसने यह शिक्षा कहाँ से प्राप्त की?

जब प्रह्लाद गुरु गृह में वापस आ गए तो षण्ड-अमर्क प्रह्लाद को सुमधुर वाक्यों से कहने लगे — “हे कुलनन्दन! असुरों का आनन्द वर्धन करने वाले! हम तुम्हें आशीर्वाद देते हैं कि तुम्हारा मंगल हो जाए। देखो, जो बात तुमने अपने पिताजी को कही वह तुमने कहाँ से सुनी? हमने तो कभी तुम्हें यह उपदेश नहीं दिया। तुमने अवश्य किसी व्यक्ति से श्रवण किया होगा। उस व्यक्ति का नाम बताओ। तब प्रह्लाद ने भगवान को प्रणाम करते हुए कहा—

पर: स्वश्चेत्यसद्ग्राह: पुंसां यन्मायया कृत:।
विमोहितधियां द‍ृष्टस्तस्मै भगवते नम:॥
(7.5.11)

अर्थात् भगवान की माया द्वारा मोहित होने के कारण जीव की स्व-पर भेद बुद्धि (अपना-पराया) होती है, ऐसा मैंने साक्षात् अनुभव किया। षण्ड और अमर्क उस व्यक्ति का नाम सुनना चाहते हैं ताकि उसे बाद में पकड़कर हिरण्यकशिपु के पास ले जा सकें। इस बात को प्रह्लाद ने समझ लिया। आगे प्रह्लाद कहते हैं कि जिस प्रकार चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है, उसी प्रकार भगवान ने मेरे हृदय को खींच लिया। इससे षण्ड-अमर्क क्रोधित हो गए और बोले—

आनीयतामरे वेत्रमस्माकमयशस्कर:।
कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दम:॥
(श्रीमद भागवत 7.5.16)

कोई हमारा वेत्र (डंडा) लेकर आओ, इसकी बुद्धि खराब हो गई है। इसे डंडे से मारना पड़ेगा। पहले कुलनन्दन कह रहे थे और अब कुलांगार अर्थात् कुल का नाश करने वाला कहकर सम्बोधित कर रहे हैं। जब प्रजा की कोई माँग होती है तो सरकार चार नीतियों का प्रयोग करती है — साम, दाम, भेद व दण्ड। पहले साम अर्थात् समझा-बुझाकर प्रजा को शान्त करने की कोशिश की जाती है। इसके पश्चात् दाम अर्थात् धन द्वारा उन्हें समझाया जाता है। यदि उससे भी न हो तो प्रजा में आपसी भेद (Divide and Rule) का प्रयोग किया जाता है। यदि इनमें से कोई उपाय से लाभ न हो तो अन्त में दण्ड का प्रयोग किया जाता है। जब देखा कि प्रह्लाद तो कुछ बोलता ही नहीं, कुछ विरोध ही नहीं करता, तो षण्डामर्क चुप हो गए। उन्होंने सोचा कि इसे और यत्न के साथ शिक्षा देनी होगी। ऐसा विचार उन्होंने प्रह्लाद को त्रिवर्ग — धर्म, अर्थ, काम की शिक्षा प्रदान की। वे जो भी प्रश्न करते, प्रह्लाद उसका सही उत्तर देते। कुछ दिन अध्ययन कराने के बाद उन्होंने सोचा कि अब यह ठीक हो गया है। तब षण्ड प्रह्लाद को उनकी माता के पास स्वयं लेकर गए। माता ने उन्हें स्नान कराकर बहुत प्यार किया। उसके पश्चात् दरबार में भेज दिया। वहाँ जाकर पिता को प्रणाम किया। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को गोद में उठाकर स्नेह किया। गोद में लेकर हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को पूछते है—इतने दिन तुम गुरु के पास रहे। जो तुमने सुष्ठु रूप से अध्ययन किया, तुम्हारे गुरु की शिक्षा में से कोई अच्छी बात (शिक्षा) मुझे सुनाओ।

प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्।
कालेनैतावतायुष्मन् यदशिक्षद्गुरोर्भवान्॥
(श्रीमद भागवत7.5.22)

