सबसे पहले मैं पतितपावन परम आराध्यतम श्री भगवान के अभिन्न प्रकाश विग्रह, श्री भगवद् ज्ञान प्रदाता, श्री भगवान की सेवा में अधिकार प्रदान करने वाले, परमकरूणामयी श्री गुरुदेव के श्री पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, पूजनीय वैष्णव वृन्द के चरणों में प्रणत होकर उनकी अहैतुकी प्रार्थना करता हूँ। भगवत कथा श्रवण पिपासु भक्तवृंदो का मैं यथा योग्य अभिवादन करता हूँ, सबकी प्रसन्नता की प्रार्थना करता हूँ।
आज श्रीमन् महाप्रभु के अंतरंगतम पार्षद श्री राय रामानंद की तिरोभाव तिथि है, कहीं पर वैशाख मास में तो कहीं ज्येष्ठ मास में रामानंद का तिरोभाव होने का उल्लेख है। आज की तिथि में जो विष्णुभक्ति परायण है, कृष्ण भक्ति परायण है, सर्वोत्तम कृष्ण प्रेम प्राप्त करने की इच्छा रखते है, उन्हें राय रामानंद से कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। केवल आविर्भाव या तिरोभाव में कृपा प्रार्थना करनी चाहिए, ऐसा नहीं, सब समय करनी चाहिए।
सांख्यापूर्वक-नामगाननतिभि: कालावासनी कृतो
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यंत-दिनौ च यो।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर मधुरिमानंदेन सम्मोहितौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।
श्रीनिवास आचार्य ने षड्गोस्वामी की वंदना में उनकी महिमा गान करते हुए लिखा कि वे केवल आविर्भाव या तिरोभाव में नहीं प्रतिदिन संख्या पूर्वक हरिनाम, गान एवं प्रणाम करते थे। हमारी तरह नहीं कि पहले हमें पंचाग देखना पड़ेगा या कोई वैष्णव स्मरण दिला दे तो हमें स्मरण आएगा। हमारे जो गुरुवर्ग हैं, चैतन्य महाप्रभु और कृष्ण के पार्षद हैं, उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर आचरण करके हमें शिक्षा दी है। वे प्रतिदिन संख्या पूर्वक हज़ारो वैष्णवों के उद्देश्य से दंडवत प्रणाम करते और उन्हें स्मरण करते थे।
‘नाम’-हरिनाम, ‘गान’-महात्म्य कीर्तन एवं ‘नतिभिः’-प्रणति। अन्य आहार-विहार, निद्रादि क्रियाएँ भी करते किन्तु उनमें अधिक समय नहीं देते थे, वह सब संक्षेप में करते थे। भगवान तथा उनके भक्तों के महात्म्य-कीर्तन में विशेष रूप से आग्रहयुक्त थे। मुझ जैसे भगवद्विमुख व्यक्ति, कामातुर बद्धजीव अपना लाभ देखते हैं। अपने शरीर को ठीक रखने पर अधिक ध्यान देते हैं। किन्तु उन लोगों का शरीर के ऊपर ध्यान ही नहीं होता था। वे अत्यन्त दीन-हीन की तरह रहते थे।
बाहर के विचार से भी श्रीसनातन गोस्वामी एवं श्रीरूप गोस्वामी साधारण व्यक्ति नहीं थे; प्रधानमन्त्री तथा वित्तमन्त्री थे। श्रीरघुनाथदास गोस्वामी भी साधारण व्यक्ति नहीं थे। किन्तु वे सब दीन-हीन भाव से रहते थे। अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की ओर बहुत कम ध्यान देते थे। परन्तु हम लोग उनकी नक़ल नहीं कर सकते। गोस्वामियों का अनुकरण करने के लिए नहीं कहा गया है, उनका अनुसरण करना चाहिए। वे सब महाप्रभु के पार्षद हैं।
श्रीराय रामानन्द के बारे में गौर-गणोद्देश दीपिका में लिखा है कि प्रियनर्म सखा अर्जुन, पाण्डु पुत्र अर्जुन और अर्जुनीया सखी राय रामानन्द में प्रविष्ट हैं। पद्मपुराण में श्रीराय रामानन्द के बारे लिखा है की पाण्डु पुत्र अर्जुन ने ही गोपी देह धारण की है। वह भी श्रीराय रामानन्द में प्रविष्ट हैं। भगवान सबकी इच्छापूर्ति करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वे ललिता सखी हैं परन्तु भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा है कि वे विशाखा सखी हैं। जो प्रधान सखियाँ हैं—ललिता एवं विशाखा; उनमें से ललिता सखी हैं—स्वरूप दामोदर तथा विशाखा सखी हैं—राय रामानन्द। भक्तिविनोद ठाकुर जी ने इस प्रकार लिखा है। राधाकृष्ण का जो विशाखा के प्रति प्रेम है और विशाखा का जो राधाकृष्ण के प्रति प्रेम है, उसे यहाँ पर स्मरण करना चाहिए। राधाकृष्ण मिलित तनु-गौरांग महाप्रभु ने जब तीव्र विरहात्मक विप्रलम्भ भाव दिखाते, तब उन्हें आश्वासन देने के लिए स्वरूप दामोदर गान करते व राय रामानन्द हरिकथा कीर्तन करते। जब भी श्रीमन् महाप्रभु को बहुत विरह होता था, वे दोनों उनके साथ ही रहते थे। वैष्णव तो बहुत थे किन्तु अन्तिम के बारह वर्ष केवल स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द ही महाप्रभु के साथ सब समय रहते थे। स्वयं महाप्रभु ने लिखा है—
प्रभु लेखा करे याँरे राधिकार ‘गण’।
जगतेर मध्ये ‘पात्र’—साड़े तिनजन॥
यह किसने कहा है? हम लोगो ने कहा है? नहीं, स्वयं महाप्रभु ने कहा—स्वरूप दामोदर, राय रामानन्द, शिखी माहिती और उनकी बहन माधवी। महिला को अर्द्धजन कहते हैं। यह साड़े तीन जन महाप्रभु को बहुत प्रिय हैं अर्थात् महाप्रभु के प्रियतम हैं। तथा उनमें भी स्वरूप दामोदर व राय रामानन्द सर्वोत्तम हैं।
श्रीराय भवानन्द को अवलम्बन करके राय रामानन्द और उनके चार भाई प्रकट हुए । राय भवानन्द का प्रकट स्थान आलालनाथ है, जहाँ पर महाप्रभु जाकर रहते थे। आलालनाथ अपभ्रंश शब्द है, वास्तविक शब्द है—अलवरनाथ। रामानुज सम्प्रदाय के लोग सिद्ध पुरुष को अलवर कहते हैं। अलवर अर्थात् सिद्ध पुरुष, द्वादश सिद्ध पुरुष। वहाँ पर सिद्ध पुरुषों ने अपने आराध्य नारायण की स्थापना की थी।
