आज विशेष भाव से हमें बलदेव को स्मरण करना चाहिए, जिनकी कृपा से हमारी संसार से मुक्ति होगी तथा श्री कृष्ण के पादपद्मों की सेवा मिलेगी। वह कृष्ण का ही अभिन्न स्वरूप हैं; कृष्ण की अभिन्न शक्ति हैं। रूप गोस्वामी जी ने एक श्लोक में लिखा है—

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः।
एकन्तु महतः स्त्रष्टृ द्वितीयं त्वण्डसंस्थितम्।
तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते॥
(लघु-भागवतामृत, पूर्व, 2.9/ श्री चैतन्य चरितामृत, आदि लीला 5.77)

(नित्यधाम में श्री विष्णु के तीन रूप हैं। प्रथम—महत् तत्त्व, सृष्टि करने वाले कारणोब्धिशायी महाविष्णु; द्वितीय—गर्भोदशायी समष्टि ब्रह्माण्डगत पुरुष (समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तर्यामी); तथा तृतीय—क्षीरोदशायी व्यष्टि ब्रह्माण्डगत पुरुष (प्रत्येक जीव के अन्तर्यामी ईश्वर एवं परमात्मा)। इन तीनों के तत्त्व को जानने से जीव जड़बुद्धि से मुक्त हो जाता है।)

कारणोब्धिशायी विष्णु ने प्रकृति के प्रति ईक्षण करके सृष्टि की रचना की। जड़ा शक्ति से कुछ नहीं होता; उसमें जब चेतन प्रवेश करते हैं, तब सृष्टि होती है। ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ — इस प्रकार विचार करके कारणोदशायी महाविष्णु ने अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि की। उनके कारण हैं—’महासंकर्षण’। वैकुण्ठ में संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध। द्वारिका में महासंकर्षण का क्षत्रिय भाव है। उनके कारण, वृन्दावन में गोप-लीला करने वाले बलदेव प्रभु ही मूल संकर्षण हैं। माधुर्य। द्वारिका में ऐश्वर्य भाव है। कृष्ण द्वारिकाधीश, द्वारिका के राजा के रूप में सूर्यग्रहण के उपलक्ष्य में कुरुक्षेत्र आए। कुरुक्षेत्र ब्रजधाम के निकट ही है, इसलिए बहुत प्रार्थना करने के बाद नन्द महाराज यशोदा माता वहाँ जाने के लिए मान गए। तब सब ब्रजवासी को लेकर वे कृष्ण के दर्शन करने के लिए उन्होंने कुरुक्षेत्र में गमन किया।

इधर नारद ने कृष्ण को शिकायत की कि आपने पूरे विश्व को निमंत्रित किया किन्तु ब्रजवासियों को निमंत्रण क्यों नहीं दिया। यद्यपि नन्दनन्दन श्री कृष्ण हर समय वृन्दावन में ही हैं, किन्तु बाहर से इस प्रकार लीला दिखाई कि ब्रज से बाहर हैं। इसलिए वह लोग भीतर से विरह संतप्त हैं। नन्द महाराज व यशोदा माता हर समय अपने पुत्र के लिए रोते हैं। वे कृष्ण को पुत्र रूप से प्रेम करते हैं। जब उन्हें कृष्ण के कुरुक्षेत्र आने का समाचार मिला, तो यह सोचकर कि “कृष्ण अब राजा बन गया है”। वह बहुत समय से हमसे मिला भी नहीं। इसलिए हम लोगों को भूल गया होगा”, पहले नन्द महाराज व यशोदा मैया कुरुक्षेत्र नहीं जाना चाहते थे। किन्तु ब्रजवासियों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने यह निर्णय लिया। वहाँ जाकर वे प्रत्येक द्वार पर गए, किन्तु बहुत प्रार्थना करने पर भी, किसी ने उन्हें अन्दर जाने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने कहा कि हम दूर से कृष्ण को देखेंगे तब भी द्वारपाल नहीं माने। तब सभी हताश हो गए। यशोदा माता ने कहा कि मैं अपने शरीर को यहीं त्याग दूंगी इतना कहकर मैया ज़ोर-ज़ोर से “गोपाल!…गोपाल!” पुकारने लगीं। उस समय कृष्ण ब्राह्मणों के साथ हवन में बैठे थे। परन्तु जैसे ही यशोदा माता ने ‘गोपाल! गोपाल!’ पुकारा, कृष्ण ने राजा की पोशाक फेंक दी, तथा एक शिशु बन गए व ‘माँ…माँ…’ पुकारते हुए दौड़कर यशोदा माता की गोद में आ गए। यशोदा माता की आंखों से आंसू निकल रहे हैं, स्तन से दूध निकल रहा है। कृष्ण को देखने से लग रहा है कि यह एक छोटा बालक है। कहने का भाव है कि नन्द महाराज व यशोदा माता कृष्ण और बलदेव को अपना पुत्र समझते हैं। उन्होंने पांच वर्ष की आयु तक बछड़ों को चराया, पौगण्ड आयु में प्रवेश करने पर अब गैया को चराएँगे। 10 वर्ष के बाद किशोर अवस्था आती है, जो सबसे श्रेष्ठ है। इसलिए उसी आयु में जो लीला हुई, उसी लीला का यहाँ पर वर्णन हो रहा है। तालवन में तथा भाण्डीरवन में विशेष रूप से वह लीलाएँ हुई हैं।