तब जिन षण्डामर्क को पिता गुरु कह रहे हैं, वे वास्तव में गुरु नहीं हैं, इनसे मुझे भारी वस्तु (अच्छी शिक्षा) — भगवद्भक्ति, भगवद्ज्ञान नहीं मिली। यह लोग उत्तम बात नहीं कह सकते। मैं यदि षण्डामर्क की शिक्षाओं को बताऊंगा, सब लोग भ्रमित होंगे इसलिए नारद गोस्वामी से जो शिक्षा ग्रहण की है, मैं उसी के बारे में कहूँगा। तब प्रह्लाद ने कहा—

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥
(श्रीमद भागवत7.5.23-24)

जो विष्णु में अर्पित होकर, विष्णु का होकर, उनका नाम, रूप, गुण, लीला का श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, पादसेवन — भगवान अथवा उनके भक्तों का सेवन, इत्यादि नौ प्रकार की भक्ति साधन करते हैं, उनका अध्ययन ही सुष्ठु रूप से हुआ है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है, भक्ति साधन भगवान् का होकर, भगवान की प्रीति के लिए करना है, किसी अन्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं।

एक उदाहरण देकर इसे समझाता हूँ।

पूर्व बंगाल में स्थान है। वह नदियों का प्रदेश है, वहाँ पर बहुत वर्षा होती थी। एक समय उस गाँव में किसी का विवाह था। वर बारात लेकर गाँव में जा रहा था। बाराती नदी के किनारे आए और मल्लाह को कहा हमें रात 2 बजे से पहले उस गाँव में पहुँचा देना। मल्लाह कहता है कि आप निश्चिन्त हो जाइए, आपको बहुत पहले ही वहाँ पर पहुँचा दिया जाएगा। मल्लाह ले नाँव चलाना आरंभ कर दिया। कुछ समय बाद वे लोग आपस में बात करने लगे कि हम जो खाने-पीने का बढ़िया-बढ़िया सामान लाएँ हैं, पहले उसे खा लेते हैं। सब बारातियों ने खाया और मल्लाह को भी खिलाया। सबको खाकर नींद आ गई व सब सो गए। जब सुबह उठकर नींद खुली तो देखा — अरे! हम अभी तक इसी किनारे पर ही हैं? सर्वनाश! हमारा विवाह नष्ट हो गया। तब सब बाराती मल्लाह पर क्रोधित होकर उसे मारने के लिए आए। उधर मल्लाह कहता है कि मैंने तो रात भर नाँव को चलाया तथा चलाते-चलाते मेरा शरीर पसीना-पसीना हो गया। किन्तु बाराती कहते हैं कि हम तो वहीं हैं जहाँ से यात्रा आरम्भ की थी, एक कदम भी आगे नहीं गए। इसका कारण यह था कि मल्लाह ने लंगर ही नहीं उठाया था। इसी प्रकार हम भी भगवान का भजन करते हैं किन्तु लंगर संसार में रखते हैं। ‘मैं संसार का हूँ, मैं घर का हूँ, मैं देश का हूँ, मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हूँ’ — इतने प्रकार के जागतिक अभिमान रूपी लंगर रखकर चप्पू चलाते हैं अर्थात् भजन करते हैं। इसी कारण हम आगे नहीं बढ़ पाते हैं। लंगर को उठाना पड़ेगा। ‘मैं कृष्ण का हूँ, गुरुजी का हूँ, संसार का नहीं हूँ” — ऐसा सोचकर जब साक्षात् भगवान की प्रीति के लिए करें, तब वास्तविक भजन होगा।

प्रह्लाद से विष्णुभक्ति के विषय में इस प्रकार सुनकर हिरण्यकशिपु ने सोचा कि ये दोनों गुरु नहीं हैं, मेरे विद्वेषी हैं जो शास्त्र के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। ऐसी गलत शिक्षा दे दी। तब षण्ड और अमर्क कहते हैं—

न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं
सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो।
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्
नियच्छ मन्युं कददा: स्म मा न:॥
(श्रीमद भागवत 7.5.28)