ब्रह्मपुर—जहाँ पर ब्रह्माजी ने सत्युग में तप किया था, उसके नज़दीक में ही राय भवानन्द का स्थान है। उनके पूर्वज वहीं रहते थे।
श्रीराय भवानन्द को अवलम्बन करके राय रामानन्द और उनके चार भाई प्रकट हुए। राय भवानन्द का प्रकट स्थान आलालनाथ है, जहाँ पर महाप्रभु जाकर रहते थे। आलालनाथ अपभ्रंश शब्द है, वास्तविक शब्द है—अलवरनाथ।
ब्रह्मपुर (ब्रह्मगिरी)—जहाँ पर ब्रह्माजी ने सत्युग में तप किया था, उसके नज़दीक में ही राय भवानन्द का स्थान है। उनके पूर्वज वहीं रहते थे।रामानुज सम्प्रदाय के लोग सिद्ध पुरुष को अलवर कहते हैं। अलवर अर्थात् सिद्ध पुरुष, द्वादश सिद्ध पुरुष। वहाँ पर सिद्ध पुरुषों ने अपने आराध्य नारायण की स्थापना की थी।
ऐसा सुना जाता है कि वहाँ पर कोमा ब्राह्मण ने भी सेवा की है। एक बार ब्राह्मण ने अपने पुत्र से कहा कि मैं बाहर जा रहा हूँ, तुम नारायण को भोग लगा देना और ब्राह्मण ये कह कर चले गए। वह बालक भगवान् को भोग किस प्रकार लगाते है, यह नहीं जानता था परन्तु भगवान बाहर की क्रियाओं पर अधिक ध्यान नहीं देते। भगवान् केवल भक्ति के वशीभूत है यही सत्य है, भगवान आयु, रूप नहीं देखते। उन्होंने ध्रुव की छोटी आयु या कुब्जा कुबड़ी का कुरूप नहीं देखा, भगवान ये सब नहीं देखते। हम लोग ये सब देखते हैं। भगवान के पास जाकर वह बालक कहने लगा, “पिताजी ने मुझे आपको भोग निवेदन करने के लिए बोला है, कृपया आप भोग ग्रहण करें, मैं तो यह भी नहीं जानता कि आपको किस प्रकार भोग निवेदन करते हैं।”-यह कहते हुए वह बालक बहुत रोने लगा। उसके भाव को देखते हुए भगवान ने जो भी भोग उसने निवदन किया था वह सारा ही खा लिया। हम लोगो को विश्वास नहीं होता किन्तु दृढ़ विश्वास की आवश्यकता है, यदि विश्वास ही नहीं है तो कुछ भी नहीं होगा। भक्त ये सब लीला साक्षात् दर्शन करते हैं किन्तु हम लोगो को ये सब दिखाई नहीं देता। भगवान ने साथ- साथ ही सब कुछ खा लिया कुछ अवशेष भी नहीं छोड़ा।
वहाँ के विचार से राय भवानन्द शूद्र कुल के हैं किन्तु हमारे परम गुरूजी (श्रील भक्ति सिध्दांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद) ने लिखा राय रामानंद ब्राह्मण है। वे वैष्णव परमहंस हैं जो ब्राह्मण के भी गुरु हैं। वैष्णव किसी भी कुल में आ सकते हैं, जो वैष्णव में जाति बुद्धि करते हैं, वे नरक में जाते हैं।
इस प्रकार देखा जाता है कि हरिदास ठाकुर मुसलमान कुल में आये, भक्त प्रह्लाद असुर कुल में आये, हनुमान कौन है-कपि (बंदर)। ‘हरिदास’ शब्द निम्न जाती के लोगो के लिए प्रयोग किया जाता है किन्तु वास्तव में वे निम्न जाती के नहीं है वे सब के पूज्य हैं।
अप्राकृत तत्व भगवान के सर्वोत्तम पार्षद, महापंडित, महामहापण्डित गृहस्थ होते हुए भी सन्यासियों के गुरु, सार्वभौम भट्टाचार्य, इतने बड़े विद्वान् होते हुए भी महाप्रभु को नहीं पहचान पाए और वे राय रामानन्द को भी नहीं पहचान सके। किन्तु भीतर से उनके स्वभाव का संग करने के कारण उन्हें अनुभव हुआ की इनमें कुछ विशेषता है। इसलिए जब महाप्रभु जगन्नाथ के दर्शन कर मूर्छित होकर गिर पड़े तब वासुदेव सार्वभौम उनको जगन्नाथ मंदिर से अपने घर ले आये। उन्होंने देखा बाह्य अंग कान्ति साधारण व्यक्ति की तरह नहीं है, विशाल है और अष्टसात्त्विक विकार भी हो रहे है। महाप्रभु देख कर उन्होंने सबको उनको स्पर्श करने से मना कर दिया और वे उनको अपने घर ले आये। बाद में जब नित्यानंद और, और सब पार्षद जगन्नाथ मंदिर पहुँचे तो उनको संवाद मिला कि महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर हैं तब सब वहाँ पहुँचे। उन्होंने महाप्रभु के नाक के सामने रुई रखकर देखा कि उनकी सांसे चल रही तब सब संकीर्तन करने लगे और महाप्रभु ने बाह्य चेतनता प्राप्त की। सार्वभौम को जब पता चला कि महाप्रभु का नीलाम्बर चक्रवर्ती (शची माता के पिता) से सम्बन्ध है, महाप्रभु के प्रति उनको स्नेह हुआ।
सार्वभौम भट्टाचार्य आयु में महाप्रभु से बहुत बड़े हैं। उन्होंने महाप्रभु से अकेले जगन्नाथ मंदिर में जाने से मना कर दिया। उन्होंने महाप्रभु से कहा देखने में तो तुम बहुत तेजस्वी हो, तुम्हारा रूप अपूर्व है तुमने किस सम्प्रदाय से सन्यास लिया है? महाप्रभु ने कहा केशव भारती सम्प्रदाय से, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा भारती सम्प्रदाय तो मध्य श्रेणी का है मैं तुम्हें उत्तम सम्प्रदाय से संन्यास दूँगा। सब भक्तों को सार्वभौम भट्टाचार्य की यह बात सुनकर दुःख हुआ कि स्वयं भगवान के लिए सम्प्रदाय की बात बोल रहे हैं। सार्वभौम ने कहा तुम्हे मेरे पास वेदांत सुनना पड़ेगा नहीं तो जिस यौवन काल में ही तुमने सन्यास ले लिया है उसकी रक्षा नहीं हो पायेगी। और सब भक्तों के हृदय में ये सब बाते सुनकर दुःख हुआ किन्तु महाप्रभु ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि वे मुझ पर अपना अधिकार समझ कर मेरे ऊपर बड़े स्नेह से बोल रहे है, तो मुझे उनसे वेदांत श्रवण करने में क्या आपत्ति होनी होगी? मैं उनसे वेदांत श्रवण करूँगा। एक सप्ताह तक सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु को वेदांत की व्याख्या सुनाई, यह व्याख्या कोई साधारण नहीं तात्विक व्याख्या थी। एक सप्ताह बाद सार्वभौम ने महाप्रभु से पूछा की वेदांत बहुत कठिन तत्व है तुमने सात दिन श्रवण किया तुम्हे समझ में आया?