बलदेव से कारणोदशायी महाविष्णु तथा उनसे गर्भोदशायी विष्णु प्रकट होते हैं, जो कि अनन्त ब्रह्माण्ड के अन्तर्यामी हैं, तथा जिनसे सब अवतार निकले हैं। उसके बाद क्षीरोदक्षायी विष्णु प्रकट होते हैं, जो व्यष्टि ब्रह्माण्ड अर्थात् प्रत्येक जीव के हृदय में हैं। सब तत्त्व में एक ही हैं। भगवान दो-तीन-हज़ार नहीं हैं, भगवान एक ही हैं।

‘सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश-कृष्णस्वरूपयोः’ — तत्त्व एवं सिद्धांत में लक्ष्मीपति नारायण व कृष्ण एक ही हैं। लीलागत भेद है; एक ने ऐश्वर्य लीला और एक ने माधुर्य लीला की। गौर हरि ने औदार्य लीला की। किन्तु तत्त्व में कोई भेद नहीं है।

भगवान किसे कहते हैं? भग् + वान। उनके अनन्त ऐश्वर्य हैं, जिनमें षड्विध ऐश्वर्य प्रधान हैं। भगवान अनंत हैं। एक परमाणु भी उनके बाहर नहीं रह सकता। राम और कृष्ण में भेद है? बलदेव और कृष्ण में भेद है? तत्त्व में अन्तर नहीं है, लीला में अन्तर है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दण्डकवन के ऋषियों ने राम को पति रूप से सेवा करने के लिए इच्छा की। तब उन्होंने कहा कि यह इस लीला में नहीं हो सकता। इस लीला में मैंने एकपत्नीव्रत धर्म लिया है। केवल सीतादेवी का अधिकार है, और किसी का नहीं। ऋषियों ने जब बहुत प्रार्थना की तो कहते हैं कि जब मैं कृष्ण रूप से वृन्दावन में प्रकट होऊँगा, वहाँ पर गोपियों के आनुगत्य में तुम्हें कृष्ण पति रूप से प्राप्त होंगे। उनके वचनानुसार उनको कृष्ण प्राप्त हुए, किन्तु राम की लीला मर्यादा पुरुषोत्तम की है। तत्त्व में भेद है? नहीं, तत्त्व में एक है केवल लीला में अन्तर है।