हमने उसे ऐसी शिक्षा नहीं दी है, आप क्रोधित होकर व्यर्थ में हम पर झूठा आरोप लगा रहे हैं। इंद्र भी आपसे भयभीत होता है, हम गरीब ब्राह्मण है, आपके विरुद्ध कोई भी कार्य करने का दु:साहस नहीं करेंगे। हमने विष्णु भक्ति के बारे में कोई शिक्षा नहीं दी। प्रह्लाद की विष्णु के प्रति स्वाभाविक और जन्म से भक्ति है।” सत्ययुग में, सभी सदैव सत्य बोलते थे, असुर भी असत्य नहीं बोलते थे। इसलिए हिरण्यकश्यपु ने गुरु के पुत्रों पर विश्वास कर लिया। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद से पूछा,”तुम्हारी कृष्णमति कैसे हो गई, जब तुम्हारे गुरु ने तुम्हे इस बारे में शिक्षा ही नहीं दी?”

प्रह्लाद ने उत्तर दिया,

मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥

न ते विदु: स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिन: ।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना-
स्तेऽपीशतन्‍त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा: ॥

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्‌घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ: ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
(श्रीमद भागवत 7.5.30,31,32)

निष्किंचन महा-भागवत की कृपा के बिना एक गृहव्रत स्वयं के द्वारा या दूसरे गृहव्रत की सहायता से विष्णु भक्त नहीं बन सकता। हमारे गुरुजी ‘गृहव्रत’ की बहुत अच्छी व्याख्या करते थे । गृहव्रत वो है जिसकी घर मे आसक्ति है, विषयों में आसक्ति है, जो सब समय घर-घर-घर-घर करता रहता है। संसार के सब सम्बन्धो में आसक्ति है, वहीं गृहव्रत अपने प्रयास से या दूसरे गृहव्रत की सहायता से या दोनों के संयुक्त प्रयास से भगवान् में मति प्राप्त नहीं कर सकता।

गुरु महाराज जी इस विषय में बहुत अच्छे से समझाते थे। यदि गृह में रहनेवाले को ही गृहव्रती अथवा गृहमेदी कहा जाए तो साधू भी तो गृह में रहता है किन्तु साधु को गृहव्रती नहीं कहा जाता। न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी केवल गृह को गृह नहीं कहते, जिस गृह में गृहिणी है उस गृह को गृह कहते हैं, तथा स्त्री को केंद्र करके जो गृह में वास करता है, उसे गृहव्रती कहते है। वह अपनी इन्द्रियाँ जिसको देखा उसमें आसक्त कर लेता है। ऐसे व्यक्ति अपने प्रयास अथवा अन्य कोई स्त्रैण पुरुष (स्त्री या विषयों के प्रति अतिशय आसक्त पुरुष) सङ्ग या सहायता से भगवान की भक्ति लाभ नहीं प्राप्त कर सकते।

यह स्थूल शरीर गृह है जिसके अन्दर गृही ‘आत्मा’ वास करती है। इसमें एक और गृह है – सूक्ष्म शरीर। स्थूल शरीर में ‘मैं’ बुद्धि होती है कि “मैं शरीर हूँ” । इस प्रकार की बुद्धि देहात्म बुद्धि जिसमें केवल देह के आनंद के लिए ही सब कार्य करते है। यहाँ तक कि मठ में रहेंगे देह के आनंद के लिए, देह के स्वार्थ के लिए, मन की इच्छा पूर्ति के लिए। जगत के 600 करोड़ लोग यदि गृहव्रत हो, गृह में आविष्ट (अतिशय आसक्त) हो, स्त्री में आविष्ट हो, शरीर में आसक्त हो, मनोधर्मी हो, तो वे सब मिलकर भी किसी एक व्यक्ति को कृष्ण भक्ति प्रदान नहीं कर सकते है। उससे विपरीत, देहात्म बुद्धि होने से, गृहव्रत होने से नरक प्राप्ति होती है, अज्ञान में, भोग में प्रवेश करते हैं। षण्ड-अमर्क वेदज्ञ थे किन्तु वे वेदों के तात्पर्य को समझे नहीं, वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् और धर्मं अर्थ, काम, मोक्ष इत्यादि में फंस गए। नारद जैसे भक्त जो ब्रह्म वस्तु भगवान् में आसक्त हैं, वे वेदों के तात्पर्य को समझते हैं। भगवान् के भक्त का भगवद इतर वस्तु में वैराग्य होता है। जो हमारे वास्तव प्रयोजन की वस्तु नहीं है उसे प्रयोजन बनाने से वह संसार में बंधन का कारण बनती है। भगवद् भक्त जो संसार की कोई भी वस्तु की कामना नहीं रखते हैं एवं जो केवल भगवान् प्रीति-विशिष्ट है, ऐसे भक्तों के चरण रज से जब व्यक्ति रंजित होगा अर्थात् उनकी कृपा प्राप्त करेगा तब उसकी कृष्ण में मति होगी।