यदि तुम्हें कुछ में नहीं आया तो मुझसे प्रश्न करना चाहिए। महाप्रभु ने उत्तर दिया आपने मुझे केवल श्रवण करने के लिए कहा था, प्रश्न करने के लिए तो नहीं कहा था। तब सार्वभौम ने पूछा, “क्या वेदांत सूत्र तुम्हे समझ में आया?” महाप्रभु बोले, “सूत्र तो स्वतः ही सिद्ध है सूत्र तो समझ आया पर आपकी व्याख्या समझ नहीं आयी।” तब दोनों का एक श्लोक पर विचार हुआ। सार्वभौम ने उस श्लोक की व्याख्या नौ प्रकार से की जबकि महाप्रभु ने उसकी व्याख्या 18 से भी अधिक प्रकार से की, ये प्रसंग चैतन्य चरितामृत में विस्तृत रूप से लिखा है। व्याख्या सुनकर सार्वभौम उनके चरणों में गिर गए और महाप्रभु ने उन्हें अपने षड्भुज रूप के दर्शन दिए।
माघ मास के शुक्ल पक्ष में महाप्रभु ने कटोया में संन्यास लिया और बाद में शांतिपुर होते हुए फाल्गुन मास में पुरी आये। चैत्र मास में दोल यात्रा दर्शन के बाद वासुदेव सार्वभौम की उद्धार लीला हुई। वैशाख में वे दक्षिण भारत जाने के लिए तैयार हो गए। नित्यानंद प्रभु ने कृष्णदास विप्र को महाप्रभु की सेवा के लिए उनके साथ भेजा। उस समय सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से कहा की आप गोदावरी के तट पर राय रामानंद से अवश्य मिलना। आपको उनका दर्शन करने और उनसे कथा सुनने से बहुत सुख होगा। मैंने वैष्णवों का बहुत उपहास किया किन्तु अब आपकी कृपा से वैष्णव तत्व मुझे समझ में आया, आप उनसे अवश्य मिलना। राय रामानंद और महाप्रभु के बिच के संवाद का प्रसंग बहुत लम्बा है हमारे गुरूजी ने आसाम में गुवाहाटी में ये प्रसंग एक महीने तक सुनाया था। पर हमें अभी दस बजे तक कथा समाप्त करनी पड़ेगी। जो गुरूजी से सुना उसे स्मरण करने की प्रयास करेंगे।
इसी प्रकार भक्तिविनोद ठाकुर जी भी कहते है
सिद्ध देह दिया वृन्दावन माझे सेवामृत करो दान।
पियाईया प्रेम मत करि मोरे सुन निज गुणगान।।
अपनी योग्यगता से हम भगवान की कथा नहीं बोल सकते हैं। भक्तिविनोद ठाकुर जिस भाव से लिखा है, उसका अनुवाद करना भी कठिन है, जब उनकी कृपा होगी तब हमको उसकी स्फूर्ति होगी। यह सब विषय हृदय में स्फुरित होते हैं, यदि हम सोचे कि हम अपने पांडित्य से लिख देंगे तो नहीं होगा। इसलिए भक्तिविनोद ठाकुर कह रहे हैं,”सिद्ध देह दिया (आप मुझे सिद्ध अप्राकृत देह दीजिये), वृन्दावन माझे सेवामृत करो दान। वृदावन में आप और राधारानी और आपके जितने भी निज जन हैं उनकी सेवा केवल आप और वे स्वयं ही प्रदान कर सकते हैं। आप कृपया सिद्ध देह प्रदान कीजिए, इस प्राकृत शरीर से आपके समक्ष जाकर आपका अनुभव करने की योग्यता इस जगत में किसी में नहीं है।” प्रह्लाद महाराज ने भी कहा कि गृहव्रती अर्थात गृह में आसक्त, गृह कहने से न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी केवल गृह को गृह नहीं कहते, जिस गृह में गृहिणी है उस गृह को गृह कहते हैं तथा स्त्री को केंद्र करके जो गृह में वास करता है, गृह कहने से मकान-शरीर, अर्थात् जो सब समय शरीरके विषय में ही सोचता है, किस प्रकार शरीर थी रहे या सूक्ष्म शरीर के विषय में सोचनेवाले मनोधर्मी। यदि ऐसे 600 व्यक्ति भी मिलकर प्रयास करे तब भी वे एक व्यक्ति को भी कृष्ण में मति नहीं दे सकते हैं। संसार का कोई भी बद्ध जीव किसी एक को भी भक्ति में नहीं लगा सकता है, मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा।
हालाँकि भक्ति विनोद ठाकुर भगवान् के नित्य पार्षद (कमल मंजरी) हैं तब भी हम लोगो को शिक्षा देने के लिए कह रहे है,”मुझे सिद्ध देह दीजिये, अपनी सेवा दीजिये, अपना महात्मय मुझे पान कराइये, और आप ही मेरे माध्यम से बोलिये और आप ही सुनिए।” ध्रुव जी जिनकी आयु पाँच वर्ष है, उन्हें नारायण का स्तव करने की इच्छा हुई परन्तु उन्हें कुछ ज्ञान नहीं था, नारायण ने अपना शंख स्पर्श करा दिया, और उन्होंने ऐसा स्तव किया, जिसे बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं समझ सकते हैं। उनकी कृपा से हृदय में स्फूर्ति हो जाएगी, हम लोग अपनी बहादुरी से कुछ जान नहीं सकते।
दक्षिण भारत में कोवूर स्थान पर गोदावरी के तट पर महाप्रभु और राय रामानंद का प्रथम मिलन हुआ। उससे पहले महाप्रभु कूर्म भगवान के स्थान पर गए उनके दर्शन किये। कूर्म विप्र को मिले और उनको कृष्ण भक्ति प्रचार करने के लिए आज्ञा दी। वासुदेव विप्र, जिनको देखने से ही लोग घृणा करते थे उन्हें इस प्रकार का कुष्ठ रोग था उनका भी उद्धार किया उनका उद्धार करके सिंघाचल में जियड़ नरसिंह में आये और नरसिंह देव के समक्ष स्तव किया। उसके बाद जब गोदावरी के पास पहुंचे तो गोदावरी को देखकर यमुना की स्मृति हो आई। शुद्ध भक्त का दर्शन ही वास्तव है और जो दर्शन हम करते हैं वह वास्तव नहीं है। वहाँ जाकर नदी देखकर यमुना की स्मृति हो आई। नदी के किनारे जंगल देखकर वृन्दावन का स्मरण हो उठा। ‘जहाँ-जहाँ नेत्र पड़े वहीं कृष्ण स्फूर्ति’। यही वास्तव दर्शन है हम लोग अवास्तव दर्शन करते है। इसलिए महाभागवत अवस्था में प्रचार नहीं हो सकता है। महाभागवत, अज्ञ व्यक्ति को समझाने के लिए माध्यम वैष्णव की लीला करते हैं।