हम दशावतार में कीर्तन करते हैं —‘जय जगदीश हरे….’। जयदेव गोस्वामी सर्वोत्तम मधुर प्रेम में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने दशावतार में लिखा ‘जय जगदीश हरे’। इस स्तोत्र में वे मीन लीला से लेकर सब अवतारों का नाम लेते हुए व उनकी लीला का गान करते हुए उन्हें प्रणाम कर रहे हैं। उस दशावतार लीला में बलदेव जी अष्टम अवतार हैं। इसी प्रकार वे पच्चीस अवतारों में से बाइसवां अवतार हैं। भगवान अनंत है व उनके अवतार भी अनंत हैं। शास्त्रों में कुछ अवतारों का उल्लेख किया गया है, हम समझते हैं कि उनके इतने ही अवतार हैं। किन्तु नहीं, उनके अवतार अनन्त हैं। इसलिए उनकी कोई सीमा नहीं हो सकती। सभी अवतारों में से हमारा साक्षात् संबंध बलदेव से है। बलदेव का हम पर स्नेह है और शासन भी है। स्नेह भी करते हैं, शासन भी करते हैं। उनके आविर्भाव के बारे में आलोचना होनी चाहिए। आज उनका आविर्भाव है। अतः इस विषय में संक्षेप में तो अवश्य सुनना चाहिए।

पृथ्वी देवी देखने में मिट्टी, पत्थर प्रतीत होती है, किन्तु पृथ्वी देवी हैं, सूर्य देवता हैं। यदि इस घर के पीछे चेतन वस्तु नहीं रहेगी तो क्या घर रहेगा? हज़ारों साल बाद गिर जाएगा। यदि चेतन वस्तु नहीं रहेगी तो क्या शरीर रहेगा? तब कहते हैं, “राम नाम सत्य है”, कोई कहता है “बोल हरि, हरि बोल।” कहाँ चला जाएगा? श्मशान में चला जाएगा। यह शरीर नित्य नहीं है, अनित्य है। बलदेव तत्त्व पूर्ण सच्चिदानन्द विग्रह तत्त्व हैं। यहाँ पर आविर्भाव एक लीला होती है। कैसे लीला की? जब पृथ्वी देवी के ऊपर पापी असुरों का बहुत अत्याचार हुआ, तो पृथ्वी रोने लगी। रो-रोकर ब्रह्मा के पास गई व कहा, “मैं अब जीवित नहीं रहना चाहती। इतना अत्याचार हो रहा है।” तब ब्रह्मा कहते हैं—मुझे क्षीरसागर में जाकर ध्यान करना पड़ेगा, विष्णु की आराधना करनी होगी। वे सब देवताओं को लेकर क्षीरसागर में ध्यान करने के लिए बैठ गए। ब्रह्मा के ध्यान करते-करते भगवान की आकाशवाणी हो गई कि भगवान का आविर्भाव होगा। देवताओं को अपनी स्त्रियों के साथ पांडव तथा यादव कुल में जन्म लेने के लिए कहो। तब ब्रह्मा ने सब देवताओं को कहा कि भगवान अब अवश्य प्रकट होंगे। आप सब देवता अपनी स्त्रियाँ लेकर यादव तथा पांडव वंश में अवतरित हो जाइए। देवताओं ने आज्ञा का पालन किया।

इधर वसुदेव के साथ उग्रसेन की कन्या तथा कंस की बहन देवकी का विवाह हुआ। विवाह होने से कंस को आनन्द हुआ तथा आनंदित होकर वह स्वयं देवकी व वसुदेव का रथ चलाने लगा। तब आकाशवाणी हो गई कि तुम इतने प्यार से अपनी बहन को लेकर जा रहे हो, इसी की अष्टम गर्भ तुम्हारी मृत्यु का कारण होगी। जैसे ही कंस ने यह सुना, तभी अपनी बहन के बालों को पकड़कर उसकी हत्या करनी चाही। यह कैसा प्यार है? वसुदेव ने प्रार्थना की कि ऐसा कार्य नहीं करना। बहुत समझाया। “आप धीर हैं। छोटी बहन कन्या के समान होती है।” इत्यादि, परन्तु वह कोई बात सुनना नहीं चाहता था।

तब वसुदेव कहते हैं, “दैववाणी हुई है कि देवकी आप को नहीं मारेगी, देवकी की अष्टम गर्भ आपको मारेगी। मैं आपको प्रतिज्ञा देता हूँ कि जैसे ही अष्टम गर्भ का जन्म होगा, मैं आपके पास उसे दे दूंगा।” वसुदेव एक साधु व्यक्ति हैं, कंस को यह विश्वास था। कंस मान गया और वसुदेव का विश्वास करके देवकी को छोड़ दिया।