दूसरे शब्दों में, प्रह्लाद विष्णु के प्रति भक्ति (प्रेम) ना तो स्वयं के प्रयास से हुई और ना ही उनके कुलगुरु के पुत्रों की चेष्टा से हुई। प्रह्लाद ने कहा श्री विष्णु के प्रति मेरी मति, प्रीति निष्किंचन महा-भागवत श्री नारद की कृपा से प्राप्त हुई है। प्रह्लाद से इस प्रकार वाक्य सुनते ही, हिरण्यकशिपु ने सोचा यह तो और भी अधिक बिगड़ गया, मेरे शत्रु के दास का भी दास बन गया और वह क्रोध में अंध (विवेक-हीन) हो गया,

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भ‍वति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
(गीता 2.62)

क्रोध में व्यक्ति की बुद्धि-नाश हो जाती है। क्रोध में अंध होकर हिरण्यकश्यपु सब कुछ भूल गया, यह भी भूल गया कि प्रह्लाद एक छोटा बच्चा है। उसने बच्चे को ऐसे ज़ोर से फर्श पर फेंक दिया जिससे कि उसकी मृत्यु हो जाए। हिरण्यकश्यपु इतना बलशाली राक्षस है कि यदि कोई साधारण बच्चा होता तो तुरंत उसकी मृत्यु हो जाती किन्तु प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। अरे ये क्या है — सब वहाँ जितने भी दैत्य, राक्षस सभा में बैठे थे, वे सब सोचने लगे।

हिरण्यकश्यपु ने वहाँ उपस्थित दैत्यों को कहा, “यह हमारा शत्रु है, यह हमारे शत्रु के हीत के लिए सोचता है। जब शरीर का कोई अंग ख़राब हो जाए तो उसे काटकर फेंक देना ही उचित होता है। इसलिए इसकी हत्या कर दो।” सब कहने लगे,”यह तो आपका बेटा है,आप इसे मारने के लिए कह रहे हैं?” हिरण्यकश्यपु ने उनको समझाया कि यह हमारा शत्रु है। तब सब राक्षस ‘मारो’ ‘मारो’ कहकर चारों ओर से प्रह्लाद को घेरकर भाले इत्यादि द्वारा मारने लगे किन्तु वे उसे मार नहीं पाए क्योंकि स्वयं भगवान उसकी रक्षा करते हैं, प्रह्लाद भगवान की गोद में हैं। जो एक मुहूर्त में अनंत ब्रह्मांड का नाश कर कर सकते हैं, ऐसे भगवान् के आश्रय में जो हो और वे स्वयं उसकी रक्षा करना चाहते हो तब कौन उसको मार सकता है?

राखे हरि मारे के। मारे हरि राखे के।

तब बहुत उपाय से उनको मारने का प्रयास किया। विशाल हाथी के पैरों तले कुचलकर, पहाड़ से फेंककर, आग में जलाकर, भूमि में गड्ढा खोदकर उसमें जहरीले सांपों के साथ फेंककर, इस प्रकार जितने भी उपाय किए सब विफल हो गए। जब किसी भी उपाय से उसे मार नहीं पाया तब हिरण्यकशिपु सोचने लगा एक छोटा बच्चा है, यह कोई बात भी नहीं बोलता? इसमें क्या विलक्षण शक्ति है कि किसी उपाय से उसकी मृत्यु ही नहीं हो रही। कदाचित इसके हाथों मेरी मृत्यु होगी।