किन्तु जहाँ वास्तव दर्शन है वहाँ बाहर का व्यव्हार देखते ही नहीं है। बाहर से देखने में लगता है राय रामानंद एक गृहस्थ हैं, राजा प्रताप रूद्र के कोई कर्मचारी या विशेष मंत्री है, निम्न कुल के हैं, किन्तु वास्तव में वे सर्वोत्तम हैं।
महाप्रभु ने उनके माध्यम से शिक्षा दी। कोवूर पहुँचकर गोदावरी में स्नान करके महाप्रभु बैठे हैं, उस समय राय रामानंद भी वहाँ पर स्नान करने के लिए आए, वे एक विशेष राजकर्मचारी है उनका सम्मान है इसलिए वे वाध्य-यंत्रों के साथ, गाजे-बाजे के साथ गोदावरी के तट पर आए। महाप्रभु स्वयं भगवान हैं और राय रामानंद विशाखा सखी हैं, महाप्रभु को देखते ही उन्हें आकर्षण हो गया। महाप्रभु ने जानकर पूछा,”तुम कौन हो?” राय रामानंद कहा, “मैं आपका शूद्र दास”। किसी को शूद्र कहेगे तो वह क्रोधित हो जायेगा, आपसे बात ही नहीं करेगा। किन्तु राय रामानन्द स्वयं ही बोले की वह शूद्र है, ये सुनकर महाप्रभु ने उन्हें तुरंत आलिंगन कर लिया और दोनों एकदम अप्राकृत भाव से विभावित हो गए। जो ब्राह्मण राय रामानन्द जी के साथ आये थे वे आश्चर्यचकित हो गए कि इतने बड़े संन्यासी ने एक शूद्र को स्पर्श किया। और ये इतना बड़ा धनी मानी व्यक्ति होकर एक संन्यासी को देख कर इन्हे विकार हो गया। किसी को कुछ समझ नहीं आया। वहाँ पर उन दोनों की बातचीत हुई और महाप्रभु बोले मुझे तुमसे कुछ कथा सुनने की इच्छा है। राय रामानन्द दीनता से बोले कि वासुदेव सार्वभौम की मुझ पर कृपा है उसकी यही पहचान है कि आप मुझ जैसे शूद्र जिसके दर्शन भी आपको नहीं करने चाहिए उसको आपने स्पर्श किया। महाप्रभु के दर्शनों से उपस्थित ब्राह्मणों और सब लोगो के हृदय गदगद हो गए। परन्तु महाप्रभु बोले तुम महाभागवत हो तुम्हारे दर्शनों से सब का हृदय द्रवित हो गया है। भगवान् भक्त की महिमा बढ़ाते हैं। राय रामानन्द बोले अभी तो मैं अपने कार्य पर जा रहा हूँ, संध्या के समय फिर आऊँगा। महाप्रभु ने उनसे जिस विषय पर प्रश्न किया वह बहुत गहरा विषय है। साधारण व्यक्ति इसे अपनी बुद्धि से नहीं समझ सकता, बिना शरणागति के हम इसे नहीं जान सकते। चैतन्य चरितामृत के मध्यलीला-अष्टम अध्याय में इसे एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है।
संचार्य रामाभिध-भक्तमेघे
स्वभक्तिसिद्धान्तचयामृतानि।
गौराब्धिरेतैरमुना वितीर्णे-
स्तज्ज्ञत्व-रत्नालयतां प्रयाति॥
(चै॰च॰म॰ 8.1)
(सिद्धान्तामृत समुद्ररूप श्रीगौरांग महाप्रभु जी ने रामानन्द जी नामक भक्तरूपी मेघ में, अपनी भक्ति के सिद्धान्त के अमृत का संचार करके व उस भक्ति सिद्धान्त के द्वारा स्वयं पुनः भक्ति तत्त्वरूपी समुद्रता प्राप्त की।)
चैतन्य चरितामृत में प्रत्येक अध्याय से पहले उसके सारांश के रूप में एक श्लोक लिख दिया गया है, यह समझाने के लिए कि उसमें अध्याय में क्या विषय वर्णित है। यहाँ पर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार समुन्द्र में सूरज की रौशनी पद्नसे से समुद्र जल से वाष्प बनती है उसी वाष्प से मेघ बनते है। और वर्षा के रूप में उन मेघों से पुनः जल समुद्र में गिरता है। उसी प्रकार यहाँ पर राय रामानन्द मेघ हैं, महाप्रभु सिद्धान्तामृत समुद्ररूप हैं। महाप्रभु प्रश्न करते हैं, राय रामानन्द उत्तर देते हैं। वैसे तो हम देखते है कि भक्त भगवान से प्रश्न करता है परन्तु यहाँ पर इसका विपरीत है। महाप्रभु राय रामानन्द से कहते हैं —पढ़ श्लोक साध्येर निर्णय, अर्थात् जो हमारा प्रयोजन है, जो साधन द्वारा प्राप्त होता है, उसे शास्त्र प्रमाण देकर कहो। मैं शास्त्र से बाहर की कोई बात सुनना नहीं चाहता हूँ। जो कहोगे शास्त्र-विहित कहना। तब महाप्रभु ने प्रश्न किए और उन्हीं की शक्ति से राय रामानन्द ने उत्तर दिए। इसलिए कहते हैं कि जिस प्रकार जल समुन्द्र से आया और समुद्र में ही चला गया उसी प्रकार महाप्रभु प्रश्न कर रहे हैं और उन्हीं की शक्ति से राय रामानन्द उत्तर दे रहे हैं।
सर्वप्रथम रामानंद नेकहते हैं—स्वधर्माचरणे विष्णुभक्ति हय। स्वधर्म अर्थात् वर्णाश्रम धर्म। अभी हम लोग त्रिगुण में फसें हुए हैं। जगत में जितने प्राणी हैं, सब त्रिगुण में ही फसें है सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। इन गुणों की मात्र सब में विभिन्न प्रकार की है। चार प्रकार के वर्ण हैं सत्त्वगुण प्रधान ब्राह्मण, रजोगुण प्रधान क्षत्रिय, रजस्तमोगुण प्रधान वैश्य और तमोगुण प्रधान शूद्र। शूद्र का गृहस्थ आश्रम, वैश्य और क्षत्रिय का वानप्रस्थ आश्रम और ब्राह्मण का संन्यास आश्रम।
वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यत्तत्तोषकारणम्॥
(विष्णुपुराण 3.8.9)
वर्णाश्रम धर्म में आराध्य कौन है? विष्णु आराध्य हैं। उनकी आराधना किस प्रकार से करेंगे? जिस प्रकार से शास्त्रों में वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत विधान दिया गया है, उससे विष्णु प्रसन्न होंगे। महाप्रभु बोले, “एहो बाह्य, आगे कह आर।”—अर्थात् यह बाहर की बात है, इससे आगे की बात कहो। यदि महाप्रभु कुछ न जानते होते तो क्या इस प्रकार कह सकते? नहीं। यहाँ से वर्णाश्रम धर्म प्रारम्भ हुआ है।
जो वर्णाश्रम धर्म विधान को नहीं मानते(जो वेद-शास्त्रों में करने के लिए कहा गया है, उसे नहीं करते), उसे न करने को अकर्म कहते हैं। वेद निषिद्ध कर्म करने को विकर्म कहते हैं; वे लोग पाप कर रहे हैं। ये सब तो धर्म की किसी श्रेणी में ही नहीं हैं। वर्णाश्रम धर्म से ही धर्म प्रारम्भ होता है।
धर्म कौन देगा? जीव कहाँ से आए हैं?
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रहम॥
(तैत्तिरीय उपनिषद् 3.1)
भगवान से ही जीव आए हैं, जीव भगवान से है, भगवान में है, और भगवान् के द्वारा है। भगवान् ही सब कुछ करते हैं, तुम कुछ करने वाले नहीं हो। जीव भगवान को भूलकर यहाँ संसार में गिर गया है इसलिए वापस ऊपर उठने का आरम्भ वर्णाश्रम धर्म से होगा। इसी कारण से वर्णाश्रम धर्म से आरंभ किया तथा अन्य क्रियाओं(अकर्म, विकर्म) को तो धर्म के रूप में स्वीकार ही नहीं किया। जब यह धर्म है और विष्णु प्रीति के लिए एकमात्र उपाय है, तब तो इसे मानना चाहिए। तब महाप्रभु ने इस प्रकार क्यों कहा कि एहो बाह्य?
माया के तीन गुण होते हैं—सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण। रजोगुण से जन्म, सत्त्वगुण से संरक्षण एवं तमोगुण से मृत्यु। हमें जो नाशवान शरीर मिला है, इसके लाभ के लिए जो भी वर्ण अथवा आश्रम धर्म पालन करते हैं, वह सांसारिक फल प्राप्ति के लिए है, जागतिक अभिमान लेकर जो वस्तु माँगी जाती है, वह वस्तु देने के लिए महाप्रभु नहीं आए। जड़ीय अभिमान रहने से इस संसार की वस्तु मांगेंगे तथा स्वर्गलोक, जनलोक, महलोक, तपलोक, सत्यलोक इत्यादि मांगेंगे। इससे ऊपर नहीं जा सकते। यह संसार महादुःखमय है। जो संसार में भोग करते हैं और स्वयं को बहुत बुद्धिमान समझते हैं, वे अत्यन्त मूर्ख हैं। जन्म के समय भी कष्ट, मृत्यु के समय भी कष्ट तथा जब तक जीवित रहेंगे तब तक भी कष्ट ही भोगेंगे। परन्तु जो इस विधान को ग्रहण नहीं करते, वेद से विरुद्ध आचरण ग्रहण करते हैं वे और अधिक कष्ट पाते हैं और जो विधान पालन करते हैं, उन्हें भी कष्ट होगा क्योंकि सब नाशवान है। जन्म-मृत्यु आदि त्रिताप ज्वाला को भोग पड़ेगा। इसलिए कहा— एहो बाह्य, आगे कह आर।
तब रायरामानन्द कहते हैं—कृष्णे-कर्मार्पण-सर्वसाध्यसार।
विष्णु का नाम छोड़ दिया। कृष्ण अर्थात् सर्वाकर्षक, सर्वानन्ददायक। कृष्ण शब्द ‘कृष्’ धातु और ‘ण्’ प्रत्यय के संयोग से बना है। ‘कृष्’ अर्थात् सबका आकर्षण करने वाले, ‘ण्’ अर्थात् आनन्दमय।
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्धवानन्दी भवति।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 2.7)
सब के भोक्ता श्रीकृष्ण में कर्मार्पण करने के लिए कह दिया। वर्ण आश्रम धर्म के द्वारा जब हम गृहस्थ आश्रम धर्म का पालन करेंगे तो स्वर्ग जाएँगे, ब्रह्मचर्य का पालन करने पर महलोक, तपलोक में जाएँगे तथा संन्यास आश्रम पालन करने पर सत्यलोक में जाएँगे। परन्तु ये सब माया के लोक हैं, किसी भी स्थान पर यथार्थ आनन्द नहीं है। सब दु:खमय स्थान है।
इसलिए बद्धजीव के स्वभावानुसार उन्होंने कृष्णार्पण करने के लिए कहा।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.27)
भगवान गीता में कहते हैं, तुम जो कुछ भी करते हो; खाते हो, यज्ञ करते हो, सब कार्य करो, किन्तु फल मुझे अर्पण कर दो। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जब हम कोई गलत कार्य करेंगे, उसे भगवान् को अर्पण कर देंगे। पहले वर्णाश्रम धर्म में प्रतिष्ठित होना पड़ेगा। इसलिए हमारे परम गुरुजी श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी ने गौड़ीय मठ में वर्णाश्रम धर्म रखा ताकि क्रम मार्ग द्वारा अपने लक्ष्य तक हम पहुँच सकें। यहाँ से धर्म प्रारम्भ है। पहले वर्णाश्रम धर्म में प्रतिष्ठित होंगे, उसके बाद कर्मार्पण होगा। विधर्म अथवा अधर्म करके उसका फल भगवान को दे देंगे—ऐसा नहीं है। जब तक वर्णाश्रम धर्म में प्रतिष्ठित नहीं हुए तब तक धर्म आरम्भ ही नहीं हुआ। आरम्भ होने के बाद क्रम-विकास होगा। इसमें भी एक त्रिगुणात्मक अभिमान है। हमने फल नहीं लिया किन्तु त्रिगुणात्मक अभिमान के साथ कर्म किया। फल लेने से सुख-दुःख दोनों भोगने पड़ेंगे—इस विचार से फल छोड़ दिया। यद्यपि कर्मार्पण अच्छा है, तब भी महाप्रभु ने कहा—“एहो बाह्य। मैं संसार के फल देने के लिए नहीं आया।इसमें भी दुःख है।”