जब पहला पुत्र हुआ तो उसे कंस के पास लेकर चले गए। तब कंस ने कहा, “नहीं, मुझे इनसे कोई भय नहीं है। यह तो शिशु है। इसे वापस ले जाओ।” वसुदेव ने सोचा कि धूर्त व्यक्ति की बात का कोई भरोसा नहीं है।

धूर्त्तस्य वचने क्वास्था, क्वचित् सत्यं क्वचित् मृषा।
क्वचित् रौद्रं, क्वचित् वृष्टि:, श्रावणस्य घनो यथा॥

अर्थात् धूर्तों के वचनों की कोई स्थिरता नहीं होती, जैसे सावन के महीने में कभी अचानक वर्षा, कभी धूप हो जाती है।

वसुदेव अपने सभी पुत्रों को कंस के पास ले गए। नारद तो सर्वत्र गमन करते रहते हैं। सब असुर व देवता के पास जाते हैं, छिपी हुई बात बताते हैं। जब कंस के पास गए, तो उन्हें कहा कि आप हर शिशु को वापस कर रहे हैं, किन्तु अष्टम गर्भ तो आरम्भ से भी हो सकता है, अन्त से भी हो सकता है। तथा मैंने सुना है कि सब देवता पाण्डव आदि कुल में आए हैं। इसका अर्थ है भगवान् का आगमन हो रहा है। कंस के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया, एवं उसने सभी शिशुओं को सब के सामने मार दिया। अपने नवजात पुत्रों को मरा हुआ जानने से किस माता को सुख होगा? इस प्रकार छह बालकों को मार दिया। किन्तु एक बात सब लोग नहीं जानते। ऐसा दिखता है कि कंस ने वसुदेव-देवकी के पुत्रों को मार दिया, परन्तु वास्तव में कंस ने अपने ही पुत्रों की हत्या की। कैसे? हिरण्यकशिपु के अधीन में एक असुर था। वह बहुत आसुरिक प्रवृत्ति वाला था। उसके छह पुत्र थे। उसने उन्हें तपस्या करने के लिए भेज दिया। हिरण्यकशिपु ने ऐसा नियम बनाया था कि उसकी आज्ञा लिए बिना कोई भी व्यक्ति कुछ भी कार्य नहीं करेगा। किन्तु उसने हिरण्यकशिपु की आज्ञा लिए बिना उन्हें तपस्या के लिए भेज दिया। इसपर हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया और कहा, “तुम्हारे समान प्रधान व्यक्ति यदि ऐसा करेंगे, तो अन्य लोग क्या शिक्षा ग्रहण करेंगे? मैं अभिशाप देता हूँ, कि तुम ही अपने पुत्रों की हत्या करोगे।” वही कंस रूप से आया।

भगवान की शक्तियाँ ही सब कार्य करती हैं। योगमाया व महामाया भगवान की शक्तियाँ हैं। योगमाया के प्रभाव से कंस को यह पता नहीं चला, कि वह अपने ही पुत्रों को मार रहा है। यदि पता होता कि मेरे ही पुत्र हैं, तो क्या उनकी हत्या करता? किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था, कि वास्तव में वह स्वयं के पुत्रों को ही मार रहा है। दुनिया ऐसी ही है। इस संसार में जो भी संबंध हम देख रहे हैं, सभी भयंकर हैं।

इसके पश्चात् सप्तम गर्भ के समय भगवान ने योगमाया को आज्ञा दी कि इस गर्भ को लेकर तुम गोकुल में रोहिणी के गर्भ में चली जाओ। इसलिए बलराम को ‘रोहिणी नन्दन’ कहते हैं। जिस प्रकार इस जड़जगत में महामाया है , उसी प्रकार योगमाया चिन्मय जगत में कार्य करती हैं। किसी को पता नहीं चल पाया। योगमाया के प्रभाव से सबको लगा कि यह गर्भ नष्ट हो गया है। किन्तु वास्तव में गर्भपात नहीं हुआ था, गर्भ को वहाँ से रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया।

16 Aug 2008 @Kolkota