तब वहाँ षण्ड-अमर्क आ गए और कहने लगे, ”महाराज अभी यह छोटा बच्चा है। आपके बाद यह राज्यभार ग्रहण करेगा। छोटे बच्चे की बात को अधिक मूल्य नहीं देना। आप इनको समझा दीजिये और जिस प्रकार के अत्याचार आपने किए उससे भय के मारे उसने जो पहले सिखा था वह सब भूल जाएगा। हम उसे एक द्वीप पर बंदी बनाकर रखेंगे और उसे धर्म की शिक्षा देंगे। उसकी धर्म के प्रति रूचि है तो इसमें कोई हानि नहीं है, राजा धर्म-दान-पुण्य इत्यादि करते हैं उसमें कोई आपत्ति नहीं है, हमें हरि भक्ति से आपत्ति है।” इस प्रकार वे दोनों प्रह्लाद और अन्य शिष्यों को एक द्वीप पर ले गए जहाँ से डर के कारण वह भाग न सके और उनको शिक्षा देने लगे। एक दिन वे दोनों कुछ काम से अपने घर गए। सब बच्चे प्रह्लाद के पास आये और कहने लगे, “अभी हमारे शिक्षक यहाँ नहीं है, आप हमारे साथ चलिए हम सब मिलकर खेल-कूद करेंगे।“ प्रह्लाद ने उन सब बालकों से कहा, मुझे आप से कुछ बात करनी है। आप सब खेल छोड़कर यहाँ मेरे निकट आ जाइए। सब असुर बालक प्रह्लाद के निकट जाकर चारों ओर से उनको घेरकर बैठ गए। तब प्रह्लाद महाराज उन असुर बालकों को नारद गोस्वामी के उपदेश का निचोड़ शिक्षा देते हुए कहने लगे,

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥
(श्रीमद भागवत 7.6.1)

प्रह्लाद का प्रसंग बार-बार पढ़ने में क्या हानि है? बार-बार पढने से स्मरण में रहेगा उससे हमारा मंगल होगा। प्रह्लाद असुर बालकों से कहते हैं कि कुमार अवस्था से ही भगवान् का भजन करना चाहिए। बचपन से भजन करना चाहिये बूढ़ा होकर नहीं। बच्चों को सिखाने से बच्चों में संस्कार रहते हैं। जो संस्कार लेकर हम शरीर छोड़ेंगे, उसके अनुरूप ही हमने जन्म मिलेगा।

हमारे गुरुजी बताते हैं, चटट्ग्राम ग्राम में एक धनवान व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी उसकी पत्नी अस्वस्थ हुई। डॉक्टर ने बोल दिया कि दौ-तीन दिन रहेंगे इसलिए इन्हें ना तो कोई दवा देंगे और न ही कोई परहेज बताएँगे। इनको केवल हरिनाम सुनाओ। तब उनके पुत्र, भाई, सम्बन्धी सब आ गए। उस बुड्ढी स्त्री शरीर बहुत दुबला है, सुनाई नहीं उनके पुत्र उच्च स्वर में उनको कहते हैं, माताजी ‘हरे कृष्ण ‘ बोलो। तब माताजी बोलती हैं, “मैं इतनी बात नहीं बोल सकती हूँ!” उनके सब भी रिश्तेदार आ गए। माताजी कहती हैं, “जदुबाबू को बुलाओ” जदुबाबू बहुत घृणित कार्यों से पैसा कमानेवाला एक व्यक्ति है, उनका नाम लेने से वस्त्र के साथ जल में डूबकर मरना चाहिए, ऐसे घृणित व्यक्ति को मृत्यु के समय क्यों स्मरण करना है, पौत्र-पोत्री ने कहा,”दादी,’राधे-कृष्ण’ बोलो।” दादी जी बोली, “मैं इतनी बात नहीं बोल सकती।” वह भगवान् का नाम नहीं बोल सकती किन्तु बार-बार ‘जदुबाबू को बुलाओ, जदुबाबू को बुलाओ’ तब उनकी अंतिम इच्छा है यह सोचकर उनके पुत्रों ने जदुबाबू को बुलवाया। माताजी जदुबाबू को कहने लगी, “हमारे पास बहुत धन-संपत्ति है, तीन बेटे हैं पर उनमें बुद्धि नहीं है। सब कुछ नष्ट हो जायेगा। मुझे भरोसा दीजिए कि आप संपत्ति कि देखभाल करेंगे।” जदुबाबू कहने लगे, “माताजी आपके बेटे बहुत बुद्धिमान हैं, आपके पीछे आपकी सब जमींन, संपत्ति सब कुछ ठीक-ठाक रखेंगे पर आप एक बार ‘हरे कृष्ण’ बोलिये। इतनी बात नहीं बोल सकती।आखरी तक नहीं बोल सकी। इसलिए कुमार काल से भजन करना चाहिए। मनुष्य जीवन सुदुर्लभ है इसलिए भगवान् का भजन करना चाहिए। अस्सी (80) लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मनुष्य जन्म मिला है, जिसमें भगवान ने सत्-असत् का विवेक दिया है।