आगे रायरामानन्द कहते हैं—स्वधर्म-त्याग, एइ साध्य-सार। इसके पुष्टि के लिए शास्त्र-प्रमाण देते हुए रायरामानन्द कहते हैं—
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।
धर्मान् सन्त्यज्य य: सर्वान् मां भजेत स तु सत्तम: ॥
(श्रीमद्भागवत 11.11.32)
अर्थात् भगवान कहते हैं कि मैंने जो शास्त्रों में आज्ञा की है, उसका गुण-दोष का विचार करना पड़ेगा। दुनिया के जीवों के कल्याण के लिए ही शास्त्रों में आज्ञा दी है किन्तु जिसका अधिकार उन्नत होगा वह जब देखता है कि ऐसा कार्य करने से भगवान की प्रसन्नता नहीं होगी तो वह उसे छोड़ देता है। इसलिए दोष-गुण का विचार करके दोष को छोड़कर गुण को ले लो। जैसे—भगवान के अर्चन में नियम है कि जितने समय पुजारी अर्चन करेगा, तब तक किसी से बात नहीं करेगा। परन्तु यदि उसके गुरुजी आ जाएँ व उसका नाम पुकारें, तब यदि पुजारी उसी समय अर्चन छोड़कर मंदिर से बाहर निकलकर गुरुजी को प्रणाम न करे तो वह नीच कोटि का व्यक्ति है। गुरुजी की आज्ञा लेकर ही भगवान् की पूजा होती है। पुजारी जब मंदिर से निकलेगा एवं गुरुजी देखेंगे कि वह तो पूजा कर रहा है तो गुरुजी स्वयं ही उसे कह देंगे कि तुम जाओ, पूजा करो। वे नहीं कहेंगे कि अर्चन छोड़कर मेरे पास आओ। तुम्हारा कर्त्तव्य है बाहर आना। इसी प्रकार गुण-दोष विचार करना पड़ेगा।
इसके अतिरिक्त एक और श्लोक द्वारा रायरामानन्द जी ने प्रमाण दिया—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)
यह गीता का सर्वोत्तम श्लोक है। यहाँ पर भगवान कहते हैं कि मैं जितने भी धर्मों के विषय में कह चुका हूँ—कर्म, ज्ञान, योग इत्यादि, जितना कुछ पहले कह चुका हूँ, उन सबको छोड़कर एकमात्र मुझमें शरणागत हो जाओ। तब अर्जुन कहते हैं कि आपकी शरण ग्रहण करने से संसार में अन्य जो सम्बन्ध हैं, उनकी सेवा न करने से, देवता, मनुष्य, इत्यादि की सेवा नहीं करने से पाप लगेगा। तब भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा। कितनी उच्च कोटि की बात कही। किन्तु महाप्रभु कहते हैं —एहो बाह्य, आगे कह आर।
जब मैं नया-नया मठ में आया था तब मेरे गुरुजी(परमगुरुदेव) ने भी मुझे यही कहा था कि तुम भगवान् का सहारा ले लो। वे सारे पापों का दायित्व ले लेंगे। जब हमें इस प्रकार संशय होगा कि भगवान् की पूजा करने से पाप हो सकता है तथा भगवान् को हमें आश्वासन देना पड़ेगा कि मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा—यह conditional surrender(सशर्त शरणागति) है। ये वास्तविक शरणागति नहीं है। समस्त जीव भगवान् से हैं, भगवान् में हैं, भगवान् के द्वारा हैं। भगवान् की सेवा करने से सबकी सेवा हो जाएगी, अलग से किसी की सेवा करने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु यहाँ पर भगवान् को प्रतिज्ञा करनी पड़ी। भगवान की भगवत्ता पर विश्वास नहीं है।
इस प्रकार कर्मत्याग करने से क्या गति होगी? विरजा तक चले जाएँगे। किन्तु वहाँ पर भी दुःख ही है। दुःख की लहर नहीं है किन्तु दुःख है। इसीलिए महाप्रभु ने कह दिया— एहो बाह्य, आगे कह आर।
आगे कहा—ज्ञानमिश्रा भक्ति–साध्यसार।
इसके प्रमाण में कहा—
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.54)
आगे कहा—ज्ञानमिश्रा भक्ति–साध्यसार।
इसके प्रमाण में कहा—
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.54)
जो भगवान् की ज्योति है—ज्योतिरभ्यंतर अतुलं श्यामसुन्दरम्।
चतुःसन पहले ब्रह्मानन्द में विभोर थे। जब नारायण के पादपद्मों में अर्पित तुलसी की सुगंध उनकी नासिका में गई तो उस सुगंध का पीछा करते हुए, जब नारायण के दर्शन किये तो ब्रह्मानन्द को छोड़कर उनकी भक्ति शुरू कर दी। ब्रह्मानन्द जो गोष्पदतुल्य है अर्थात् गाये के पैर से होने वाले गड्ढे में जितना जल एकत्रित होगा, ब्रह्मानन्द उसके समान है। यह ब्रह्मानन्द गोलोक-वृन्दावन के प्रेम का एक कण भी नहीं है। इसलिए ब्रह्मभूत होने से क्या होगा? जब जीव को ब्रहानन्द प्राप्त हो गया, आनन्द मिल गया, वह आत्मस्थ हो गया। जब भगवान में विश्वास करके ठीक प्रकार से आराधना करेंगे तो भगवान इस प्रकार फल दे देंगे किन्तु यदि विश्वास नहीं करेंगे, तो—तत् पतन्त्यध:—उस स्थिति से नीचे गिर जाएँगे। जो भगवान के स्वरूप को न मानकर ब्रह्मज्योति में रहना चाहते है, उनकी इच्छा भी भगवान ही पूर्ण करते हैं। इसमें आनन्द मिलेगा, आनन्द की लहर नहीं मिलेगी, क्योंकि ये वैकुण्ठ, गोलोक-वृन्दावन के बाहर है। यह देने के लिए भी भगवान नहीं आए। इसे भी कह दिया— एहो बाह्य, आगे कह आर। तब कहते हैं—
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव
जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम्।
स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभि-
र्ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्रिलोक्याम्॥
(श्रीमद्भागवत 10.14.3)
गुरूजी ने एक-एक श्लोक की एक-एक दिन व्याख्या की थी। मैंने एक दिन में ही सब बोल दिया, कठिन है, परन्तु यहाँ पर अधिक समय के लिए नहीं बोल सकते हैं। इसलिए संक्षेप में ही कह रहा हूँ।
हम अपनी बुद्धि के बल से भगवान का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, इस विचार को सम्पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिए।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.37)
कर्म द्वारा होने वाले सब प्रकार के मिथ्या अभिमान को ज्ञान ध्वंस कर देता है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.38)
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.19)
ये गीता में ही लिखा है जब ज्ञान होगा तब पता चलेगा कि अपने साहस से, अपनी चेष्टा से, अपनी तपस्या से भगवान् नहीं मिलेंगे। भगवान् ऐसी वस्तु नहीं हैं। उनके समान एवं उनसे अधिक कोई नहीं है। भगवान के पास जाने के लिए बहुत मार्ग नहीं हैं; एक ही मार्ग है। भगवान् की इच्छा से ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं है। किसी ने ऐसा उदाहरण दे दिया कि चंडीगढ़ में आने के कितने रास्ते हैं। आप लोग तो संकीर्ण हैं इसलिए कहते हैं कि एक ही मार्ग है। यहाँ आने के अनेक मार्ग हैं, किसी भी मार्ग से आ सकते हैं। इसी प्रकार भगवान् तो असीम हैं, इसलिए उन तक जाने के लिए भी असीम रास्ते हैं। तब मैंने कहा—भगवान् ने विवेक दिया है, आप थोड़ा विचार कीजिए। यह शरीर पंच महाभूत का विकार है। कोई व्यक्ति किसी भी मार्ग से चंडीगढ़ में आ सकता है। केवल मनुष्य ही नहीं, यहाँ तक कि कोई कुत्ता, बिल्ली अथवा चींटी भी आ सकते हैं क्योंकि वे चेतन हैं। चेतन प्राणी भगवान् की परा प्रकृति के अंश हैं। परन्तु जब आत्मा शरीर से चली जाएगी, तब नहीं आ सकता। क्या भगवान् ऐसी वस्तु हैं कि किसी भी मार्ग द्वारा भगवान के पास पहुँच जाएँगे? इसलिए भगवान् के समान और उनसे अधिक भी कोई नहीं है। यदि हम अपनी इच्छा से भगवान् को प्राप्त कर सकें तो इसमें भगवान की भगवत्ता की हानि होगी। इस प्रकार पाश्चात्य दार्शनिक भी कहते हैं—Absolute is for Itself and by Himself.
हम लोग ‘It God’ नहीं कहते, ‘He God’ कहते हैं। जड़ जगत में जितनी भी वस्तुएँ देखते हैं उनमें मनुष्य की श्रेष्ठता है। परन्तु मनुष्य की भी मृत्यु हो जाएगी, इसका भी ध्वंस हो जाएगा। प्रलयकाल में देवताओं का भी ध्वंस हो जाएगा। किन्तु भगवान् सृष्टि से पहले भी ‘अहम्’ रहे, सृष्टि के बाद भी ‘अहम्’ रहते हैं और सृष्टि की स्थिति में भी ‘अहम्’ रहते हैं। ‘अहम्’ का अर्थ है उनके पार्षद इत्यादि सब लेकर श्रील प्रभुपाद ने इस प्रकार व्याख्या की—
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३३ ॥
(श्रीमद भागवत 2.9.33)
यहाँ भगवान् ने ‘अहम्’ का प्रयोग किया अर्थात उनका व्यक्तित्व है। He is personality of God-head, He-God not It-God। कोई जड़ वस्तु कह सकती है कि मैं मायिक हूँ? चेतन कह सकता हैं कि मैं ‘मैं’ हूँ। फूल यह नहीं कह सकता कि मैं फूल हूँ। चेतन कहता है कि यह फूल है। परन्तु जब मनुष्य के अंदर से आत्मा चली जाएगी तब वह कुछ नहीं कर पाएगा।
नमन्त एव’—पहले शरणागति की बात कही। परन्तु बाहर से छोड़ने से नहीं होगा। साधु-विगलित हरिकथा श्रवण करनी होगी। केवल साधु का बाहरी संग करने के लिए नहीं कहा। शरणागति कैसे होगी, शरणागत भक्त के संग से होगी। केवल शरणागति के लक्षण मुख से याद करने से नहीं होगा।
आनुकूल्यस्य संकल्प: प्रातिकूल्यस्यविवर्ज्जनम् |
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणम् तथा।
आत्मनिक्षेपकार्पण्ये षड्विधा शरणागति:॥
जिस प्रकार एक रोगी डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने उसे देखकर उसकी बीमारी के बारे में पूछा और दवाई बताई। रोगी उस दवाई को याद करके चला गया। वह सारा दिन बैठकर डॉक्टर का नाम, बीमारी, बीमारी की दवा का नाम बोलता रहा। परन्तु जब वह ठीक नहीं हुआ तो दुबारा डॉक्टर के पास गया और ठीक न होने का कारण पूछने लगा। डॉक्टर ने पूछा कि मैंने जो दवा दी थी, क्या तुमने याद करके ली थी? रोगी उत्तर देता है कि हाँ, उसने सारी दवाइयाँ याद करली थीं तथा दवाइयों की सारी सूची सुनाने लगा।
डॉक्टर ने पूछा—तुमने दवाई खाई नहीं?