यहाँ प्रह्लाद महाराज ने असुर बालकों को उपदेश दिया। भगवान की सेवा से, कृष्ण की सेवा शांत, दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य जिस भाव से हम चाहते हैं, सब कुछ मिलेगा। संसार में ये सब सम्बन्ध से अन्त में पछताना पड़ता है किन्तु यहाँ अंत में पछताना नहीं पड़ेगा। शांत, दास्य, साख्य, पुत्र आदि सब रूप से कृष्ण प्राप्त हो जायेंगे।

प्रह्लाद की बात सुनकर सबको विश्वास हो गया, कृष्ण ही सर्वशक्तिमान है। जब षण्ड-अमर्क आए तो देखा कि सब असुर बालक भक्त बन गए हैं।। वे सोचने लगे, “सर्वनाश, अब क्या होगा? हम एक रात्रि बाहर गए, सबका सर्वनाश कर दिया।” चिंतित षण्ड-अमर्क हिरण्यकशिपु के पास जाकर कहते हैं, “महाराज, महाराज सब भक्त बन गए।” हिरण्यकशिपु तलवार लेकर सिंहासन से कूद गया। इतना दू:साहस है इसका?

प्रह्लाद को पूछा, “सब देवता मझसे डरते है। तुम मझसे डरते नहीं। किसका बल प्राप्त है तुझे?”

“विष्णु का?”

तेरा विष्णु कहाँ है?

“पिताजी, भगवान हरि प्रत्येक स्थान पर है,” प्रह्लाद ने कहा।

“तो फिर मैं उसे इस खंभे में क्यों नहीं देख पा रहा हूँ?”

प्रह्लाद ने कहा, “मैं उन्हें इस स्तंभ में भी देखता हूँ।”

“तब तो पहले तेरे भगवान को मृत्यु देता हूँ।”

ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु खंभे पर जोर से एक घूसा मार दिया। खम्भा टूट गया और एक भयंकर आवाज हुई और इसमें से नरसिंह देव प्रकट हुए।

सत्यं विधातुं निज भृत्य भासितम् अपने भक्त प्रह्लाद और ब्रह्मा दोनों के शब्दों को सत्य प्रमाणित करने के लिए भगवान प्रकट हुए। ब्रह्मा ने हिरण्यकशिपु को वरदान दिया था कि, न दिन न रात्रि में, न अन्दर न बाहर, न ऊपर ना निचे, ब्रह्मा के द्वारा सृष्ट कोई प्राणी द्वारा उसकी मृत्यु नहीं होगी। ब्रह्मा उसे अमरत्व का वरदान तो नहीं दे सकते थे किन्तु उसने अपनी बुद्धि लगाकर इस प्रकार से वरदान माँगा कि उसे मरना अत्यंत कठिन हो जाए तब भगवान ने क्या किया, सत्यं विधातुं निज भृत्य भासितम। एक अद्भुत अर्ध-नर और अर्ध सिंह के रूप में वे प्रकट हुए जिसे ‘नरसिंह’ कहा जाता है। भले ही प्रभु उसकी आँखों के सामने दिखाई दिए, फिर भी हिरण्यकशिपु उन्हें प्रभु के रूप में नहीं समझ सका; उसने उन्हें एक विचित्र प्राणी के रूप में देखा।

भगवान नरसिंह ने भयंकर रूप धारण किया है, और वे गर्जन कर रहे हैं जिससे सब भयभीत हो गए। किन्तु हिरण्यकशिपु गदा लेकर उन्हें मरने के लिए दौड़ा। और उसने बलपूर्वक नरसिंह भगवान् पर प्रहार किया। उन दोनों के बिच युद्ध आरंभ हो गया। लड़ाई करते करते भगवान् ने उसे अपनी गोद में उठा लिया क्योंकि उसकी मृत्यु न भूमि पर होगी ना आकाश में, इसलिए उसे गोद पर उठा लिया। कोई अस्त्र-शस्त्र से उसकी मृत्यु नहीं होगी इसलिए उन्होंने अपने तीक्ष्ण नाखुनो के द्वारा उसके वक्ष-स्थल और पेट को फाड़ दिया और उसकी सब आंतों को एक माला के रूप में पहन लिया। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है क्योंकि वह उनका ही पार्षद था जय-विजय के रूप में इसलिए उसे इतना सौभाग्य प्राप्त हुआ कि स्वयं भगवान् ने उसकी आंतों को अपने गले में माला के रूप में धारण किया। भगवान् भयंकर गर्जन करते हैं, वहाँ उपस्थित सभी देवी-देवता और अन्यान्य सभी ने उनका स्तव किया, किन्तु वे जितना स्तव करते हैं भगवान् उतने ही क्रोध में गर्जन करते हुए भयंकर ध्वनी (गर्जना) करते है। तब ब्रह्मा ने लक्ष्मी से प्रार्थना की कि वे श्री नरसिंह देव का क्रोध को दूर करने के लिए उनके पास जाए, किन्तु वे भी इस भयानक कभी नहीं देखे विग्रह के सामने जाने का साहस नहीं जुटा पाई। तब ब्रह्मा ने प्रह्लाद को नरसिंहदेव के क्रोध को शांत करने के लिए कहा।

ब्रह्मादय: सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धा:
सत्त्वैकतानगतयो वचसां प्रवाहै: ।
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रु:
किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजाते: ॥

इत्यादि सुन्दर मन्त्रों द्वारा प्रह्लाद भगवान् का स्तव करते हैं और भगवान् उसे श्रवण कर रहे हैं। प्रहलाद को कोई भय नहीं है किन्तु देवी-देवताओं, रूद्र, ब्रह्मा इत्यादि पर उनके क्रोध का कारण यह था कि निर्दोष, निष्पाप प्रहलाद को जब इतना कष्ट दिया जा रहा था तुम लोग उनकी रक्षा के लिए नहीं गए और अब मेरे पास आये हो, मैं तुम्हारी कोई बात सुनना नहीं चाहता हूँ, जो मेरे भक्त की बात नहीं सुनेंगे उनकी कोई बात में नहीं सुनूंगा। सब कुछ ध्वंश कर दूंगा। प्रह्लाद भयंकर मूर्ति नृसिंहदेव के पास गए और उनके चरण कमलों प्रणाम किया, प्रह्लाद उनको भयंकर नहीं देखते हैं उनको भगवान् के माधुर्य का अनुभव हो रहा है। प्रह्लाद को देखकर नृसिंहदेव शांत हो गए, भयंकर ध्वनी (गर्जना) भी बंद हो गई और उन्होंने स्नेह से युक्त अपना हस्तकमल प्रहलाद के सर पर रख दिया, ताकि प्रहलाद के सभी दोष, जो एक राक्षस वंश में पैदा होने के कारण थे, नष्ट हो जाये। और प्रहलाद ने श्री नरसिंहदेव का स्तव करना आरंभ कर दिया।

At Chandigarh on 1 May, 2007

 

Śrī Nṛsiṁha-avatāra