तब मरीज़ कहता है—आपने याद करने के लिए कहा था, खाने के लिए कब कहा?
इस प्रकार शरणागति के लक्षण केवल याद करने से नहीं होगा। दैन्य—जब तक संसार का किसी प्रकार अभिमान रहेगा तब तक भक्ति होगी ही नहीं। सब प्रकार का अभिमान पूरी तरह से छोड़ना पड़ेगा। शुद्ध भक्त के संग के बिना यह होगा नहीं। केवल मुखस्थ करने से नहीं होगा।
रूप-सनातन-पदे दन्ते तृण करि’।
भकतिविनोद पड़े दुहुँ पद धरि’॥
शरणागत भक्त ही शरणागति दे सकता है, इसलिए साधुसंग करना होगा।
मयि अनन्यभावेन भक्ति कुर्वन्ति ये दृढाम्
इसी प्रकार के साधु का संग करना चाहिये । तब क्या होगा,”मै कृष्ण का हूँ” इस प्रकार का विचार आएगा। जब तक मैं संसार का हूँ ये अभिमान रहेगा, तब तक भक्ति हो ही नहीं सकती।
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
जब तक मिथ्या अभिमान रहेगा, तब तक भक्ति नहीं होगी, कर्म होगा। तब भक्ति कौन देगा? जिनके भीतर आत्मा की नित्य-वृत्ति प्रकाशित है, वह भक्ति दे सकता है। इस प्रकार साधु के साथ रहकर, भगवान की सेवा के लिए उन्हें तनु- मन-वाक्य सब कुछ देना पड़ेगा। भगवान का होने का मतलब है कि सम्पूर्ण शरीर भगवान का है, सूक्ष्म शरीर तथा इन्द्रियाँ-इन्द्रियार्थ सब भगवान का है, मैं उनका हूँ। उनके लिए सब कुछ देना पड़ेगा।
स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभि:—
जिस स्थान पर रहने से भक्त का संग मिलता है अथवा जिस भी वर्ण और आश्रम में रहते हुए भक्त का संग मील रहा है, उसमें रहकर भगवान् की सेवा करें। तब महाप्रभु बोले—एहो हय, आगे कह आर।
महाप्रभु पहले से ही सब जानते हैं परन्तु राय रामानन्द के माध्यम से उत्तर दे रहे हैं। इसके बाद राय रामानंद ने प्रेम भक्ति की बात कही। प्रेम भक्ति में वैधी भक्ति है, और विशुद्ध प्रेम भक्ति-रागानुगा भक्ति है। भक्ति करते हैं किन्तु भीतर से उत्साह न होने पर भी करते हैं। जैसे भूख न होने पर भी थोड़ा खा लेते है। परन्तु जब भूख होती है तो आनन्द से खाते हैं। भूख न लगने पर भी किया हुआ भोजन वैधी भक्ति के समान है। जब अनुराग से होती है तो उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। उसके बाद रागात्मिका भक्ति के बाद शांत रस, दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस एवं मधुर रस के बारे में वर्णन किया। इनमें सबसे सर्वोत्तम मधुररस है, जिस रस से राधारानी कृष्ण की सेवा करती हैं।
राय रामानन्द राधाकृष्ण मिलित तनु, गौरांग महाप्रभु के स्वरूप की उपलब्धि करके बोले—
पहिले देखिलूँ तोमार संन्यासि स्वरूप,
एवे तोमा देखि मुञि श्याम गोपरूप।
तोमार-सम्मुखे देखि कांचन पंचालिका,
तांर गौर कांत्ये तोमार सर्व अंगे ढाका॥
पहले मैंने आपका संन्यासी स्वरूप देखा, परन्तु अब मैं आपका श्यामवर्ण गोपरूप देख रहा हूँ। उस श्यामवर्ण के बाहर सोने की पुतलि देख रहा हूँ। उसकी गौर कान्ति से आपके सब अंग ढके हुए हैं। पहले महाप्रभु कहते हैं कि तुम महाभागवत हो इसलिए इस प्रकार देखते हो। परन्तु बाद में महाप्रभु ने अपना स्वरूप उनके सामने प्रकाशित कर दिया जिसे देखकर वे मूर्च्छित होकर गिर गए। उन राय रामानन्द के सम्बन्ध में हम लोग क्या बोल सकते हैं? बाद में महाप्रभु जी के स्पर्श से उन्हें बाह्य-चेतना पुनः प्राप्त की। तब महाप्रभु कहते हैं कि तुम्हें मेरे साथ नीलाचल चलना पड़ेगा। रायरामानन्द ने कहा कि अभी तो नहीं जा सकता, राजा का कर्मचारी हूँ। थोड़ा प्रबंध करके फिर आऊंगा। तब महाप्रभु वहाँ से दक्षिण भारत गए और वापस आते हुए उन्होंने राय रामानन्द को दो ग्रन्थ—ब्रह्म संहिता और कृष्ण कर्णामृत दिए। राय रामानन्द ने उनकी नक़ल करके अपने पास रख ली।
बाद में राय रामानन्द पुरी में उपस्थित हुए। विस्तृत में आप ग्रन्थ में पढ़ सकते हैं, अभी मैंने संक्षिप्त में बोल दिया।
चैतन्य महाप्रभु के दो प्रियतम पार्षद हैं—स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द।
चंडीदास विद्यापति, रायेर नाटक गीति।
कर्णामृत श्रीगीतगोविंद॥
स्वरूप रामानन्द सने, महाप्रभु रात्रि दिने।
गाय शुने परम आनन्द॥
आज उनके पादपद्मों में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत् प्रणाम करके उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करेंगे। वे नित्य ही हैं, किसी भी स्थान पर उनका आविर्भाव हो सकता है। उनके तो साक्षात् दर्शन नहीं हुए परन्तु गुरुजी को देखा। गुरुजी उनकी परंपरा में ही हैं। उनको स्मरण करते हुए उनके पादपद्मों में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत् प्रणाम करते हुए उनकी कृपा प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे अपराधों का मार्जन करें तथा अपने पादपद्मों की सेवा, हमारे आराध्यदेव राधाकृष्ण की सेवा एवं गौरांग महाप्रभु की सेवा प्रदान करें।